शोध सार :- नयी कविता के अत्यंत समर्थ आधार-स्तम्भ के रूप में कवि गिरिजाकुमार माथुर हैं जिन्होंने किसी वाद से प्रभावित होकर कविता की रचना नहीं की वरन युगीन मांगों और परिस्थितियों को ध्यान में रखकर इन्होने अपना लेखन कार्य किया | फलस्वरूप इन्होने रंग, रस और रोमान के सम्बंधित विषय वस्तु को केंद्र में रखकर प्रेम और सौन्दर्य को अपनी कविताओं का मुख्य घटक माना है| इसलिए गिरिजाकुमार माथुर को मूलतः रोमानी कवि माना जाता है |

मुख शब्द :- प्रेम, सौन्दर्य, श्रृंगार, रोमानियत |

प्रस्तावना :-  साहित्य ही एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा कोई साहित्यकार अपने मन की समझ और उसके भावों को शब्दों का रूप देकर उसे कविता, कहानी, नाटक या उपन्यास के रूप में संप्रेषित करता है | साहित्य को समाज का दर्पण इसलिए कहा जाता है क्योंकि इसमें व्यक्ति, समाज, मनोभावों और परिस्थितियों को भावपूर्ण तरीके से गढ़ा जाता है | साहित्य के प्रत्येक कालखंड की अपनी एक अलग विशेषता और विशिष्टता होती है जो उसे दूसरे से भिन्न बनाती है और उन कालखंडों में अनेक ऐसे साहित्यकार आए जो अपने-अपने कालखंड को विशिष्टता की धरा पर पहुंचाते हैं | ठीक उसी प्रकार आधुनिक काल के साहित्यकारों ने भी अपने विचारों को पंख दिया जिससे उस रचनाकारों ने कालखंड को अपनी रचनाओं के माध्यम से समृद्ध किया है | उसी श्रृंखला में महान विचारक, नाटककार एवं प्रेम और सौन्दर्य के कवि गिरिजाकुमार माथुर का नाम सम्मान से लिया जाता है | प्रत्येक साहित्यकार समाज को जीता है और उस समाज में उपस्थित विभिन्न विषयों को विभिन्न विधाओं के माध्यम से समाज के सामने उस आईने को प्रस्तुत करता है |

प्रेम मनुष्य के जीवन का वह केंद्रबिंदु है जिसके चारों ओर उसका जीवन घूमता रहता है | क्योंकि इस प्रेम तत्त्व के कारण ही मनुष्य, मनुष्य से और मानवेत्तर सभी से बंधा हुआ होता है| जिससे उनमें आकर्षण और जिज्ञासा का भाव विद्यमान रहता है | प्रेम वह शाश्वत अनुभूति है जिस पर उम्र और समय का प्रभाव नहीं पड़ता है | प्रत्येक काल में प्रेम के महत्व को स्वीकार गया है |

     गिरिजाकुमार माथुर बहुमुखी प्रतिभा के धनी एवं मूलतः रोमानी भाव के कवि थे | उन्होंने अपनी कविताओं में प्रेम एवं सौन्दर्य को प्रधान स्वर के रूप में स्थान दिया है | माथुर जी को समझौता और समन्वय का कवि भी कहा जाता है | उनकी अधिकांश कविताओं का विषय प्रेम और रोमानियत से परिपूर्ण है इसलिए उन्होंने रूप, रस और मांसल चित्रों में प्रेमानुभूति की प्रमाणिकता और मिलन की उत्कंठा और वियोग के स्वर मुखर हैं | गिरिजा कुमार माथुर जी का भी दृष्टिकोण वैयक्तिक कवियों की भांति भोगवादी एवं ऐन्द्रिय है | इनकी आरंभिक कविताओं में प्रेम प्रसंग अपेक्षाकृत संकेत मात्र ही है | किन्तु कालांतर दूसरे कविता-संग्रह ‘नाश और निर्माण’ में कवि ने प्रेमिका के साथ व्यतीत किये गए  प्रेममयी क्षणों का सुन्दर एवं बेझिझक पूर्ण चित्रांकन किया है | जैसे –

पिछली इसी बसंत की रात की याद उमड़ जाती है

जब तुम पहली बार मिली थी

पीले रंग की चुनर पहिने

देख रही थी चोरी-चोरी

मेरे मीठे गीत प्यार के

मैंने पास अचानक जाकर

छीन लिया था उन्हें तुम्हारे मेहँदी रंगे हुए हाथों से

और लाल होकर क्वारी लज्जा से तुमने

मुख पर आँचल खींच लिया था

जल्दी से निज चाँद छुपाने |” 1*

गिरिजा कुमार माथुर जी के शब्दों में उनकी प्रवृत्ति “रोमानियत, मानसिक प्यास, स्थूल ऐन्द्रियता. चित्रमयता, भौतिक जीवन के रसमय और रंगीन पक्ष के प्रति लाल सा तथा मोह की है|”2*

