हिंदी साहित्य की सुंदरता इस बात में मानी जा सकती है कि प्रत्येक युग में योग निरपेक्ष प्रवृत्तियों से युक्त रचनाएँ भी हुई हैं। इसी तथ्य को प्रमाणित करने के क्रम में गुरु गोविंद सिंह का नाम सर्वथा लिया जाता है। पंजाब से इतर हिंदी प्रदेश में, जब हिंदी काव्य मध्य युग की भक्ति प्रवृत्ति से उपराम होकर, दरबारी वातावरण में प्रशय प्राप्तकर रहा था,आध्यात्मिक वाणी की गुंजार मंद होकर सभा कक्षों की प्रशस्ति-झंकार में बदल रही थी। तब पंजाब में हिन्दी काव्य काव्य गुरु गोबिन्द सिंह के रूप में एक स्वनामधन्य, बहुमुखी व्यक्तित्व के पावन स्पर्श से सामान्य जनमानस की सांस्कृतिक उन्नयन की स्वर्णिम दीप्ति से मंडित हो रहा था।
डॉ. नगेंद्र के अनुसार-
“गुरु गोविंद सिंह वीर योद्धा और कुशल संगठनकर्ता थे। ये सिक्खों के दमन दसवें गुरु के रूप में प्रसिद्ध हैं। इन्होंने अपनी कृतियों से इन्होंने अपनी कृतियों में यह सिद्ध किया कि ये कुशल कवि और काव्य मर्मज्ञ थे।”1
गुरु गोविंद सिंह के विलक्षण व्यक्तित्व सागर में विविध सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक धाराओं का अद्भुत संगम दिखाई देता हैं।परंपरा से वे मध्य युग की निर्गुण भक्ति-साधना के लोक-चेता गुरुनानक के उत्तराधिकारी थे।व्यावहारिक कर्मयोग, बलिदानी उत्साह तथा अमृतवाणी का वरदान उन्हें दाय-रूप में अपने पूर्वजों से प्राप्त था।इन सब से भी प्रबल थी उनकी लोक समन्वय उत्कट आकांक्षा। लोकमानस में युग-युग से प्रतिष्ठित आस्था तथा विभिन्न अवतारों के प्रति पूज्य भावना को उन्होने जीवन यथार्थ से जोड़ने का साहित्यिक प्रयास किया। अतः जापु और अकाल स्तुति जैसी अध्यात्म-दर्शन परक कृतियों के साथ साथ उन्होंने चौबीस अवतार तथा चण्डी चरित्र जैसी रचनाएँ भी प्रस्तुत की। डॉ. महीप सिंह के अनुसार-
“गुरु गोविंद सिंह ने मानव में पनपती दुष्प्रवृत्तियों के शमन के लिए अपेक्षित वीरत्व को जगाने का वाणी और कर्म दोनों के माध्यम से व्यावहारिक प्रयास किया।”2
‘चंडी चरित्र उक्ति विलास’ में मार्कण्डेय पुराण के उस देवी माहात्म्य प्रसंग को समकालीन संदर्भ में उस समय की लोक भाषा में काव्यबद्ध किया गया है जो धर्म और भक्ति के क्षेत्र में ‘दुर्गा सप्तशती’ के नाम से प्रसिद्ध है। डॉ. ओम प्रकाश के अनुसार-
“जिस प्रकार तुलसीदास ने रामकथा को विभिन्न भाषा शैलियों में लिखकर जनता तक पहुंचाया उसी प्रकार का प्रयत्न गुरु गोविंद सिंह का भी प्रतीत होता है कम से कम पंजाबी रचनाओं में।”3
