रामकथा अपने आप में सांस्कृतिक समन्वय की विराट चेष्टा धारण किए हुए है। राम का अलग-अलग दिशाओं में प्रस्थान और संबधित समस्याओं का समाधान धीरे-धीरे उन दिशाओं में राम नाम की सांस्कृतिक धारा लोगों को एक सूत्र में बाँधती चली गई। इस कड़ी में मानवीय और मानवेत्तर समन्वय रामकथा की विशिष्टता है। यह विशिष्टता सांस्कृतिक जुड़ाव का काम करती है न कि अलगाव का। भारत के संदर्भ में राम सांस्कृतिक समन्वय के पर्याय हैं, मिथिला से लेकर लंका तक उनकी विशिष्टताओं के साथ स्वीकृति इसी का प्रमाण है।

सामाजिक सांस्कृतिक संघर्ष के पहलुओं को समझने के लिए आवश्यक है कि पहले समाज और संस्कृति की अवधारणा को समझ लिया जाए। ‘सामाजिक-सांस्कृतिक संघर्ष’ अपने आप में एक गहन अर्थों वाला पद है। इसके तहत समाज और संस्कृति की मूलभूत अवधारणाओं के साथ गहन मानवीय विकास के पहलुओं का अध्ययन भी किया जाएगा।

समाज के बारे में एक सामान्य अवधारणा यह है कि ‘यह सामाजिक सम्बन्धों का जाल है।’[i] यह सर्वविदित है कि सामाजिक संबंध सामूहिक होते हैं; अर्थात् व्यक्तियों के पारस्परिक संबंध समूह की अवधारणा के साथ जुड़कर सामाजिक सम्बन्धों की बुनियाद बनाती हैं। यही बुनियाद समाज निर्माण की जड़ है। यह संबंध जितना गहन और विविध होगा, वह समाज उतना ही सशक्त और सुदृढ़ होगा।

मानव समाज को जो बात विशेष बनाती है वह है सामाजिकता की भावना की विकसित स्थिति। दूसरे शब्दों में कहूँ तो मानव समाज में व्यवस्थित जीवन यापन हेतु कुछ सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्य निर्धारित किए गए हैं जहाँ मानवीय सम्बन्धों और रीति-रिवाज़ों की अपनी महत्ता है। इस व्यवस्था में मानवीय संबंध, उसके व्यवहार और क्रिया-कलाप निर्धारित मूल्यों, आदर्शों, मान्यताओं, प्रथाओं और प्रतिमानों के आस-पास नज़र आते हैं और इन्हीं के आस-पास सामाजिक नैतिकता-अनैतिकता का ताना-बाना बुना गया है। इनके सम्मिलित रूप से मानव समाज का निर्माण होता है।

समाज निर्माण की प्रक्रिया में राहुल सांकृत्यायन व्यक्ति को केंद्र में रखते हैं, “समाज वास्तविक इकाइयों – व्यक्तियों – से बना है।”[ii] व्यक्ति से परिवार और परिवार से समाज और अंगों (सामाजिक व्यवस्थाओं) की निर्मिति की प्रक्रिया एक दूसरे को प्रभावित भी करती है। ये एक दूसरे को जितना प्रभावित करते हैं समाज का उत्तरोत्तर विकास भी उसी अनुसार होता है। ‘‘भाषा, राजनीतिक ढाँचा, विज्ञान, कला, दर्शन और अधिकांश फ़ैशन, रीति-रिवाज़, शिष्ट-व्यवहार आदि सामाजिक जीवन की ही उपज हैं, और व्यक्तियों के पारस्परिक संबंध एक दूसरे पर डाले जाते है प्रभाव तथा निरंतर संगति के परिणाम हैं।

संस्कृति अपने आप में परिवर्तित और परिवर्धित होने वाली अवधारणा है। समय और समाज की आवश्यकताओं के अनुसार परिवर्तित होती रहती है। संस्कृति अपनी उदात्तता में मनुष्य को उसकी जड़ों से जोड़ते हुए सकारात्मक मूल्यों से जोड़कर रखती है, साथ ही साथ अहं से दूर शून्यता की तरफ ले जाती है। इस संबंध में जैनेन्द्र का कहना है, “संस्कृति जो हमें पशुता में गिरने से रोकती है। संस्कृति अर्थात् शून्य होकर जीना अर्थात् दूसरा प्रधान, मैं गौड़। संस्कृति का लक्षण विनय, भक्ति आदि।”[iii]

इस संदर्भ में भदंत आनंद कौसल्यायन के विचार भी द्रष्टव्य हैं, “हमारी समझ में मानव की जो योग्यता आग या सुई धागे का आविष्कार कराती है वह भी संस्कृति है, जो योग्यता तारों का जानकारी कराती है वह भी संस्कृति है और जो योग्यता किसी महामानव से सर्वस्व त्याग कराती है वह भी संस्कृति है।”[iv]

