शोध सार: सभ्यता की शुरुआत से ही रामकथा हमारे जीवन का महत्त्वपूर्ण अंग रही है। भारत में रामकथा का मैखिक एवं लौकिक स्वरूप निरंतर बदलता रहा है। भारत की भिन्न भाषाओं में रामकथाओं की रचना की गई। विभिन्न संदर्भों एवं परिस्थितियों में रचित रामकथाओं में मूल कथानक एक होने पर भी कलेवर बदल जाता है। भारत एक बहुभाषी राष्ट्र है जहाँ ‘कोस-कोस पर पानी बदलता है और चार कोस पर वाणी’ ऐसे में यह अंतर भारत के सांस्कृतिक वैविध्य को प्रदर्शित करता है। प्रस्तुत प्रपत्र में भारत की विभिन्न भाषाओं में उपलब्ध रामकथाओं में वर्णित भारतीय संस्कृति पर विचार करने का प्रयास किया जाएगा।

बीज शब्द :  संस्कृति, मिथक, रूपांतरण, रामकथाएं, सांस्कृतिक वैविध्य, आत्मसातीकरण, लोकमान्यताएं

मूल आलेख : भाषा और संस्कृति को एक-दूसरे का पूरक माना जा सकता है, क्योंकि हर भाषा में स्थानीय संस्कृति अभिव्यक्त होती है। हर भाषा की अपनी भाव-भंगिमा होती है, उसकी अपनी शब्द-संपदा, शैली तथा पद-विन्यास होता है। भाषा के माध्यम से ही कोई कृति एक समाज की संस्कृति और विचारधारा को दूसरे समाज तक पहुंचाती है। भाषा के माध्यम से साहित्य के रूप में मनुष्य अपनी संस्कृति को संरक्षित करता है। विभिन्न साहित्यिक कृतियों में संस्कृति को संरक्षित करने का प्रयास लक्षित किया जा सकता है, संस्कृति और सांस्कृतिक वैविध्य को समझने में साहित्य की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। भाषा, साहित्य और संस्कृति आपस में गहरे जुड़े होते हैं। कहा भी जाता है कि किसी व्यक्ति की भाषा और भाषिक संस्कारों से उसके समाज और संस्कृति का परिचय प्राप्त किया जा सकता है।

रामायण और महाभारत भारतीय संस्कृति एवं मानसिकता का निर्माण करने वाले महाकाव्य हैं। जिनके महानायक राम और कृष्ण हैं, दोनों के प्रति भारतीय जनमानस में पर्याप्त आदर और प्रेम हैं। ये कथाएं भारतीय साहित्य का अनिवार्य हिस्सा रही हैं। संस्कृत से लेकर प्राकृत, अपभ्रंश तथा आधुनिक भारतीय भाषाओं में राम और कृष्ण से संबंधित मिथक-कथाएं निरंतर विकसित होती रहीं हैं। रामकथा प्रायः सभी आधुनिक भाषाओं में साहित्य के प्रारंभिक दौर का अनिवार्य हिस्सा रही हैं। रामकथा का प्रचार-प्रसार प्राचीन काल से ही खूब होता आया था। भातरतवर्ष के जितने भी यात्री वाणिज्य के लिए पड़ोसी राष्ट्रों में गए, वहां उन्होनें रामकथा का प्रचार-प्रसार किया और वहां के नागरिकों ने उसमें अनुकूलन और आत्मसातीकरण (अर्थात् किसी कृति के मूलपाठ को सुरक्षित रखते हुए समय और परिवेश के अनुसार उसका पुनर्सृजन) की स्थिति ला दी।[1]