चण्डी चरित्र की रचना उस समय हुई जब उत्तर भारत विशेषतया पंजाब, राजस्थान और उत्तर प्रदेश का लोक मानस एक अग्नि परीक्षा से साक्षात्कार कर रहा था। तत्कालीन समय मुग़ल-सत्ता में औरंगज़ेब का शासन था,जो कि बेहद अनीतिपूर्ण और अत्याचारी था, आत्म गौरव, धर्म, सांस्कृतिक चेतना आदि नष्ट हो रहे थे अतः इन्हें उभारने की आवश्यकता थी। गुरू गोबिंद सिंह ने उसी को समसामयिक संदर्भों के अनुकूल आत्मरक्षा, धर्मरक्षा तथा लोक रक्षा का शौर्य संबल बनाकर प्रस्तुत किया।
राम और कृष्ण की गाथाएं तो वाल्मीकि,व्यास,कालीदास और भवभूति से लेकर सूरदास और तुलसीदास तक अनेक कवि गा चुके थे परंतु रुद्र और शक्ति को काव्यनायक बनाकर शंकराचार्य, निराला और वृहद रूप में गुरु गोविंद सिंह ने प्रकट किया है। उत्तर मध्यकालीन आचार्य कवि ‘कुलपति’ द्वारा ‘दुर्गाभक्ति चंद्रिका’ को अवश्य दुर्गा सप्तशती का पद्यबद्ध छायानुवाद कहा जा सकता है किन्तु उसमें भक्ति पक्ष जितना प्रमुख है, लोक जीवन का व्यावहारिक पक्ष उतना नहीं है। डॉ. ओम प्रकाश के अनुसार-
“दुर्गा सप्तशती के प्रमुख छायाकार गुरू गोविन्द सिंह हैं।”4
इस प्रकार चंडी चरित्र में अनेक संवेदनाएं विद्यमान है। उसमें से प्रमुख निम्न प्रकार हैं-
~धर्म युद्ध की पुकार-
तत्कालीन समय में भारतीय संस्कृति का अत्यधिक दमन हो रहा था आते हैं किसी क्रांतिकारी प्रतिक्रिया की आवश्यकता थी। उस समय भारतीय संस्कृति के अतीत को वर्तमान की धरा पर रखना ज़रूरी था। समकालीन समाज पर नृशंस अत्याचार और सहज लोक धर्म के उपादानों पर अकारण कठोर प्रहार करने वाली शक्तियों के विरुद्ध धर्मयुद्ध का आह्वान किसी सामान्य राज्य प्रतिष्ठा के आकांक्षी अथवा दरबारी शोभा के पिपासु कवि के रूप में कदापि संभव नहीं था। ऐसा गुरु गोविंद सिंह जैसा तेजस्वी व्यक्तित्व ही कर सकता था। वे स्वयं के विषय में कहते हैं-
“सर्व काल है पिता हमारा, देवी कालका मात हमारी।”
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स्वयं को निस्सहाय और निर्बल समझने वाली समकालीन जानता को यह विश्वास दिलाना आवश्यक था कि दुष्टों का समूल नाश किए बिना धर्म रक्षा और लोकहित संभव नहीं।
डॉ. मनमोहन सहगल के अनुसार-
“समय कोई भी हो, युग किसी का भी हो, अनीति की हत्या अनिवार्य हैं, अनैतिकता और उत्थान के प्रति यदि भला व्यक्ति हथियार नहीं उठाएगा तो वह स्वयं तो नष्ट होगा ही,भविष्य में नैतिक जीवन मूल्यों के हनन का अपराधी भी होगा इसी उद्देश्य से गुरु गोविन्द सिंह ने चंडी चरित्र लिखा और इसके द्वारा अपने अनुयाइयों को उत्पाती और अत्याचारी उधमियों के विरुद्ध तलवार उठाने को प्रोत्साहित किया।”6
अपने समय की अनीतिपूर्ण परिस्थितियों को बदलने के लिए गुरु गोविन्द सिंह ने जो प्रण धारण किया था, वही प्रण चण्डी चरित्र में दुर्गा के माध्यम से स्थापित हुआ है-
“कान सुनी धुनि देवन की, सब दानव मारन को प्रण कीनौ। ह्वे कै प्रतब्ध महावर चंडी सुकृद्ध ह्वे जुद्ध विषै मन दीनौ॥”7
