कबीर की काव्यभाषा में मुख्यतः प्रयुक्त हुए शब्दों के मूल स्रोतों के संदर्भ में उनकी सृजनशीलता का विश्लेषण बड़ा ही रोचक है। लोकजीवन से गृहीत शब्दों के मूल स्रोत के संदर्भ में कबीर की सृजनशीलता स्पष्ट है। कबीर ने अपने स्वानुभव के आधार पर कुछ शब्दों को लोक जीवन से ग्रहण किया । यहाँ हम निम्नलिखित उदाहरण के माध्यम से उनकी सृजनशीलता देखेंगेः
बलिहारी गुरु आपणै द्यौहाड़ी के बार ।
जिने मनिष ते देवता करत न लागी बार ॥1
मूल लोक परम्परा में द्यौहाड़ी का तात्पर्य होता देवगृह परन्तु उक्त साखी में कबीर द्यौहाड़ी का अर्थ दिवस के रूप मे कर रहे हैं। यह उनकी अपनी मौलिकता है।
इस संदर्भ में उक्त साखी का अर्थ हुआ कि हे गुरु, दिवस में आपको कितनी ही बार बलिहारी है जिसने मुझे मनुष्य को देवता बनाने में विलम्ब न किया।
पंतंगः
माया दीपक नर पतंग, भ्रमि-भ्रमि इवै पंडत।
दीपक दिष्टि पंतग ज्यू, पड़ता पूरी जांणि।।
लोक परम्परा में पतंग सामान्य कीड़े मकौड़ों को कहा जाता है परन्तु उक्त पद में कबीर मनुष्य को कीड़ा-मकौड़ों की तरह कह रहे हैं इस नये अर्थ के संदर्भ में उक्त साखी की व्याख्या इस प्रकार होगी कि माया दीपक है, मनुष्य पतंगा है जो पंतिगे के समान भ्रमिक हो-होकर उस पर गिरता है। कवि कबीर है कि गुरु द्वारा दिए हुए ज्ञान से एक-आद्य ही उस दीपक पर गिरने से बचते है।
चोखौं बनज व्यौपार करीजै।
आई मै दिसावरि रे राँस जपि लाही लीजै रे।।
जब लग देखौ हाट पसारा।
उठि उठि बाणिया रे करि लै, वणिज सवारा रे।।
सायर तीर न वार न पारा।
कहि समझावै रे कबीर वणिजारा रे।।2
हे जीव! तू इस संसार में धर्म-भक्ति पूर्ण चोखा (उत्तम) व्यापार कर लो। इस परदेश में आकर राम का नाम जपकर लाभ प्राप्त कर ले। जब तक इस संसार रूपी बाजारी का प्रसार देखने में लगे हो तब तक उठकर वाणिज्य कर ले (राम-भक्ति का व्यापार कर ले, संसार में ही यदि भूले रहोगे, तो समय भी जाएगा।) शीघ्र ही तुम्हे लाद कर चलना होगा। जीवन सीमित है। इस संसार से जब जीव चला जायेगा तो उसका सारा कार्य व्यापार स्थगित हो जायेा। अपने कर्म फल को लेकर उसे शीघ्र प्रस्थान करना होगा। मार्ग अत्यन्त ऊँचा नीचा है। परलोक का मार्ग भी बहुत लम्बा है। चैरासी लाख योनियों में भटकने के बाद एक बार मानव जीवन मिलता है। यहाँ से ईश्वर तक पहुँचना सुगम नहीं है तो फिर वही लम्बा रास्ता तय करना होगा। तुम्हें खरे-खोटे की परख भी नहीं है। तुमने लाभ के लिए मूल को ही गँवा दिया। शुद्ध चैतन्य आत्मा के साथ तुम्हें देह धारण का अवसर मिला। भक्ति और मुक्ति ही इसके लाभ थे किन्तु तूने सांसारिकता को ही लाभ समझा और मूल चैतन्य को ही हाथ से गँवा दिया। सारे संसार को लोभ ही प्रिय है, वास्तविक व्यापारी वही होता है जो मूल की रक्षा करता है। अपना देश अच्छा होता है विदेश तो विदेश है। परम पद रूपी लोक ही आत्मा का वास्तविक देश