रामकथाओं के आत्मसातीकरण की प्रक्रिया में युगीन यथार्थ की आवश्यकता और रचनाकार की जीवन-दृष्टि है। संभवतः यही कारण है कि आदिकाव्य में वाल्मीकि के जो राम मनुष्य हैं, वह सोलहवीं सदी में तुलसीदास के यहां ईश्वर बन जाते हैं। वाल्मीकि कृत रामायण का समय भारत में आर्य संस्कृति का प्रारंभिक दौर है इसलिए वहां कथात्तेर प्रसंगों के माध्यम से सभ्यता की निर्मिती देखी जा सकती है वही तुलसी के समय अवतारवाद और भक्ति-आंदोलन का युग था इसलिए वहां रामकथा के सृजनात्मक उपयोग में यथार्थवादी दृष्टि की जगह आदर्शवादी दृष्टि ने ले ली। आधुनिक युग की बात करे तों निराला कृत ‘राम की शक्तिपूजा’ के राम की चिंता तत्कालीन औपनिवेशिक साम्राज्य से स्वाधीनता-प्राप्ति की चिंता भी है। राम का दर्द निराला के युगीन दर्द से जुड़ जाता है। नरेश मेहता के ‘संशय की एक रात’ में राम के मिथक को युगीन संदर्भों के अनुरूप कवि की मूल्य-दृष्टि के टकराव की स्थिति बनी हुई है।

रामकथा का प्रभाव सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति पर देखा जा सकता है। रामकथा को भास, कालिदास, भवभूति और अन्य संस्कृत कवियों ने शताब्दियों तक काव्य और नाटकीय संस्करणों में लगातार दोहराया। कालांतर में विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं में रामकथा की रचना की गईं। प्रमुख क्षेत्रीय भाषाओं में रामकथा के अपने क्लासिक संस्करण हैं, जिनमें तुलसी के रामचरितमानस  का स्थान सर्वोपरि है। दक्षिण भारत के भरतनाट्यम और कथकली जैसे नृत्य-नाटक हो या उत्तर भारत की रामलीला, रामकथा भारतीय लोकजीवन का अनिवार्य अंग हैं। भारत के हर हिस्से में रामकथा विभिन्न रचनात्मक शैलियों और भाषाओं में अभिव्यक्त होती रही है।

इस तरह हम कह सकते है कि रामायण मूल रूप से हमारे जीवन का अंग रही है। लोक में रामकथा के विभिन्न रूपांतरण होते रहे हैं इसलिए इसके शब्दशः अनुवाद की आवश्यकता नहीं रही। स्थिर भाषा के रूप में संस्कृत विद्यमान रही और साथ ही स्थानीय भाषाओं में भी रामकथा साहित्य मिलता रहा है। भारत में रामकथा का मौखिक एवं लौकिक स्वरूप निरंतर बदलता रहा है। संभवतः इसलिए विभिन्न संदर्भों एवं परिस्थितियों में रचित रामायण संबंधी रचनाओं में मूल कथानक एक होने पर भी कलेवर बदल जाता है। गोना बुद्ध रेड्डी ने तेलुगु में रंगनाथ रामायण, तमिल में कंबन ने कंब रामायण (12वीं शताब्दी),असमिया में माधव कांदली ने कोथा रामायण(14वीं शताब्दी), बंगाली में कृतिवास ओझा ने कृतिवास रामायण(15वीं शताब्दी), मराठी में एकनाथ ने भावार्थ रामायण(16वीं शताब्दी), उड़िया में बलराम दास ने दांडी रामायण और अवधी में तुलसीदास ने रामचरितमानस के रूप में रामकथा को समयकाल के अनुरूप पुनर्सृजन किया।