उदात्त संस्कृति में उदात्त मानवीय मूल्यों के साथ त्याग की महत्ता होती है। ये मूल्य जिस संस्कृति में निहित होते हैं वह महान संस्कृति होती है और वह समाज महान समाज। लेकिन जिस समाज में इन मूल्यों और भावों की कमी होती है उस समाज में निरंतर आपसी संघर्ष जन्म लेते रहते हैं और वह पतन की तरफ उन्मुख हो जाता है। इसलिए एक महान संस्कृति में संवाद और शास्त्रार्थ की सुदीर्घ परंपरा होती है जो आपसी मतभेदों और मनभेदों को इसके माध्यम से सुलझा लेते हैं।

राम का जीवन त्याग और समन्वय की कहानियों के ओत-प्रोत है। इसका असर भारतीय जनमानस पर देखा जा सकता है। रामकथा के अलग-अलग रूप और अलग-अलग भाषाओं में प्राप्ति इसी का प्रमाण है। रामकथा की अलग-अलग अभिव्यक्तियाँ और उसके स्वरूप में बदलाव भारतीय समाज और संस्कृति की जड़ों में इसकी पैठ को दर्शाती हैं। वाल्मीकि का रामायण जहाँ इन विभिन्न कथाओं को आधार भूमि प्रदान करता है तो रविषेण की ‘पद्मचरित’, स्वयंभू की ‘पउमचरिउ’, विमल सूरि की ‘पउमचरियं’, तुलसीदास की ‘रामचरितमानस’ और कवितवाली’, केशव की ‘रामचंद्रिका’, मैथिलीशरण गुप्त की ‘साकेत’, निराला की ‘राम की शक्तिपूजा’, नरेश मेहता की ‘संशय की एक रात’, कुमदेन्दु की ‘रामायण’ (कन्नड़), देवचन्द्र की ‘रामकथावतार’ (कन्नड़), भवभूति की ‘उत्तररामचरित’, और कम्बन की ‘रामायण’/‘कंबरामायण’ (तमिल), कृत्तिवास ओझा की ‘कृत्तिबासी/कृत्तिवास रामायण’ (बांग्ला) आदि इस आधार भूमि को व्यापक विविधता प्रदान करते हैं।

इन सभी कथाओं का उद्देश्य बेहतर मानव समाज का निर्माण करना है। अगर इस निर्मिति की प्रक्रिया में किसी तरह की कोई बाधा आती है तो उसका समाधान करना भी है। तुलसी और वाल्मीकि के राम लगभग एक जैसे हैं। जब-जब मानव समाज संकटों से ग्रसित हुआ है तब-तब ‘राम’ समाज को संकटों से मुक्ति दिलाने के लिए कर्त्तव्य पथ पर खड़े हुए हैं। वर्तमान भारत में जहाँ जाति, धर्म, नस्ल, भाषा, लिंग, क्षेत्र आदि को लेकर लगातार विवाद हो रहे हैं वहीं रामायण में समन्वय अंतर-प्रजातीय स्तर और अंतर-राष्ट्रीय स्तर पर देखा जा सकता है। जांबवन (रीछ), जटायु (पक्षी), हनुमान, सुग्रीव (वानर) आदि इसके अतिरिक्त समुद्र, पर्वत, नदी, वन आदि का राम के जीवन में उतना ही महत्त्व है जितना मनुष्यों का। यह समन्वय प्रकृति की सांस्कृतिक विविधता में एकता को दर्शाती है।

यही नहीं जन समस्याओं को समझ रामकथा में है; चाहे तुलसी की ‘कवितवाली’ हो या मैथिलीशरण गुप्त की ‘साकेत’ या फिर नरेश मेहता की ‘संशय की एक रात’। इस समस्याओं को समझने के लिए राम, उर्मिला आदि खुद उस भूमि पर सामान्य मनुष्य की तरह खड़े नजर आते हैं। राम खुद वनवास झेलते हैं और उर्मिला अपने दुखों पर विजय पाते हुए शिक्षा, कृषक, रोजगार सहित अन्य सरोकारों को प्रमुखता देती हैं। तुलसी ‘कवितवाली’ में राम के सामने रोजगार, गरीबी, भूखमरी, व्यापार, कृषक समस्या आदि को प्रमुखता से रखते हुए अपने ‘राम राज्य’ के यूटोपिया में इनके समाधान की बात करते हैं। दरअसल यह एक वैकल्पिक व्यवस्था का संकेत है। तुलसी का रामराज्य राजतंत्रात्मक व्यवस्था की ही बात करता है लेकिन मूल्य लोकवादी हैं, इसमें लोक को प्रमुखता दी गई है। वाल्मीकि और तुलसी के रामकथा में रात के समय राम द्वारा उनके पीछे आ रही जनता को छोड़कर वनप्रस्थान करना यह दर्शाता है कि राम नहीं चाहते कि जनता को कष्ट सहन पड़े। जबकि लोकतान्त्रिक सरकारें अपने स्वरूप में अधिनायकवादी होते हुए ‘तंत्र’ उन्मुख हो चली हैं। इस वजह से लगातार बढ़ रहे सामाजिक-सांस्कृतिक संघर्षों पर सरकार द्वारा ध्यान नहीं दिया जा रहा है।