है। संसार तो परदेश है। दो चार लोग ही इस संसार में वास्तविक भक्त हैं। श्रेष्ठ एवं सुजान साधुओं से पूछकर देखो उनका भी यही मत है। इस भव सागर के किनारे का कोई वार-पार नहीं है। वास्तविक बनजारा कबीर जीवों को समझा कर कह रहा है। प्रायः यहाँ कबीर बनज (वाणिज्य) शब्द जो कि प्रायः व्यापार के संदर्भ में प्रयुक्त होता है का मनुष्य के कर्म के संदर्भ में प्रयुक्त कर अपनी सृजनशीलता का उत्कृष्ट परिचय दिया है।
राँम कहौ न अजहूँ केते दिनाँ।
जब है है प्राँन प्रभू तुम्ह लीनाँ।। टेक।।
भौ भ्रमत अनेक जनम गया। तुम्ह दरसन गोब्यंद छिन न भया।।
भ्रमि भूलि परयो भव सागरा। कछू बसाई बसोघरा।।
कहै कबीर दुखभंजनाँ। करौ दया दुरत निकंदनाँ।।3
हे राम बाताओ, आज भी कितने दिन शेष हैं जब मेरे प्राण तुझमें लीन हो जायेंगे। संसार में भटकते हुए अनेक जन्म व्यतीत हो गये किन्तु हे गोबिन्द तुम्हारा दर्शन एक क्षण भी नहीं हुआ। भ्रमित होकर भूला हुआ मैं संसार-सागर में पड़ा हूँ। वसुंधरा में कुछ भी वश नहीं चल पा रहा है। कबीर कहते हैं कि दुःख नाशक! पापों को समूल नष्ट करने वाले! मुझ पर दया करो। यहाँ कबीर ने बसोधरा (वसुंधरा) शब्द जिसका सामान्य अर्थ पृथ्वी होता है का निर्गुण ब्रह्म (कृष्ण) के रूप में प्रयुक्त किया है।
जन सम द्रिष्टी सीतल सदा, दुविधा नहीं आनै।
कहै कबीर ता दास सूँ, मेरा मन माँनै।।4
राम का भजन करने वाला सच्चा भक्त वही माना जाता है जिसमें विषयों के प्रति आकुलता नहीं होती। वह नित्य सत्य और संतोष धारण किये रहता है। इसके साथ ही मन में ईश्वर भक्ति में प्रति दृढ़ता तथा भौतिक जगत में व्याप्त सुख-दुख में धैर्य रखता है, जो ईश्वर का भक्त होता है उसे काम, क्रोध नहीं सताते तथा तृष्णा उसे नहीं जला सकती। वह भक्ति रूपी महारस में प्रसन्नचित्त रहता है और गोविन्द का गुणगान करता है। भक्त को दूसरे की निंदा अच्छी नहीं लगती। वह कभी असत्य भाषण भी नहीं करता है। वह काल के प्रभाव को मिटाकर परमात्मा के चरणों में अपना चित्त लगाये रखता है। वह सुख-दुःख के द्वन्द्व में नहीं पड़ता उनके प्रति समत्व दृष्टि रखता है। इस प्रकार वह निरंतर शीतलता का अनुभव करता है। उसके हृदय में किसी प्रकार की द्विविधा नहीं रहती। कबीर कहते हैं कि ऐसे ही दास के लिए मेरे मन में श्रद्धा और प्रेम का भाव जागृत होता है। सामान्यतः असत्य शब्द का प्रयोग सांसारिक मनुष्यो के संदर्भ में होता है। परन्तु कबीर भक्त के लक्षणों में इसका प्रयोग कर, मौलिकता का परिचय देते हैं।
(ख) देशज शब्दः देशज शब्दों की भी सूची पिछले अध्याय में दी गयी है अतः यहाँ पुनरावृत्ति करना समीचीन न होगा। यहाँ हम कुछ एक उदाहरण के माध्यम से कबीर की देशज शब्दों के संदर्भ में सृजनशीलता पर दृष्टि डालेंगेः
यथा- गंवार
कबीर कहता जात हूँ चेते नहीं गंवार
वैरागी गिरही कहा, कामी वार न पार5