          रामकथा साहित्य लिखा जाता रहा  है, संभवतः लिखा जाता रहेगा, क्योंकि यह मिथकीय कथानक भारतीयों के मन में बहुत गहराई तक रचा बसा है। ‘रेशम मार्ग’ से जहाँ भी भारतीय व्यापार के लिए गए, वहां उन्होंने रामकथा का प्रचार-प्रसार किया। यह कथानक बहुत से सोपानों से होकर गुज़रा है राष्ट्रों की सीमाएं लांघते हुए चरित्रों की भाव-भंगिमा में परिवर्तन स्वाभाविक है, क्योंकि रचनाएं अपने समय और समाज का अनुकरण करती हैं भौगोलिक भिन्नता ने इस कथानक को सांस्कृतिक वैविध्य प्रदान किया है। भारत के अतिरिक्त दक्षिण-पूर्व एशिया में रामकथा के विभिन्न संस्करण उपलब्ध हैं। जिनमें कम्बोडियन, थाई, लाओ, बर्मी, इण्डोनेशियाई, फिलिपिनो और मलेशियाई आदि रामकथाएं प्रमुख है। कुछ देशों में रामकथा को नृत्य और नाट्य के रूपों में प्रस्तुत किया जाता है, रामकथा इनके साहित्य का महत्त्वपूर्ण अंग हैं। थाईलैंड, श्रीलंका और अन्य कई देशों के मंदिरों की स्थापत्य कला भी रामकथा से प्रभावित है। अनामकं जातकम् , हिकायत सेरीराम  और रामकियेन तक यह कथानक कई अर्थों में संप्रेषित हुआ है। इसके विस्तार के विषय में ए. के. रामानुजन का यह कथन दृष्टव्य है-

‘पिछले पच्चीस सौ वर्षों से अधिक समय से दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया में रामायणों की संख्या और उनके प्रभाव का दायरा हैरान करने वाला है। पश्चिमी भाषाओं की बात ही छोड़ दीजिए अन्नाकी, बाली, कंबोडियाई, चीनी, जावा, खोटानी, लाओसी, मलेशियाई, सिंहली, थाई, तिब्बती, बंग्ला, गुजराती, कन्नड़, कश्मीरी, मराठी, उड़िया, प्राकृत, संस्कृत, संथाली, तमिल, तेलगू राम की कथा जितनी भाषाओं में मिलती है, उनकी सूची दम फुला देने वाली है।’[2]

रामकथा का फ़लक इतना विस्तृत है कि उसे एक कैनवास पर समेटना मुश्किल है। अतः यहाँ  केवल रामकथा के भारतीय भाषाओं में उपलब्ध विभिन्न संस्करणों का ही संक्षिप्त परिचय समाचीन होगा।

भारत एक बहुभाषी राष्ट्र है जहां 22 मुख्य भाषाओं के साथ अनेकानेक बोलियां एवं क्षेत्रीय भाषाएं प्रचलन में हैं। भाषा केवल कुछ शब्दों की व्याकरणिक व्यवस्था नहीं हो सकती। एक भाषा में समूचा समुदाय प्रतिध्वनित होता है। संभवतः इसीलिए कहा जाता है कि किसी समाज और व्यवस्था को समझने के लिए वहां की भाषा को समझना अनिवार्य है। अतः इन भाषाओं मे रचित रामकथा साहित्य क्षेत्रीय संस्कृतियों के अनुरूप नवीन रूप में आया है। इन भाषाओं के रचनाकारों ने रामकथा को अपने परिवेश के समकक्ष रखकर या आत्मसातीकृत कर यह नवीन रूप गढ़ा है। अतः भिन्न भाषाओं मे रचित इन रामकथाओं का अध्ययन भिन्न संस्कृतियों  का अध्ययन ही है।

बौद्धों ने  ईसवी सन के कई शताब्दी पहले राम को बोधिसत्व मानकर रामकथा को जातक साहित्य में स्थान दिया था। बौद्धों की अपेक्षा जैनियों ने बाद में रामकथा को अपनाया लेकिन जैन साहित्य में इसकी लोकप्रियता शताब्दियों तक बनी रही। फलस्वरूप जैन कथा साहित्य में विस्तृत रामकथा साहित्य पाया जाता है। इनमें  राम, लक्ष्मण और रावण न केवल जैन धर्मावलंबी है बल्कि उन्हें त्रिशष्टि महापुरुषों में भी स्थान दिया गया है। जैन साहित्य में राम आठवें तीर्थंकर बलदेव माने जाते हैं।