गुरु गोविंद सिंह इस तथ्य से भलीभाँति अवगत थे की अनीति और दुष्टता के बीच बहूत जल्दी फैलते और पनपते हैं आता है उनका समूल नाश आवश्यक है। चण्डी चरित्र में कालका यही करती हैं। देव गण स्तुति में कहते हैं-
“मिलि कै सु देवन बड़ाई करि कालका की,
ए हो जगमात तै तो काट्यो बड़ो पाप है।
दैतन की मार राज दीनों तें सुरेम हूँ को,
बड़ो जस लीनो जग तेरी ही प्रताप है।”8
इस प्रकार गोविंद फिंग उस समय में भारतीयों को धर्मयुद्ध के द्वारा पुनः अपने धर्म की श्रेष्टता स्थापित करने को प्रेरित करते हैं और प्रतीक रूप में देवी चण्डी को प्रस्तुत करते हैं।
~लोक चेतना जागरण-
चण्डी चरित्र के मूल में लोक जागरण को माना जा सकता है।रचना के अंत में,कवि ने देवों और देव स्त्रियों द्वारा देवी की स्तुति कराने के उपरांत अपने लिए जो वरदान माँगा है वहीं मुल कथ्य है-
“ वार देहि सिवा नित मोहि इहै, सुभ कर्मन ते कबहुँ न टरौं।
न डरौं अरि सौं जब जाई लड़ौं, निसवै करि आवनी जाति करौं।”9
चण्डी चरित्र का कथ्य मात्र सैद्धान्तिक,औपचारिक अथवा पर उपदेश कौशल का परिचायक नहीं वरन व्यावहारिक अनुभव गम्य और रचनात्मक है।यह काव् यकृति वास्तव में एक विजय गीत है जो पाठक में उत्कट संघर्ष के लिए अनायास उत्साह का संचार कर देती है। चण्डी चरित्र लोक चेतना में शिव के संरक्षण और अशिव के खंडन हेतु इसी उत्साह संचार का एक वृहत काव्यमय प्रकल्प है। इसमें युद्ध वर्णन या नाश वर्णन में अधिकतर लोग जीवन के ही उपमानों को प्रस्तुत किया है। जैसे दर्ज़ी,तेली आदि के क्रिया कलापों को उपमान बनाना-
“कै पल मैं दल मीझी दपौ तिल तै जिसि तेल निकारत तेली।”10
गुरु गोविंद सिंह को पता था कि अगर लोगों को अपने धर्म युद्ध में जोड़ना है तो लोग जागरण अति आवश्यक है। इसी कारण उन्होंने सामान्यजन उपमानों का प्रयोग किया है।
~भक्ति तत्व-
चण्डी चरित्र नाम से ही स्पष्ट है कि इसमें देवी रूपा दुर्गा, शक्ति काली का अथवा चंडि का चरित्र गान हुआ है फिर भी इसमें एक भी शुद्ध भक्ति परक पद नहीं है। ये सिर्फ़ प्रतीकों के माध्यम से धर्मयुद्ध के आह्वान एवं लोक जागरण का कार्य करते हैं। मंगलाचरण के छह छंद और कुछ अन्य छंदों में कवि ने विभिन्न प्रसंगों में भक्ति भाव स्पष्ट किया ज़रूर है किन्तु उसका लक्ष्य भक्ति नहीं है। जैसे-
“वह देहि सिवा नित मोहि इहै, सुभ कर्मन तें कबहूँ न टरौ।
…. जब आयु की अउध निदान धनै, अनि ही रन में तब जूझी मरौ।”11
इस पद में भक्ति की अपेक्षा लोक मंगल की भावना अधिक प्रबल है। यही चंडी चरित्र की भक्ति का मुख्यस्वरूप है।चण्डी चरित्र के अंतर्गत भक्ति प्रतिपादन के संदर्भ में उन असंख्य पदों की ओर ध्यान आकृष्ट होना स्वाभाविक है जिनमें रामायण, महाभारत और भागवत जैसे भक्ति ग्रंथों के अनेक प्रसंगों और पात्रों का निर्देश रचनाकार ने किया है। लेकिन ये भी भक्ति विभोर न कर धर्मयुद्ध को उद्घोषित करता है-