सामान्य लोक व्यवहार में गंवार शब्द असभ्य मनुष्यों के संदर्भ में प्रयुक्त होता है। लेकिन कबीर सभ्य मनुष्यों जैसे वैरागी और गृहस्थ को फटकारने के संदर्भ में गंवार शब्द प्रयोग कर रहे हैं।
इस प्रकार इस दोहे का अर्थ हुआ कि मैं कहता जा रहा हूँ फिर भी गंवार व्यक्ति वैरागी और गृही, चेते नहीं। वैरागी और गृही दोनो से क्या कहा जाए? कामियों का आदि अंत नहीं है। अर्थात् दोनों ही वर्गों में कामियो की प्रचुरता है।
(ग) संख्यावाची शब्दः संख्यावाची शब्दों का प्रयोग भी कबीर के यहाँ विभिन्न स्थलों पर मिला है।
यथाः
चारि खूँटीः- चार खूँटियाँ और दो चमरखो का प्रयोग सामान्यतः चरखे मे होता है। चरखे में चार खूँटियाँ और दो चमरख चर्म के वे टुकड़े होते हैं जिनके मध्य से होकर तकुआ घूमता है। परन्तु कबीर चारि खूँटी का प्रयोग अन्तःकरण की 4 प्रवृत्तियों (मन, वृत्ति, चित्त, तथा अहंकार) तथा दो चमरख का प्रयोग प्रवृत्ति तथा निवृत्ति दो मार्गों के संदर्भ मे करते हैं। जो कि निम्न पद से स्पष्ट हैः
मन मेरौ रहटा रसन पुवरिया,
हरि को नाउ ले ले काति बहुरिया।
चारि खूँटी होई चमरख लाई। सजि रहटवा हीया चलाई।
सासू कहे काति बहू एसे। बिन कातै निसतारिबो कैसे।
कहे कबीर सूत भल काता। रहटा नहीं परम पद दाता।6
अर्थात्- मेराम न रहटा (अरघट्ट-चरखा) है और मेरी रसना (सूत पूरने वाली तकुली) है। मैं वधू (आत्मा) हरि (स्वामी) का नाम लेकर उसे कात रही हूँ उस चरखे में चार खूटियाँ और दो चमरख चर्म के वे टुकड़े जिनमें से होकर तकुआ घूमता है लगा कर सहज से मैने रहटा (चरखा) चला दिया। सास कहने लगे वधू इसी प्रकार कात बिना काते कैसे निरस्तार होना है। कबीर कहता है मैंने भला सूत काता, यह रहटा चिखवा नहीं, परम पद का देने वाला है।
रहटा मन है और रसना तकुली है सूत्र ध्यान का है चरखे की चार खूटिया अन्तः करण चतुष्टय है मन बुद्धि चित्त तथा अहंकार दो चमरख प्रवृत्ति के मार्ग है।
(घ) अरबी फारसी के शब्द- कबीर की रचना में अरबी फारसी भाषा के शब्द भी बहुतायत मिलते हैं। परन्तु कबीर ने अरबी फारसी शब्दों में अपनी काव्य कुशलता से नए अर्थ की संभावना भर दी है।
यथाः कुल अरबी फारसी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ होता है समग्र। परन्तु कबीर के यहाँ कुल का प्रयोग कुटुम्ब या परिवार के संदर्भ में हुआ है।
ऊँच कुल क्या जनमिया ते कारणी ऊँची न होय
सोवन कलस सुरा भरै साधु निंदा होई7
अर्थात् ऊँचे परिवार में जन्म का कोई लाभ नहीं यदि हमारे कार्य भी उच्चकोटि के नहीं है। स्वर्ण के कलश मे यदि मदिरा भर दे तो सज्जन पुरुषों द्वारा इसकी निंदा ही की जायेगी।
बांग अरबी फारसी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ होता है मुर्गे की आवाज परंतु कबीर मुसलमानों की नमाज के संदर्भ में इसका प्रयोग करते हैंः
कहे कबीर मैं भया दिवाना
मुसि मुसि मुनुना सहजि समाना8