दरअसल जैन और बौद्ध धर्म का उद्भव हिन्दू धर्म के बाह्य आडंबरों के प्रतिरोधस्वरूप हुआ । बौद्ध और जैन धर्म की सहजता और सरलता लोगो को प्रभावित तो करती थी परंतु हिन्दू धर्म संबंधी मान्यताएं  उनके अंतर्मन में बहुत गहरी थी। ऐसे में इन मत के प्रचारकों ने एक ऐसी मिथकीय कथा को आधार बनाया जिससे यह मत जनसामान्य के लिए  प्रभावी और विश्वसनीय बन सके। रामकथा से अधिक प्रभावी और लोकप्रिय क्या हो सकता था इसलिए रामकथा के कथानक को अपने समय और परिवेश के अनुरूप भिन्न कालखण्डों में बौद्ध और जैन रचनाएं लिखी जाती रही हैं। बौद्ध रामकथाओं में सीता राम की बहन है और जैन रामकथा के अनुसार रावण की पुत्री। पात्रों के आपसी संबंध तत्कालीन मान्यताओं और संस्कृतियों को ही प्रस्तुत करते है। उदाहरण के लिए जैन रामकथाओं में रावण वध के प्रसंग को देखा जा सकता है। जहाँ अन्य रामकथाओं में राम ने रावण का वध किया, रावण वध राम के शौर्य का प्रतीक है। जैन रामकथाओं में ऐसा नहीं है वहां रावण वध शौर्य नहीं भूल प्रतीत होता है, यहां रावण का वध भी राम नहीं लक्ष्मण करते हैं। जैन धर्म के अहिंसा पर अत्याधिक बल देने के कारण वहाँ जीव हत्या के अपराध के कारण लक्ष्मण को इसकी सजा मिलती है।

वाल्मीकि कृत रामायण का रचनाकाल 400 ई.पू.माना जाता है, रामायण एक  विशद् महाकाव्य है, जिसमें चौबीस हज़ार श्लोक पांच सौ सर्ग और सात काण्ड है। वाल्मीकि रामायण में भारतीय दर्शन और संस्कृति का चित्रण मिलता है। इसलिए कहा भी जाता है कि भारतीयों को समझने के लिए रामायण में वर्णित सांस्कृतिक परिस्थितियों को समझना आवश्यक है; क्योंकि इसमें वर्णित संस्कृति आज भी किसी न किसी रूप में हमारे समाज में परिलक्षित होती है।

हर कवि अपनी रचना में अपने युग को प्रतिबिंबित करता है। वाल्मीकि ने भी ऐसा ही किया ‘कोई भी कवि चाहे वह पुरातन परम्पराओं या आख्यानों का आश्रय ले अथवा स्वयं अपने सृजनशील कल्पना करें अंततः अपने काव्य के रंगमंच पर उन्हीं प्राणियों को उपस्थित करेंगे और उसकी पृष्ठभूमि उन्हीं वस्तुओं और संस्थाओं से निर्मित होगी जो उसके निकटवर्ती संसार की उपज है। उसकी रचनाओं में जाने-अनजाने, उसके  अपने युग के रीति -रिवाज बहुत कुछ सचाई और विस्तार के साथ प्रतिबिंबित हो जाएंगे।’[3] स्पष्टतः रामायण में वर्णित समाज वाल्मीकि के समय का समाज है। जिसे सभ्यता के निर्माण का काल भी कहा जाता है, क्योंकि वाल्मीकि ने कथा प्रसंग में छोटी-छोटी घटनाओं के द्वारा समाज को शिष्टाचार की सीख दी। इसी क्रम में अतिथि सत्कार से जुडी विभिन्न घटनाएं रामायण में कई स्थानों पर मिलती है। भारतीय परंपरा में अतिथि को ईश्वर के समान माना जाता है, ‘अतिथि देवो भव:’। रामायण में भी अतिथि सत्कार को सामाजिक शिष्टाचार का महत्त्व पूर्ण घटक माना है। अतिथि सत्कार का महत्त्व बताते हुए अगस्त्य ऋषि राम से कहते हैं – ‘दु:साक्षीव परे लोके स्वानि मांसानि भक्षयेत’।[4]