गिरिजा कुमार माथुर जी शारीरिक प्रेम को जीवन का एक प्रेरक तत्त्व मानते हैं और  इस तत्त्व को मनुष्य के व्यक्तित्व का अनिवार्य यंत्र मानते हैं | प्रणय की अंतर्निष्ठ, मार्मिक, चित्रमयी, रोमांटिक एवं शालीन ढंग से चित्रित करने में विश्वास रखते हैं | वह स्वयं लिखते हैं कि “ प्रणय या सेक्स को यदि पूर्ण रूप से उखाड़ कर नंगा कर दिया जाए तो जीवन के एक अत्यंत प्रेरक तत्व की सूक्ष्म प्रतिक्रियाओं को ही हम भोथरा बना देंगे | इसका अर्थ यह होगा कि हम विस्मय तथा आदिम जिज्ञासा को जीवन के एक बहुत बड़े महत्वपूर्ण क्षेत्र से निर्वासित कर रहे हैं | ऐसी स्थिति में मानवीय आकर्षणों की परिसमाप्ति आदमी के प्रेरक स्रोतों को ही बाँझ बना देगी |”3*

गिरिजा कुमार माथुर जी अंतर्मन में नारी के प्रेम और सेक्स सम्बन्धी एक नयी नैतिकता विकसित हुई है | उनका मानना है कि नारी जो पहले केवल भोग की वस्तु समझी जाती थी

अब वह भोग-विलास की वस्तु या सजावट की सामग्री नहीं है  और न ही वह शारीरिक सुख का माध्यम है बल्कि वह अब अन्तः प्रेरणाओं का स्रोत है| अब वह रोमानियत में भी सामान रूप से सहभागी एवं समान आनंद की अधिकारिणी है | माथुर जी ने स्त्री को प्रसाद जी की भांति ‘नारी तुम केवल श्रद्धा हो’ के रूप में अपने काव्य में निरुपित नहीं किया है बल्कि उसे पुरुष के साथ मिलन और आनंद के बिंदु पर सकेंद्रित हो जाने वाली तरलता और जीवन की उर्जा के रूप में चित्रित किया है | माथुर जी ने नारी को केवल हमारी इन्द्रियों में संवेदना उत्पन्न करने वाली नहीं मानते बल्कि वह पुरुष को मृत्यु से संघर्ष करने की शक्ति प्रदान करने की एक मूर्त दीप्ति है |

जैसे –

“शक्ति दो मुझको, सलोनी, प्यार से

लड़ सकूं मैं मौत की ललकार से |”4*

कवि गिरिजाकुमार माथुर प्रेम के सौन्दर्य का चित्रण सुनहरे ढंग से करते हैं | वे प्रिया के प्रति विशेष अनुरक्त है | उसके रूप और सौन्दर्य के आकर्षण ने कवि के तन-मन पर जादू कर रखा है | उसका आगमन कवि एकान्तिक और नीरस जीवन में सरसता का समावेश करता है

जैसे –                  “तुम मेरे शरीर पर काले जादू की तरह छा गयी हो

तुम्हारी देह मेरे भीतर ताल देती है

किसी जंगली गीत की बहती हुई

अजनबी लय की तरह लगातार

********************

तुम मेरे रंगहीन जन्म के अकेलेपन में

एक बाहरी फूल की तरह लग गयी हो

मेरे शब्दों की खुशबू

तुम्हारी बांहों में लिपटती गंध है |”5*

माथुर जी मूलतः रंग, रस और रोमांस के कवि कहे जाते हैं | उनके काव्य के मूल में रोमानी तत्व मौजूद है | कवि ने एक ओर जहाँ इस तत्व के स्थूल रूप एवं बाहय सौंदर्य का चित्रण किया है वहीँ  दूसरी ओर उसके  अन्तः सौन्दर्य को भी प्रमुखता से स्थान दिया है और उसको चित्रण करने में किसी भी प्रकार की अश्लीलता का प्रभाव नहीं पड़ता | उनकी कविता निर्मल, और पावन है जो पाठक को अपनी ओर एकाएक आकर्षित करती है |

कवि अपनी प्रेमिका के भोलेपन पर सर्वस्य समर्पित है , जिसका चित्रण कवि ने अपनी कविता ‘अभी घूम रही है रात’ में इस प्रकार किया है –