अर्थात्- हे मुसलमान! तू एक ऐसी मस्जिद (शरीर) में जाकर नमाज अदा कर जिसमें दस दरवाजे है। तू मन को मक्का और देह को किबला बना और जो बोलने वाला जीव है उसी को परम गुरु मान ले। तामस की बिस्मिल कर भ्रम को दस्तर खान बना पाँचों मनोविकारों का भक्षण कर तब मुझे शांति मिलेगी। कबीर कहता है, मैं दिवाना हो गया हूँ, क्योंकि मेरा मन चुपके-चुपके सहजावस्था में समा गया है।
मैं गुलाम मोहि बेचि गुसाँई। तन मन धन राँम जी कै ताँई।।
आनि कबीरा हाटि उतारा। सोई गाहक सोई बेचनहारा।।
बेचै राँम तौ राखै कौन। राखै राँम तौ बेचै कौन।।
कहै कबीर मैं तन मन जारया। साहिब अपनाँ छन न विसारया्।।9
कबीरदास कहते हैं, हे भगवान्! मैं तुम्हारा दास हूँ। तुम मुझे चाहे तो बेच दो। तन, मन, धन मेरा सब कुछ राम के लिए ही है। भगवान् ने कबीर को संसार रूपी बाजार में उतारा है। भक्त कबीर को राम ही बेचने वाला है और राम ही खरीददार हैं चूँकि भक्त के समस्त क्रिया कलाप राम की प्रेरणा से होते हैं और उसकी निष्पत्तियाँ राम को ही समर्पित होती हैं इसलिए वही क्रेता और विक्रेता दोनों होता है। यदि राम भक्त को बेच देते हैं तो उसे रखने वाला कौन है अर्थात् राम से अलग होकर भक्त किसी की शरण मे रह ही नहीं सकता और किसी में उसे शरण देने की क्षमता भी नहीं है। यदि राम उसे चाहे तो कोई उसे बेच भी नहीं सकता। कबीर कहते हैं कि मैंने शरीर और मन को जला दिया है। मैं एक क्षण भी भगवान् को भुला नहीं पाता हूँ।
यहाँ अरब फारसी भाषा के शब्द गुलाम का कबीर ने भक्त के संदर्भ में प्रयोग किया है, जबकि सामान्य रूपसे इसका अर्थ दास होता है।
काजी सो काया बिचारै, तेल दीप में बाती जारै।।
तेल दीप मैं बाती रहै। जोति चीन्हि जे काजी कहै।।
मुलनां बंग देई सुर जाँनी। सो मुलनाँ सरबत्तरि गाजा।।
सेष सहज मैं महल उठावा, चंद सूर बिचि तारी लावा।।
अरधक उर ये संन्यासी, ते सब लागि रहैं अबिनासी।।
अजरावर कौं डिढ़ करि गहै, सो संन्यासी उन्मन रहे।।
जिहि धर चालरची ब्रह्मांडा, पृथमीं मारि करी नव खंडा।।
अविगत पुरिस की गति लखी न जाई, दास कबीर अगह रहे ल्यौं लाई।।10
जो काया में स्थित आत्मतत्त्व का चिंतन करता है वही काजी हो सकता है। वह परमात्मा काया रूपी दीपक में प्रेम रूपी तेल से ज्ञान की बत्ती जलाता है। इस शरीर रूपी दीपक में प्राण रूपी बत्ती के रहते जो उस परमतत्व की ज्योति को पहचान लेता है सच्चे अर्थों में वही काजी कहलाता है।
मौलवी कुरान की सुरा को जानकर बांग देने लगता है तथा स्वयं मुसल्ला (चादर) तानकर (फैलाकर) बैठ जाता है। किन्तु जो अपनी काया के भीतर ही परमतत्व को नवाजता (ध्यान) है वह मौलवी सर्वत्र गर्जना करता रहता है। शेख वह है जो सहजावस्था को प्राप्त कर लेता है तथा सूर्य और चन्द्र नाड़ी के मध्य अपना ध्यान केन्द्रित कर देता है वह अधोवर्ती तथा ऊध्र्ववर्ती सहस्त्र दल वाले कमल के मध्य वाले अनाहत चक्र में