अर्थात् जो अतिथि का स्वागत नहीं करता, उसे परलोक में अपने ही शरीर को मांस खाना पड़ता है। समाज में प्रचलित इसी मान्यता के कारण ही दशरथ और जनक जैसे राजा भी अपने राजदरबार में आने वाले लोगों को अधिक से अधिक सत्कार करते हैं। तत्कालीन संस्कृति को प्रदर्शित करने वाले ऐसे अनेको प्रसंग  वाल्मीकि रामायण में देखने को मिलते हैं। संस्कृत के अतिरिक्त क्षेत्रीय भाषाओं में भी अनेक रामकथाएं मिलती है, जिनका संक्षिप्त विश्लेषण अनिवार्य है।

क्षेत्रीय भाषाओं में उपलब्ध रामकथाएं उस क्षेत्र विशेष की संस्कृति का परिचय देती हैं। इसे कुछ प्रमुख रामकथाओं के उदाहरणों से समझा जा सकता है। 12वीं शताब्दी में कवि कंबन ने कंब रामायण की रचना की। भारतीय भाषाओं में उपलब्ध रामकथाओं में यह सबसे प्राचीन मानी जाती है। इस रामकथा में दक्षिण मान्यताओं और उपमानों का प्रयोग किया गया है। तमिल परंपरानुसार पूर्वराग के उपरांत ही वैवाहिक जीवन का प्रसंग आता है, अतः कंबन ने राम, लक्ष्मण, विश्वामित्र के मिथिला प्रवेश के समय राजमार्ग पर वातायन से झांकती सीता का राम से दृष्टि विनिमय और प्रेमभाव जागृत होना दिखाया है। कंबन का रावण सीता को पर्णकुटी समेत ले जाता है, जिसे वह अशोक वाटिका में स्थापित करता है। इसमें अन्य प्रचलित रामकथाओं की तरह बालि की मृत्यु के बाद तारा को सुग्रीव की भार्या नहीं दिखाया है, वह पति-वियोग में विधवा वेश धारण कर लेती है। कंबन ने अपनी रामायण ने ऐसे कई प्रसंग अपने अनुसार गढे  हैं, जिसमें उनका परिवेश और संस्कृति की झलक मिलती है।

15वीं शताब्दी में कृतिवास द्वारा लिखी कृतिवास रामायण में बंगला संस्कृति का चित्रण मिलता है। यह तो हम सभी जानते हैं कि बंगाल में देवी पूजा का महत्त्व है। कृतिवास ने  भी अपनी रामायण में देवी की आराधना का विधान रचा है। उन्होंने अपने समय और समाज का चित्रण मुख्य कथानक और अवांतर कथा प्रसंगों के मध्यम से किया है। इसके अतिरिक्त 1886 ई. में लिखी मिथिला भाषा रामायण में कविश्वर चंदा झा ने बिहार की संस्कृति और भौगोलिक सौन्दर्य का बखान करते हुए मिथिला प्रदेश के विभिन्न तालाबों का सुंदर चित्रण किया है। इसके अतिरिक्त यात्रा की मंगलकामना के लिए सीता मैथिली समाज में प्रचलित प्रथा के अनुरूप मनौती मांगती हैं। मिथिला प्रदेश में प्रचलित इस तरह की लोकसंस्कृति को कवि ने इस रामकथा  में प्रस्तुत किया है। भारत के पूर्वोत्तर राज्य मातृसत्तात्मक हैं इसलिए वहां की रामकथा में वहां की संस्कृति के अनुकूल ही सीता राम पर अपना क्रोध प्रकट करते हुए, छुपकर देख रहें राम पर कूड़ा डाल देती है।

