जब भी भारत के स्वतंत्रता संग्राम की बात होती है, मोहन दास करमचंद गांधी का नाम बड़े इज्जत से लिया जाता है। पूरी दुनिया में जहाँ भी लोगों ने आजादी की लड़ाई लड़ी है, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से गांधी के सिद्धांतों का उपयोग किया है। चाहें नेल्सन मंडेला हों या मार्टिन लूथर किंग जूनियर ,सबने कहीं ना कहीं भारत के स्वतंत्रता संग्राम से कुछ ना कुछ लिया हीं है। इस बात को उन्होंने बहुत गर्व से लोगों के साथ साझा भी किया है। गांधीजी हमें बाद के वर्षों में जैसा दीखते हैं, वैसे वह हमेशा नहीं थे, उनका क्रमिक विकास हुआ साउथ अफ्रीका जाने के बाद से। इस क्रमिक विकास को एक महामानव का इवोल्यूशन कहा जा सकता है, बहुत हद तक वे नीत्से के सुपरमैन की तरह भी थे, यदि सुपरमैन के हिंसात्मक पक्ष को छोड़ दिया जाए तो। कानून की पढाई करने के बाद गांधीजी एक भारतीय दल की पैरवी करने साउथ अफ्रीका जाते हैं और वहीं कई वर्षों तक रहते है। वहां पर उनके साथ नस्लीय भेद भाव होता है, जिसका वे विरोध करते हैं। बाद में वहां पर रह रहे भारतीयों के लिए आवाज़ उठाते हैं, जिसमे उनको बहुत हद तक सफलता भी मिलती है। लेकिन वहां उनका दायरा बहुत वृहद् नहीं होता है। वहां वे केवल भारतीयों के लिए हीं संघर्ष करते नजर आते हैं।

नीत्से का सुपरमैन भी इसी तरह इवॉल्व होता है, लेकिन उसका रूप कहीं-कहीं हिंसक भी नजर आता है। हालाँकि सुपरमैन को कई तरह से समझा गया है, लोगों ने समय-समय पर उसकी अलग व्याख्या की है, लेकिन यदि कम से कम शब्दों में कहा जाए तो, जिसकी कथनी और करनी में अन्तर ना हो या यदि किसी की आंतरिक वास्तविकता उसके बाहरी वास्तविकता से मेल खाए, तो उसे सुपरमैन कहा जा सकता है। सुपरमैन पैदा नहीं होता, वह एक आम इंसान की तरह ही पैदा होता है, लेकिन धारा के विपरीत लड़ते-लड़ते वह खुद को इतना मजबूत बनाता है, कि बाद में उसके पास लोगों को बचाने कि शक्ति आती है। वह लोगों को बचाते समय खुद भी कई लोगों कि जान लेता है, ऐसा माना जा सकता है। हालाँकि इसकी व्याख्या अलग तरह से भी की जाती रही है, बहुत से लोग इस व्याख्या से सहमत नहीं नजर आते हैं, लेकिन फिर भी सुपरमैन खून में सना हुआ नजर तो आता ही है। सुपरमैन एक आम इंसान कि तरह जन्म लेता है, जीवन के संघर्षों से भागता नहीं है, परेशानियों के सामने डट कर खड़ा होता है। जो भाग जाते हैं, वह बन्दर ही रह जाते हैं, और जो मुकाबला करता है, वह इवॉल्व करता है और बाद में दुनिया पर राज भी करता है। इसकी एक व्याख्या थर्ड राइख में भी कि गई, लेकिन ज्यादातर विद्वान इससे सहमत नजर नहीं आते।

भारतीय राजनीति में गांधीजी का प्रवेश 1919 में होता है, हालाकि उसके कई साल पहले वह भारत आ जाते हैं। उनके आने के पहले भी इंडियन नेशनल कांग्रेस थी, लेकिन उस पर इलीट लोगों की ही पकड़ थी। आम जनता अपने आप को उस दल से जोड़ नहीं पाती थी। यहाँ इस बात को जानना बहुत जरुरी है, कि उनके आने के पहले कांग्रेस का लक्ष्य स्वराज नहीं था, एलिट लोग केवल कुछ सुधार चाहते थे, लेकिन उस व्यवस्था को बदलने की उनकी कोई मंशा नहीं थी। गांधीजी के आने के बाद आम लोग जुड़ना शुरू होते हैं, और पूरा आंदोलन एक मॉस मूवमेंट बनता है। उसके पहले गांधीजी पूरे देश की एक यात्रा करते हैं। उस यात्रा के दौरान वह लोगों के रहन -सहन, सोचने का तरीका आदि को समझने की कोशिश करते हैं। यह अपने आप में बहुत बड़ी बात है, कि कोई नेता नेतृत्व करने के पहले लोगों को समझने कि कोशिश करे। इस दौरान हर तरीके के लोगों से उनकी मुलाकात होती है, हर तरीके की संस्कृति से उनका सामना होता है, हर तरीके के दिक्कतों का उनको सामना करना पड़ता है। लेकिन वह बहुत ही सलीके से भारत के लोगों, संस्कृतियों और समाज को समझने का प्रयत्न करते हैं। उसके बाद उनका हुलिया बहुत बदला नजर आता है। वह भारतीय पोशाक धारण करते हैं और जीवन भर उसी तरह के कपड़े पहनते हैं। कई बार उनको इस बात की सलाह दी गई, कि हर जगह ऐसे जाना ठीक नहीं है , लेकिन फिर भी उन्होंने किसी कि बात नहीं मानी। यहाँ तक कि इंग्लैंड भी उसी वस्त्र में गए, जिसकी प्रेस ने कई बार आलोचना भी की।