परमात्मा के निकट अपने को स्थिर कर देता है, ऐसा शेख ही तीनों लोकों में सबसे प्रिय है। जंगम साधु वही कहलाता है जो योग का विचार करे तथा जहाँ जीव और शिव का एकात्म होता है उस स्थान पर अपना ध्यान लगाये। जो अपने चित्त को परम चैतन्य में अवस्थित करके उसकी आराधना करता है वही जंगम नाम की उपाधि को धारण करता है। योगी वह है जो सांसारिकता के प्रति अपनी आसक्ति को जलाकर राख कर देता है तथा विचार करके सहज तत्व को ग्रहण करता है। वह अभय तत्व से अपने शरीर के अंदर ही परिचय कर लेता है तथा उससे मुखर होकर बातें करता है। योगी वही है जो स्वामी के प्रति निश्चल भाव रखना है तथा अपने लक्ष्य से कभी डिगता नहीं है। हे जैनों! तुम अहिंसा द्वारा जीव की रक्षा करने का भाव रखते हो किन्तु यह तो विचार करो कि वह जीव कौन है जिसकी तुम मुक्ति चाहते हो। चैरासी लाख योनियों का वह स्वामी कहाँ निवास करता है? जो इस भेद को जान लेता उसे ही मुक्ति मिल पाती है। भक्त तो इस संसार से मुक्त होने का संकल्प करता है वह मुक्ति जो परमत्त्व देती है उसके विषय में पहले विचार कर लेना चाहिए। प्रेम का महत्व जानकर जो राम नाम का स्मरण करता है। वही भक्त भगवान का दास कहलाने का अधिकारी होता है। पंडित चारों वेदों का गुणगान करता है वह आदि और अंत रूप ब्रह्म का पुत्र कहलाता है। आदि और अंत के मध्य जो भी वह माया कहलाती है। पहले अपनेी उत्पत्ति पर विचार कर लो तत्पश्चात् ही अपने सम्पूर्ण संशय का नाश करके अपने भ्रम का निवारण कर लो। जो सभी ऊँची-नीची स्थितियों में पहुँचे हुए हैं वे इस अविनाशी तत्व में ही अनुरक्त रहते हैं। जिसने दृढ़तापूर्वक उस अजर-अमर तत्व को निष्ठापूर्वक ग्रहण यिका है वही संन्यासी उन्मनी अवस्था को प्राप्त कर लेता है। जिस परमात्मा ने इस पृथ्वी को गति प्रदान की इस सम्पूर्ण सृष्टि को नवखंडों में विभाजित कर दिया उस अविनाशी पुरुष की दशा नहीं जानी जा सकती। यह दास कबीर उसी परमतत्व में अपना ध्यान लगाये बैठा है।
काजी, योगी, संन्यासी, पंडित आदि को नए सिरे से परिभाषित किया गया है।
पढ़ि ले काजी बंग निवाजा। एक मसीति दसौं दरवाजा।।
मन करि मका कबिला करि देही। बोलनहार जगत गुर एही।।
उहाँ न दो जग भिस्त मुकाँमाँ। इहाँ ही राँम इहाँ रहिमाँनाँ।।
बिसमल ताँमस भरम कंदूरी। पंचै ज्यूँ होई सबूरी।।
कहै कबीर मैं भया दिवाँनाँ। मनवां मुसि-मुसि सहजि समाँनाँ।।11
कबीर कहते हैं कि हे काजी, तु बाँग दे दे, नमाज पढ़ ले लेकिन ध्यान से समझ ले कि सबको एक मस्जिद रूपी शरीर मिला है, जिसके दस दरवाजे हैं। (मनुष्य के शरीर में स्थित दस द्वार)। तू मन को मक्का और देह को किबला (पश्चिम द्वार) मान ले। बोलने वालो जो आत्मत्व है वही गुरु है। वहाँ नरक और स्वर्ग के स्थान नहीं है। यहीं राम है और यहीं रहीम है। तेरा बिसमल तामस का है और तेरी कन्दूरी बनाने का बर्तन भ्रम का है। तुझे तमस का त्याग करना चाहिए और भ्रमों को दूर करना चाहिए। पंच विकारों का भक्षण करो जिससे तुम्हें सच्ची शांति मिले। कबीर कहते हैं कि धीरे-धीरे सहज में समाहित हो गया हूँ, इसलि उन्मत हूँ। व्यंजना यह है कि तुम्हें भी सहज साधना करनी चाहिए।