रामचरितमानस को रामकथाओं में सबसे प्रभावी संस्करण माना जाता है। रामचरितमानस  मध्यकाल में लिखा गया। मध्यकाल जिसे भोग-विलास और नैतिक मान्यताओं के पतन का काल भी कहा जाता है। यह वह दौर था जब सत्ता प्रदर्शन और परस्त्री की प्राप्ति के लिए राजाओं के मध्य युद्ध हुआ करते थे। नैतिक मूल्यों का अवघटन होता जा रहा था। राजाओं की विलासिता और अत्याचार जनता त्रस्त थी। जनसामान्य के लिए रोटी, कपड़ा और मकान जैसी मौलिक आवश्यकताओं को पूर्ण करना भी मुश्किल हो रहा था। ऐसे समय में लोगों को एक  ऐसे राजा की आवश्यकता थी जो अपनी प्रजा का संतान की तरह पालन करें।   समाज को ऐसे नायक की आवश्यकता थी, जो भोग-विलास से निर्लिप्त हो।  रामचरितमानस में ऐसे आदर्श राज्य और राजा की परिकल्पना को साकार किया गया था। राम एक आदर्श चरित्र के रूप में समाज को प्रेरित करते हैं। कई पत्नियों वाले समाज में राम का मर्यादा-पुरषोत्तम  चरित्र तत्कालीन राजाओं के लिए व्यंग्य और सबक था ।

निष्कर्ष : भारतीय संदर्भ में राम युगीन संदर्भ के साथ इसलिए आते रहते हैं क्योंकि यह केवल किस साहित्यिक रचना के नायक नहीं अपितु भारतीयों के आदर्श रूपक हैं जिनके जीवन का अनुकरण भारत के जनमानस की चेतना का स्थायी ध्येय है। भारत में रामकथा के अनेको संस्करण उपलब्ध हैं जो भाषा और कथ्य में एक-दूसरे से भिन्न हैं। इस भिन्नता का कारण सांस्कृतिक वैविध्य है। विदित हैं कि साहित्य समाज का दर्पण है, अतः हर साहित्य में तत्कालीन समाज और संस्कृति वर्णित होती है। विभिन्न रामकथाओं के उदाहरणों से भिन्न कालखंडों और समाज में प्रचलित मान्यताओं और उस परिवेश विशेष की संस्कृति को समझा जा सकता है। अतः इन रामकथाओं को भारतीय संस्कृतियों का अनूदित रूप कहा जा सकता हैं, क्योंकी ये रामकथाएं इस बहुभाषिक राष्ट्र की संस्कृति के विभिन्न पहलूओं को समझने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

 

 संदर्भ – 

  1. देवशंकर नवीन, 2016, अनुवाद अध्ययन का परिदृश्य, प्रकाशन विभाग,दिल्ली, पृ.99-100
  2. ए.के. रामानुजन, 2012, तीन सौ रामायण, वाणी प्रकाशन, दिल्ली , पृ.29
  3. घोष नागेन्द्रनाथ, दि रामायण एंड महाभारत, ए सोशयोलॉजिकल स्टडी,(सर आशुतोष मुखर्जी सिल्वर जुबली वाल्यूम,ओरिएंटेलिया), पृ.361
  4. श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण (भाग -1, 2), 2014,गीता प्रेस, गोरखपुर, दो. 3/12 /24

[1] नवीन ,देवशंकर ,अनुवाद अध्ययन के परिदृश्य , पृ। 99-100

[2] रामानुजन , ए. के. , तीन सौ रामायण, पृ. 29

[3] घोष नगेन्द्र नाथ ‘दि रामायण एंड महाभारत पृ. 361

[4] वाल्मीकि रामायण.  3/12 /24

 

प्रियंका
शोधार्थी
अनुवाद अध्ययन
भारतीय भाषा केंद्र
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय
नई दिल्ली