चाहें वह अहमदाबाद में मील के मजदूरों का आंदोलन हो या चम्पारण सत्याग्रह, असहयोग आंदोलन हो या भारत छोड़ो आंदोलन हर जगह गांधीजी अलग नजर आते है। वह हमेशा अपनी गलतियों से सीखते हैं , हमेशा नए प्रयोग करते हैं और अहिंसा को कभी भी छोड़ते नहीं हैं। सत्य और अहिंसा से उनका सम्बन्ध हर समय कायम रहता है और उसके दायरे में हीं वह कुछ भी करते हैं। हालाकि कई बार इसमें बदलाव भी देखने को मिलता है, लेकिन उसको अपवाद स्वरुप ही लिया जाना चाहिए। जीवन के आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और लगभग सारे पक्षों के बारे में वह खुल कर अपनी बात रखते हैं, लेकिन कभी भी अपने मूल सिद्धांतों से समझौता करते नहीं दीखते। चाहे किसी भी तरह की परिस्थिति हो, चाहे किसी भी तरह की परेशानी हो ,चाहे लोगों या सरकार का कितना भी दबाव हो, वह हमेशा अपने सिद्धांतों पर अडिग रहते हैं।

कुछ ऐसे सन्दर्भ हैं, जो उनके अदम्य साहस का परिचय देते हैं, जिन परिस्थितियों में उन्होंने सच को सामने लाया, उसका इतिहास में दूसरा उदाहरण नहीं मिलता। एक बार वह बनारस गए हुए थे,जहाँ एनी बेसेंट एक सभा की अध्य्क्षता कर रही थीं। उस सभा में गांधीजी को भी अपनी बात रखनी थी। उस सभा में बहुत से राजे महराजे भी आए हुए थे। उनमें से ज्यादातर सोने और हीरों के गहनों से लदे हुए थे। यह देखकर गांधीजी बहुत व्यथित हुए। अपनी बारी का इंतजार करने के बाद वह जब बोलने के लिए खड़े हुए, तो सारा हॉल भरा हुआ था। लोग उन्हें सुनने के लिए आए हुए थे और जब उन्होंने बोलना शुरू किया तो लोग और आतुर हुए। वहां पर उन्होंने जिस तरीके से राजों महराजों की क्लास की, उसका कोई दूसरा उदाहरण पूरे इतिहास में नहीं मिलता। उनका कहना था , कि जब जब वह हीरे और सोने के आभूषणों से लदे राजा-महाराजाओं को देखते हैं, उनको गरीबों की याद आती है। इसके अलावा भी उन्होंने कई ऐसी बातें कही, जिससे राजा लोग बहुत दुःखी हुए। कई तो इस कदर नाराज हुए , कि वहां से उठकर चले गए। अंत में एनी बेसेंट को कहना पड़ा, स्टॉप मिस्टर गांधी। इस प्रकार का साहस और वह भी काशी में राजाओं के बीच शायद ही कोई दिखा पाया था। यह सहसमुच एक बहुत ही ऐतिहासिक घटना थी। राजतन्त्र से लोकतंत्र का रास्ता शायद यहाँ से भी होकर जाता है। दुनिया में अब तक जितने महान नेता हुए हैं, उन्होंने लोगों का तो ख्याल तो रखा, लेकिन अपनी सम्पति के बारे में भी काफी सचेत रहे एक आम इंसान की तरह अपने बेटे बेटियों के लिए काफी धन यदि इकठ्ठा नहीं भी किया, तो कम से कम अपनी संपत्ति उनको सौंप कर गए। लेकिन गांधीजी ने ऐसा नहीं किया। उन्होंने अपनी सारी संपत्ति देश को सौंप दी। यहाँ तक कि अपने रिकार्डिंग्स तक उन्होंने देश को सौंप दी।