यहाँ कबीर ने अरबी फारसी शब्द मस्जिद के शरीर, मन को मक्का, देह को किबला के रूप में व्यंजित कर अपनी सृजनात्मकता का प्रकटीकरण किया है।
लोकोक्तियाँ एवं मुहावरें कबीर की कविता में प्रयुक्त मुख्य लोकाक्तियों एवं मुहावरों की सूची पूर्व अध्याय में दी गयी है अतः पुनः उसकी यहाँ पुराव1त्ति उचित न होगी। यहाँ हम निम्न उचारण के माध्यम से लोकोक्तियों एवं मुहावरों के प्रयोग के प्रसंग में उनकी सृजनशीलता देखेंगे।
यथाः नीले दंत रंगाना’ एक मुहावरा है जिसका अर्थ होता है कलंकित होनाः-
कबीर प्रीतिड़ी तौ तुझ सौ, बहु गुणियाले कंत।
जे हंसि बोलौ और सं, तो नील रंगाऊ दंता।।12
अर्थात् जिस प्रकार एक पतिव्रता नारी अपने पति से कहती है कि सर्वगुण सम्पन्न कान्त (प्रिय) मेरा जो कुछ भी है प्रेम है, वह केवल तुमसे है मेरी दृष्टि में तुमसे बढ़कर गुणवाला और कोई नहीं है यदि मै। किसी ओर से हँस कर बोलूँ अर्थात् किचिंत भी अनुराग दिखाऊँ तो मेरे लिये धिक्कार की बात होगी। इसी प्रकार मक्त जीव प्रभु से कहता है कि सर्वगुण सम्पन्न तो आप है आपसे बढ़कर गुणवाला और कौन है जिससे मैं प्रेम करूँ? इसलिये मेरा प्रेम केवल आपके प्रति है दूसरे के प्रति किंचित भी अनुराग मेरे लिये धिक्कार की बात होगी।
प्रस्तुत साखी में कबीर ने ‘नील दांत रंगाना’ मुहावरे का प्रयोग किया है जो कि प्रायः सांसारिक कार्यों के संदर्भ में प्रयुक्त होता है। परन्तु व्यंजना शब्द शक्ति के माध्यम से कवि कबीर इसे जीवात्मा और परमात्मा के संदर्भ में प्रयोग कर इसमें आध्यात्मिक संबंधों में प्रयुक्त कर रहे हैं।
‘सिर धुनना’ एक मुहावरा है, जिसका अर्थ होता है पश्चाताप करना
भाषी गुड में गड़ि रही, पंष रही लपटाइ।
ताली पीटै सरि धुनै, मीठै बोई भाई।।13
अर्थात्- मिठास के लोभ से मक्खी गुड़ की ओर आकृष्ट होकर जब उसमें गिरती है तो उसका पंख गुड़ में चिपक जाता है। वह उस गुड़ से अलग नहीं हो पाती। वह हाथ मलने लगती है और सिर घुनने लगती है अर्थात् पश्याताप करती है और कहती है सखी मिठास के आकर्षण से मैं इस गुड़ में बुरी तरह फँस गई ठीक इसी प्रकार जीव विषयों के माधुर्य से आकृष्ट होकर जब उसका भोग करता है तो वह उनमें इतना फँस जाता है कि उससे निकल उसके लिये असम्भव हो जाता है।
यहाँ सिर धुने मुहावरे का प्रयोग हुआ है। सामान्य रूप से यह मनुष्य के लिए प्रयुक्त होते है परन्तु कबीर इसे मक्खी और प्रकारान्तर से आत्मा हेतु प्रयुक्त करते हैं।
कबीर इस संसार में, घणै मिनष मति हींण।
राम नाम जाँणैं नही, आये टापा दी।