“मुद्गार लै अपने कर चण्डी यु कै बल ता ऊपर डारौ।
ज्यों हनुमान उखारी पहार कौं रावण के उर भीतर मारौ।”12
स्पष्ट है,चण्डी चरित्र का प्रतिपाद्य भक्ति निरूपण होकर उस वीरत्व भाव की अभिव्यंजना करना है जो लोकमंगल का साधक है।
~रीति तत्व-
चूँकि यह रचना रीतिकाल की है किन्तु इसमें प्रीति तब तो बहुत कम है।इसके दो-चार छंदों में अतिशयोक्तिपूर्ण रूप चित्रण अथवा न किसी एक वर्णन की झलक देखकर रीति तत्वों का समावेश मानना सर्वथा अनुपयुक्त है। चण्डी चरित्र के जिन छंदों के आधार पर उसमें रीति प्रवृत्ति की झलक अनुभव की जा सकती है उनकी संख्या केवल पाँच है उसमें से एक छंद में सुमेरू पर्वत के शिखर पर विराजमान चंडी को इंद्रासन पर सुशोभित रानी के समान बताया गया है-
“श्रीनंग सुमेरु के चंडी विराजत मानो सिंहासन बैठि सची है।”13
इसी प्रकार छंद संख्या 87,88,89 में अवश्य भगवती का नख शिख़ वर्णन मिलता है। इसके अलावा 92 व 99 छंद में रीति तत्व दिखता है।इनमें नख शिख़ वर्णन अत्यधिक है किन्तुरचना में यह पूरी रचना को रीति रचना न कहलाकर रीति तत्व का केवल उदाहरण प्रस्तुत करता है-
“मीन मुरझनी कंज खंजन खिसाने अलि।
फिरत दिवाने वन डोले जित तित ही।।”14
कहने की आवश्यकता नहीं है कि झंडी चरित्र में आद्योपांत लोक मंगलकारी उत्साह भाव ही परिपूरित है, अन्य स्फुट प्रसंग केवल उसे और अधिक उद्दीप्त करने के लिए आए हैं।
~युद्ध वर्णन-
चण्डी चरित्र का सर्वप्रमुख विषय युद्ध वर्णन है।इसके 233 छंदों में से लगभग 100 छंदों में युद्ध वर्णन ही है।शेष छंद भी या तो युद्ध की पृष्ठभूमि अथवा उसके परिणाम और प्रभावों को ही प्रतिपादित करते हैं।विरोधी के प्रति क्रोध का भाव,आक्रमण और प्रहार की उत्तेजना,प्रतिकार का उद्वेग और प्रचंडता दोनों पक्षों में सामान अतः दृष्टिगत होती है। जैसे महिसासुर द्वारा देवी तथा उनके वाहन पर प्रहार का वर्णन-
“वीर बली सरदार दपैल सु क्रोध कै ध्यान तै खड्ग निकारौ।
एक दमौ वन चंद्रि प्रचंड कै, दूसर केहरि कै सिर झारौ।”15
कवि का उद्देश्य युद्ध का व्यापक परिदृश्य प्रस्तुत कारण समकालीन समाज को तत्कालीन यथार्थ से अवगत कराना था। डॉ. ओम प्रकाश के अनुसार-
“चण्डी चरित्र का युद्ध वर्णन वस्तुतः अप्रतिम है।पृथ्वीराज रासो से अनुभूत सत्य के वर्णन की जो परंपरा चली उसका परिमार्जन गुरु गोविंद सिंह ने की रचनाओं में हुआ है। ये वर्णन पाठक का उत्साहवर्धन तो करते ही हैं, साथ ही अप्रस्तुत योजना के माध्यम से उसको परंपरा से जोड़ते हैं।”16
~युग चित्र एवम् प्रासंगिकता-