“आज तेरा भोलापन चूम

हुई चूनर भी अल्हड़ प्रान

हुए अनजान अचानक ही

कुसुम से मसले बिखरे साज”6*

कवि अपनी प्रेयसी के भोलेपन और लज्जा से भरी आँखों और उसके चेहरे की मुस्कान को बार-बार याद करता है|

कवि गिरिजाकुमार माथुर ने प्रेम के आलंबन को विशेष रूप से रूपायित किया है | कवि ने स्वयं कहा है – “जीवन के सुन्दर, मधुर, मांसल, उष्म, कमनीय तथा प्रगाढ इंद्रिय अनुभवों को व्यक्त करने के लिए मैंने अपनी कविता में अपने संवेदनात्मक व्यक्तित्व को मुक्त रूप से उड़ेल दिया है |*********** लेकिन मेरी प्रेम और सौन्दर्य सम्बन्धी कविताओं में रीतिकालीन श्रृंगारिकता, रूप-रसकुलता, वासना, रुग्ण विलासिता या मात्र देह-रस नहीं है | उनमें पारिवारिक प्रेम, प्रणय, ममता और स्वस्थ ऊष्मा की अभिव्यक्ति हुई है जो मनुष्य को शक्ति और सामर्थ्य देती है |” 7* इन्होने प्रेम के प्रति जो कवियों का दृष्टिकोण था उसको मार्क्स और फ्रायड के विचारों का प्रभाव न मानकर बल्कि भारतीय मानसिकता की उपज माना है |

गिरिजाकुमार माथुर जी के काव्य में सभी जगह प्रणय-चित्रों का चित्रांकन किया गया है | यहाँ आँखों में लज्जा, दीपक का सारी रात जलना, ठीक से रात को सो न पाना और प्रातःकाल प्रतिदिन की अपेक्षा जल्दी जागना आदि मिलन बेला की ओर इंगित करता है | उनके इन्हीं चित्रों को देखकर डॉ. नगेन्द्र ने कहा है – “यह श्रृंगार न तो भूखे तन और भूखे मन का आहार है और न किसी अदृश्य आलंबन के साथ कल्पना-विहार है | कवि ने जीवन की मधुर भावना को बड़े ही हल्के हाथों से किन्तु पूरी गहरे के साथ, बिंबित करने का सफल प्रयास किया है|” 8*

कवि माथुर ने जहाँ प्रेम के संयोग पक्ष को उल्लास, तीव्र आसक्ति के साथ उसका कुशल अंकन किया है वहीं प्रेम के दूसरे वियोग पक्ष का भी मार्मिक वर्णन किया है| माथुर जी ने संयोग के मादक, माँसल तथा स्थूल चित्रों को जितनी कुशलता के साथ प्रस्तुत किया है उतनी ही बेहतरीन ढंग से वियोग की लकीरों को चित्रित किया है | उनकी पीड़ा का यह स्वर उनकी प्रारंभिक रचनाओं मंजीर, नाश और निर्माण, और धूप के धान में मुख्य रूप से उजागर हुई है|

प्रेम के दोनों पक्षों का एक क्रम चलता है जिस प्रकार दिन और रात्रि का क्रम चलता है उसी प्रकार प्रेम में एक समय तक संयोग की धारा बहती है उसके पश्चात वियोग की धारा | ठीक उसी प्रकार माथुर जी के संयोग के मधुर क्षणों के समाप्त होते ही कवि का मन प्रिय विछोह की व्यथा से उद्धिग्न हो उठता है | और उस असीम पीड़ा ही स्वतः शब्दों में विस्फुटित होकर कविता का रूप धारण कर लेती है और यह कवि का रुदन भी गान बन जाता है | इसी पर छायावाद के प्रकृति के सुकुमार कवि पन्त जी ने सत्य ही कहा है कि “वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान|” ठीक उसी प्रकार माथुर जी ने अपने रुदन को गीत के रूप में लिखना आरम्भ कर देते हैं –