इस जगत में अनेक मनुष्य बुद्धिहीन और अज्ञानी हैं। राम नाम के महत्व को जानते नहीं और ठप्पा (तिलक) देकर भक्त होने का दिखावा करते हैं अर्थात् भटक्ते हुए अपने जीवन को व्यर्थ में खो देते हैं।
इस साखी में राम-नाम की महत्ता वर्णित है। ‘टापा दीन’ मुहावरा है। कबीर ने इसका दूसरा अर्थ आँख में पट्टी बाँधना किया है जो अज्ञान का प्रतीक है।
खंभा एक गइंद दोइ, क्यूँ करि बंधसि बारि।
मानि करै तो पीव नहीं, पीव तौ मानि निवारि।।14
खंभा एक है, हाथी दो हैं, दोनों हाथियों को एक ही खंभे में कैसे बाँधा जाए। इसी तरह मन में अहंकार करते हो तो प्रिय नहीं रहता, प्रिय है तो अहांकार का निवारण करना होगा। यहाँ एक खंभा दो हाथी मुहावरे का कबीर ने अहंकार तथा प्रिय तथा मन के संदर्भ में प्रयोग किया है।
सिद्ध नाथ परम्परा अथवा बौद्ध तांत्रिक परम्परा से गृहीत शब्दावलियों के मूल स्रोतो के संदर्भ में कबीर की सृजनशीलता: कबीर की काव्यभाषा पर सिद्ध नाथ परम्परा या बौद्ध तांत्रिक परम्परा की स्पष्ट छाप है। सिद्ध नाथ परम्परा या बौद्ध तांत्रिक परम्परा की स्पष्ट छाप है। सिद्ध नाथ परम्परा या बौद्ध तांत्रिक परम्परा से ग्राह्य शब्दों का विस्तृत ब्यौरा पूर्वांल्लिखित है। यहाँ हम शब्दवार उदाहरणों के माध्यम से यह स्पष्ट करेंगे कि यद्यपि कबीर की काव्य भाषा पर सिद्ध नाथ परम्परा अथवा बौद्ध तांत्रिक परम्परा का व्यापक प्रभाव है। परन्तु कबीर उन शब्दों में अपनी मौलिकता का समावेश कर अपनी सृजनशीलता का परिचय देते हैं।
सहज शब्द का मूलस्त्रोत बौद्धतांत्रिक या सिद्ध नाथ परम्परा है जहाँ सहज का साधनात्मक अर्थ है। यह एक ऐसी साधना है जिनमें शरीर को कोई भी कष्ट देने की आवश्यकता नहीं है। न ही किसी कर्मकाण्ड की आवश्यकता है।
परन्तु कबीर कहते हैं कि
सहज सहज सब को कहै, सहज न चीन्है कोई
जिन्ह सहजै हरि मिलै, सहज कहीजै सोई15
कबीर का सहज बौद्ध तांत्रिक परम्परा से भिन्न है। सहज शब्द कबीर की निजी अवधारणा है। वे कहते हैं कि सहज-सहज तो सब कहते हैं लेकिन इसके वास्तविक तत्ववाद से कोई परिचित नहीं है वास्तव में जिस भाव या साधना से ईश्वर प्राप्ति हो वही सहज है।
सहजिया सम्प्रदाय के लोगो पर व्यंग्य करते हुए कबीर कहते हैं कि
सहज सहज सबको कहँ
सहज न चीन्हे कोइ
जिन्ह सहजै विषिया तजी
सहज कहीजै सोइ।16
भाव यह है कि सभी लोग सहज की बात तो करते हैं किन्तु सहज की पहचान किसी को नहीं है। जिन्होंने सहज की विषयों को छोड़ दिया हो उन्हें ही सहज मानना चाहिए।
इस प्रकार कबीर सहज की व्याख्या करते हुए उसके साधनात्मक अर्थ न होकर उसके माध्यम से अज्ञानी संतों को फटकारते है।
सुरति-निरतिः- बौद्ध तांत्रिक परम्परा में सुरति का अर्थ साधनात्मक या मैथुन के समय आनंद है। जबकि निरति का अर्थ नितराम या पूर्ण रूपेण रति है। कबीर एक स्थल पर सुरति को जाल बताते है
कबीर सुषिम सुरति का जीव न जाणै जाल
कहै कबीर दूरि करि आतम अट्टष्टि काल17