‘वाल्मीकि हों या विमल सूरि, कंबन हों या कृतिवास, तुलसी हों या प्रियदास-सभी अलग-अलग युगों और अलग-अलग इलाकों में मर्यादा पुरुषोत्तम राम के बारे में लिख रहे थे। उनकी रामकथाएं अलग-अलग समाजों की विविधताओं को समेटे हुए हैं। उनकी पस्तकें लोकप्रिय इसीलिए हुईं कि वे राम को अपने समाज की परंपराओं के रंग में ढाले हुई थीं। राम मर्यादा पुरुषोत्तम थे लेकिन मर्यादा के बारे में जो विमर्श था, वह बदल जाता था। वाल्मीकि के राम आततायी रावण का वध करते हैं। विमल सूरि के राम जैन परंपरा की मर्यादा का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस परंपरा में अहिंसा परम धर्म है। इसलिए राम रावण का वध नहीं करते, लक्ष्मण करते हैं। वाल्मीकि के राम द्वारा शंबूक वध ब्राह्मण मर्यादा को स्वीकार्य था। आठवीं सदी में भवभूति जब उत्तररामचरित लिखते हैं तो राम के ‘शंबूक वध’ की तुलना सीता के निर्वासन से करते हैं। निश्चय ही बदलते समय के संदर्भ में भवभूति के मन में ‘शंबूक वध’ को लेकर कुछ सवाल उठे होंगे। वैसे ही जैसे आज के संदर्भ में ‘शंबूक वध’ एक मर्यादित व्यवहार नहीं माना जाएगा।

बदलते समय और समाज का एक अच्छा उदाहरण हमें अयोध्या से राम के निर्वासन से जुड़ी कथा में मिलता है। वाल्मीकि कथा में राम जैसे ही अयोध्या से बाहर निकलते हैं, वैसे ही जंगल का इलाका शुरू हो जाता है। तुलसी के राम अयोध्या से निकलने के बाद कई दिनों तक गांवों और खेतों से गुज़रते हैं। शायद तुलसीदास के समय तक जंगल अयोध्या से दूर चले गए थे। पेड़ कट चुके थे और खेती का फैलाव हुआ था। इसीलिए वाल्मीकि रामायण में नदी पार करवाने का काम निषादराज करते हैं। निषाद शब्द का प्रयोग जंगल में रहने वाले शिकारी लोगों के लिए होता था। निषादराज द्वारा नदी पार करवाना खेती वाले इलाके से वन प्रदेश के लिए संक्रमण का प्रतीक बन जाता है।’[v]

जैसे-जैसे समाज और भौगोलिक परिस्थितियाँ बदलीं रामकथा में युगानुरूप परिवर्तन भी हुए। और इसी हिसाब से सामाजिक-सांस्कृतिक समन्वय का रूप भी बदला। यही कारण है कि तुलसीदास जी ने ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’ कहकर रामकथा की मानवजीवन में व्यापकता को दर्शाया। भारत में रामकथा के अनेकों रूप हैं जो इसकी विभिन्न सांस्कृतिक संदर्भों को दर्शाते हैं। रामकथा की व्याख्याएँ अपने आप में भारत में होने वाले सभी संकटों के समाधान धारण किए हुए है, जरूरत है उस दृष्टिकोण को समझने और अपनाने की जो राम में निहित है। जाति, धर्म, नस्ल, रंग, वर्ग, भाषा, क्षेत्र, सहिष्णुता-असहिष्णुता, बहिष्कार की संस्कृति, हिंसा आदि की लगातार बढ़ती संकटपूर्ण स्थितियों में समाधान के दृष्टिकोण से रामकथा अपना विशेष महत्त्व रखती है।

संदर्भ ग्रंथ –    

[i]  समाजशास्त्र (11वीं कक्षा), शिक्षा निदेशालय, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, दिल्ली सरकार (edudel.nic.in/sm_1_sociology_hindi_201617.pdf)

[ii]  सांकृत्यायन, राहुल (संस्करण-अज्ञात). मानव समाज, इलाहाबाद. किताब महल प्रकाशन, पृष्ठ-20

[iii]  प्रभाकर, विष्णु (1986). जन, समाज और संस्कृति, शब्दकार प्रकाशन, पृष्ठ-22

[iv] वही, पृष्ठ-22

[v]  कुमार, संजीव (2013). तीन सौ रामायण एवं अन्य निबंध, दिल्ली. राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ-123

 

शैलेंद्र कुमार सिंह
शोधार्थी
दिल्ली विश्वविद्यालय