भारत छोड़ो आंदोलन का भारत के राजनीतिक इतिहास में बहुत महत्त्व है। हालाकि बहुत सारे लोग इस आंदोलन को इंडियन नेशनल कांग्रेस की एक रणनीतिक चूक भी मानते है। उनका यह तर्क है कि नैतिक रूप से तो यह आंदोलन बिलकुल सही कदम था, लेकिन इसका समय थोड़ा अलग था। इस समय को पहचान कर ही कोई भी कदम उठाया जाना चाहिए था। इस आंदोलन में कांग्रेस के सारे नेता जेल में डाल दिए गए और विभाजनकारी ताकतों को खुला मैदान मिल गया कई वर्षों के लिए। जिसका नतीजा अंततः बंटवारा ही हुआ। इस पर कई तर्क दिए जा सकते हैं  और इतिहास को दूसरे तरीके से देखने कि प्रक्रिया भी अपनाई जा सकती है। निष्कर्ष जो भी हो, लेकिन इस आंदोलन में गांधीजी का एक दूसरा रूप ही देखने को मिलता है। हमेशा यह कहा जाता है, कि उन्होंने अहिंसा का मार्ग कभी नहीं छोड़ा, जो कि ज्यादातर जगह सही भी दीखता है, लेकिन यह आंदोलन एक ऐसा समय था, जब उन्होंने इस सिद्धांत को एक दो बार दरकिनार भी किया। क्रांतिकारियों से मिलने के बाद उनको यह ज्ञात हुआ, कि वे उनपर बहुत विश्वास करने को तैयार नही हैं। उनका तर्क यह था, कि हिंसा होते ही गांधीजी कहीं आंदोलन वापस न ले लें। इस बात कि संभावना भी थी ,क्योकि ऐसा एक बार हो चुका था, लेकिन इस बार गांधीजी ने उनको विश्वास दिलाया कि वह ऐसा नही करेंगे और हिंसा होने के बावजूद आंदोलन वापस नही लिया।

मार्च 1947 की बात है, बंटवारे के सुगबुगाहट के चलते और कुछ संगठनों के उकसावे के चलते पूरे देश में दंगे भड़क उठे। रावलपिंडी में महिला दिवस के दिन भीषण नरसंहार हुआ, हजारों की संख्या में लोग मारे गए। बाद में लाहौर और मुल्तान भी इसकी चपेट में आ गए। लाखों की संख्या में लोग मारे गए और अपना घर से लेकर सबकुछ छोड़ने को मजबूर हुए। बाद में पूर्वी पंजाब, दिल्ली, बंगाल से लेकर पूरे देश में दंगों की आग फैल गई। कोई किसी को पूछने वाला नहीं था। आज़ादी का समय आते-आते तो इस नरसंहार ने इतना भीषण रूप पकड़ चुका था कि होलोकास्ट के अलावा ऐसा उदहारण पूरी मानव सभ्यता के इतिहास में नहीं मिलता है। इंसानों से इंसानियत छीनी जा रही थी ,लोगों को उनके घर से बेघर किया जा रहा था, महिलाओं कि अस्मत लूटी जा रही थी। गांधीजी दंगों को रोकने के लिए कलकत्ता गए। उनका वहां बहुत विरोध हुआ। यहाँ तक कि लोगों ने उस जगह पर हमला किया जहाँ वह रह रहे थे, लेकिन इस बात का उल्लेख उन्होंने कहीं भी नहीं किया। अपमान के विष को पि गए हमेशा की तरह। लोगों को समझने की कोशिश की और अंततः वहां भी दंगे रुक गए। उसके बाद वह दिल्ली गए और वहां लोगों से मिलना शुरू किया, कुछ दिनों के बाद वहां भी बेकस लोगों पर दंगाइयों के हमले बंद हो गए। यही नहीं बहुत सारे लोगों ने उनका अनुकरण किया अलग-अलग जगह, जिसके चलते कई और जगह दंगे रुक गए। जब वे बंगाल से लौटकर दिल्ली आए तो उनको गवर्नर जनरल माउंडबेटन का एक खत मिला, जिसकी बहुत जगह चर्चा नहीं होती है। उसमे तत्कालीन गवर्नर जनरल ने ऐसा कहा था कि उनके पास पचास हजार कि फ़ौज होने के बावजूद वह दंगे नहीं रोक पर रहे थे पंजाब में। लेकिन अकेले एक इंसान ने ऐसा करके दिखा दिया। उसके बाद पूरे देश में दंगे होने बंद हो गए। जो काम पचास हजार कि फ़ौज न कर सकी वह काम एक अकेले इंसान के कर दिखाय। इससे बड़ा सबूत क्या हो सकता है गांधीजी के महामानव होने का! उन्होंने कथनी और करनी में फर्क नहीं किया, हमेशा अपनी गलतियों से सीखा, लोगों की रक्षा की और दिन पर दिन उनका इवोल्यूशन हुआ सुपरमैन कि तरह।

   

सन्दर्भ ग्रन्थ

  1. Chandra, Bipan: India’s struggle for Independence 1857-1947, Penguin Books, Delhi 2000.
  2. Chandra, Bipan: India since Independence, Penguin Random House India, Delhi 2008.
  3. Ahmad, Ishtiaq: The Punjab Bloodied Partitioned and Cleansed, Unravelling the 1947 Tragedy through secret British Reports and personal accounts, Rupa Publication House, Delhi 2011.
  4. Nietzsche, Friedrich: Thus spoke Zarathustra, Penguin Popular Classic. Delhi 2000.
  5. youtube/bipanchandralecturesongandhiji.com, last seen on 12.02.2024.

प्रशांत कुमार पांडेय