यहाँ कबीर सुरति को शरीर और मन से संबद्ध मानते हुए सुरति को एक प्रकार का जाल मानते हैं और अंत में उसका मन में समाविष्ट होना बताया है।
एक अन्य स्थल पर कबीर सुरति का अर्थ स्मृति और निरति का अर्थ तल्लीनता करते हैं :
कबीर सुरति समाणी निरति में
निरति रही निरधार
सुरति निरति परचा भया
तब खुले स्वयं दुबार।।18
अर्थात सुरति (स्मृति) निरति (तल्लीनता) में समा गयी हैं और निरति ही निश्चित कप से रह गयी है। जब सुरति और निरति से परिचय हुआ तब आत्मसाक्षात्कार हुआ। इस प्रकार कबीर सुरति और निरति को आत्म साक्षात्कार हेतु आवश्यक मानते हैं। एक अन्य स्थल पर कबीर सुरति का मानवीकरण कर देते है
जो को मरे मरन है मीठा।
गुरु प्रसादि जिनहि मरि दीठा।
मूवा करता मुई ज करनी। मुई नारि सुरति बहु धरनी।
मूवा आपा मूवां मांन। परपंच लेइ मूवा अभिमान।
राम रमे रषि जे जन मूये। कहे कबीर अविनासी हुये।।19
अर्थात्ः- गुरु की कृपा से जिन्होंने भी मर कर देखा है। उनका कथन है कि जो कोई भी मरता है (उसके लिये) मरण मीठा (सुखप्रद) हुआ करता है (मरने से) प्राणी का कर्ता (कतृत्व का भाव) मृत हुआ, उसकी करणी (कर्म-भावना) मृत हुई, और उसकी वह नारी सुरति (शारीरिकत स्मृति) मरी जो बहुतेरे (संस्कारों) को धारण करने वाली थी। उसका आपा (अहंकार) मरा, मान-सम्मान (का लोभ) मरा, और प्रपंचों को लिए दिए (उसका) अभिमान मर गया। राम और राम ही में रमते हुए जो जन मृत हुए, कबीर कहता है, वे अविनाशी (ब्रह्म) हो गए।
स्पष्टतः कबीर ने यहाँ सुरति को नारी बना दिया है।
शून्यः- बौद्ध परम्परा में शून्य से तात्पर्य ऐसे परमतत्त्व है, जिसका अनुभव दूसरों के द्वारा नहीं प्राप्त किया जा सकता, जहाँ सब भावों तथा वासनाओं का उपशम हो जाता है। जिसका वाणी द्वारा वर्णन नहीं किया जा सकता जो चित्त की कल्पना से परे है तथा उसमें नानात्म नहीं है।20
सन्दर्भ सूची :
- कबीर गंथावली पृ. 01
- कबीर ग्रंथावलीः प्रो. रामकिशोर शर्मा पृ.- 228
- वही
- वही
- कबीर ग्रंथावली पृ.- 4
- कबीर ग्रंथावली पृ.- 282
- कबीर समग्रः डॉ युगेशवर पृ.- 432
- कबीर वाणी सुधा, डॉ पारसनाथ तिवारी पृ.- 174
- कबीर ग्रंथावलीः प्रो. रामकिशोर शर्मा पृ.- 288
- वही
- वही
- कबीर ग्रंथावली पृ.- 35
- कबीर ग्रंथावली पृ.- 80
- कबीर ग्रंथावली: प्रो. रामकिशोर शर्मा पृ.- 288
- कबीर ग्रथावली पृ.- 70
- कबीर समग्र: डॉ युगेश्वर पृ.-288
- वही पृ.- 27
- कबीर ग्रंथावली- पृ.-27
- वही पृ-173
- माध्यमिक कारिका 18/9
- कबीर ग्रन्थावलीः पृ.-35
- कबीर ग्रन्थावलीः प्रो. रामकिशोर शर्मा 288
- कबीर ग्रंथावली पृ.- 271
- कबीर समग्रः डॉ युगेश्वर पृ. 614
- कबीर ग्रन्थावली पृ.- 187
- कबीर ग्रन्थावली पृ.-154
- कबीर ग्रन्थावली प्रो. रामकिशोर शर्मा पृ.-288
- कबीर ग्रन्थावली पृ.-26
- कबीर ग्रन्थावली पृ.-30
प्रो. माला मिश्र
दिल्ली विश्वविद्यालय