चण्डी चरित्र के विभिन्न छन्दों में समकालीन युग छाया इतनी स्पष्ट और सधन है कि लगता है, मानो कवि श्रोताओं को किसी भी वस्तु स्थिति का यथार्थबोध कराने के लिए पहले अपनी बात काव्य की शैली अथवा सैनिक कार्य व्यवहार के माध्यम सेसमझाना चाहता है। डॉक्टर ओम प्रकाशके अनुसार कल आज और कल की त्रिवेणी का अद्भुत संगम चण्डी चरित्र में दिखाई देता है। युग चित्र के कुछ प्रमुख उदाहरण निम्न है-
“झालर ताल मृदंग उपंग रबाब लियें सुर साज मिलायें।”17
“मारि बिडारि सु भये, फिरै मुगल जिन धान कुटे हैं।”18
अभिप्राय यही है की चण्डी चरित्र के रचनाकार ने पौराणिक युद्ध गाथा को युगीन लोग अनुभव की उपमाओं और उत्तर परीक्षाओं के माध्यम से हिरदय सम वैद्य बनाने का प्रयास किया है। यह रचना मूल तहत समाज के समस्याओं को प्रस्तुत करतीहै। इसी कारण यह आज भी इन मामलों में प्रासंगिक हैं। गुरु गोविंद सिंह के विजन को बच्चन सिंह इस प्रकार स्पष्ट करते हैं-
“इनकी रचनाओं से प्रमाणित होता है कि ये साक्षात अत्याचार के विरोधी थे न कि किसी धर्म या जाति के।”19
इस प्रकार उपर्युक्त सम्पूर्ण विवेचन से स्पष्ट होता है कि चण्डी चरित्र के द्वारा गुरू गोविन् दसिंह मुख्यतः भारतीय जनमानस को अपने धर्म के उत्थान के लिए धर्मयुद्ध व लोकजागरण पर बल देते हैं। यही इस रचना का मुख्य प्रतिपाद्य हैं और अन्य विशेषता जैसे भक्ति, रीति आदि तत्कालीन साहित्य के प्रभाव के कारण बस उपस्थित हैं।गुरु गोविंद सिंह और चण्डी चरित्र के महत्व को स्पष्ट करते हुए आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है-
“चण्डी चरित्र की रचना पद्धति बड़ी ही ओजस्विनी है। चण्डी चरित्र कि दुर्गा सप्तशती की कथा बड़ी सुंदर कविता में कही गई है।”20
संदर्भ सूची-
- डॉ. नगेंद्र, ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’, मयूर बुक्स, नयी दिल्ली,2019, पृ.सं. 355
- सिंह, महीप, ‘गुरु गोविंद सिंह’, साहित्य अकादमी, नयी दिल्ली, 2002, पृ. सं. 12
- डॉ. ओमप्रकाश, ‘चण्डी चरित्र उक्ति-विलास’, नयी दिल्ली, मयूर बुक्स, 2000, पृ. सं. 18
- वही, पृ. सं. 16
- वही, पृ. सं. 40
- सहगल, डॉ. मनमोहन, मध्यकालीन हिंदी साहित्य, कमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2008, पृ. सं. 90
- डॉ. ओमप्रकाश, ‘चण्डी चरित्र उक्ति-विलास’, नयी दिल्ली, मयूर बुक्स, 2000, पृ. सं. 74
- वही, छंद 22
- वही, छंद 231
- वही, छंद 64
- वही, छंद 15
- वही, छंद 157
- वही, छंद 231
- वही, छंद 461
- वही, छंद 79
- वही, पृ. सं. 11
- वही पृ. सं. 54
- वही, पृ. सं. 58
- सिंह, बच्चन, ‘हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास’, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2015, पृ. सं. 260
- शुक्ल, आचार्य रामचंद्र, हिन्दी साहित्य का इतिहास, कमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2015, पृ. सं. 230