“विदा समय क्यों भरे नयन हैं

अब न उदास करो मुख अपना

बार-बार- फिर कब है मिलना,

चलते समय उमड़ आये इन पलकों में जलते सावन हैं

मेरे गीत किन्हीं गालों पर रुके हुए दो आसूंकन हैं |”9*

‘मंजीर’ में उनके रोमांटिक भाव की कविताओं की छाप मिलती है | जिसमें सूक्ष्म सौन्दर्य बोध उपस्थित है | दूसरा काव्य-संग्रह ‘नाश और निर्माण’ में रोमांटिक भाव का थोडा ह्रास दिखाई देता है और जीवन के यथार्थ को कविता के माध्यम से निरुपित करने का प्रयास किया गया है | यह सच है कि गिरिजाकुमार माथुर प्रेम और सौन्दर्य के कवि हैं ठीक उसी प्रकार जैसे निराला प्रेम के कवि हैं | उन्हें देह का रस-रंग और रूप बेहद आकर्षित करता है | यह दो कारणों से हो सकता है पहला उम्र का प्रभाव और दूसरा श्रृंगारिकता का प्रभाव | छायावाद के कवियों ने अपनी कविताओं में प्रेम के अमांसल रूप का चित्रण किया है जबकि माथुर जी ने उस छायावादी अमांसलता के विपरीत प्रेम के मांसल रूप का चित्रण किया है माथुर जी देह को छूते, टटोलते, मसलते और भोगते हैं –

जैसे –                                         “तुम्हारे आते ही

मेरे कमरे का रंग गोरा हो जाता है

हर आईने का चेहरा

प्यारा हो जाता है

हर चीज पर पड़ता अक्स

तेज हो जाता है

हर मामूली शब्द

मुस्कराहट बन जाता है|”

माथुर जी प्रेम के संबंध में अपनी कविताओं में लिखते हुए कहते हैं कि प्रेम के लिए कोई उम्र, जाति और समय की कोई पाबंदी नहीं होती है | यह उम्र के किसी भी पड़ाव में किसी भी व्यक्ति से किया जा सकता है | प्रेम में एक ऐसा आकर्षण होता है जिसके प्रभाव में ऐसी शक्ति है कि इसे पाकर व्यक्ति अपने जीवन अधिक रंगीन, मादक एवं जीवन में और संघर्ष की क्षमता को विकसित कर लेता है | जीवन का मूल आधार प्रेम है इसका अंदाजा मनुष्य को उम्र के बढ़ते हर पड़ाव पर महसूस होता है | जीवन के अन्य सभी सम्बन्ध झूठे पड जाते हैं परन्तु प्रेम चिर काल तक जीवित रहता है –

“अब मैंने जाना

उम्र के हर चरण पर

कितने फरक नमूनों में

यह मन सतरंग हो जाता है

कैसे हर निकष झूठा पड़ता है

सिर्फ प्यार रह जाता है

कैसे छोटा-सा मोह

बड़ा सत्य बन जाता है|”10*

निष्कर्ष:-

गिरिजाकुमार माथुर जी के काव्य को देखने से यह ज्ञात होता है कि उनका अधिकाशतः काव्य प्रेम और उसके सौन्दर्य की भूमि पर पल्लवित होकर पुष्पित हुआ है | जीवन के मधुर पक्ष से सम्बंधित अन्तरंग अनुभूतियों को भी उन्होंने अत्यंत कुशलता के साथ चित्रित किया है | उनके सौन्दर्य चित्रण में यौन कल्पनाओं के दर्शन होते हैं जैसे – चुम्बन, आलिंगन, मिलन के मार्मिक चित्र उनके काव्य में कहीं-खिन दिखाई देते हैं | माथुर जी के कविताओं में प्रेम और उसकी सरसता को देखते हुए निराला जी  ‘मंजीर’ काव्य-संग्रह की भूमिका में कहते हैं – “श्री गिरिजाकुमार माथुर निकलते ही हिंदी की निगाह खींच लेने वाले तारे हैं|” 11*

सन्दर्भ ग्रंथ  –

  • नाश और निर्माण, गिरिजा कुमार माथुर, पृ०- 62
  • नयी कविता : सीमाएं और संभावनाएं, गिरिजा कुमार माथुर, पृ०-84
  • नयी कविता : सीमाएं और संभावनाएं, गिरिजा कुमार माथुर, पृ०-11
  • – धूप के धान, गिरिजा कुमार माथुर, पृष्ठ – 93
  • भीतरी नदी की यात्रा, माथुर, भूमिका, पृष्ठ – 8
  • – मुझे और अभी कहना है, माथुर, पृष्ठ -4
  • गिरिजाकुमार माथुर की काव्य-यात्रा: मुझे और अभी कुछ कहना है , माथुर, पृष्ठ – 37
  • आज के लोकप्रिय हिंदी कवि माथुर : डॉ. नगेन्द्र, पृष्ठ-28
  • मंजीर, गिरिजाकुमार माथुर, पृष्ठ -45
  • भीतरी नदी की यात्रा – गिरिजा कुमार माथुर, पृष्ठ -81
  • मंजीर, गिरिजा कुमार माथुर, भूमिका-निराला, पृष्ठ – 4

सुदेश कुमार
शोधार्थी
हिंदी-विभाग
दिल्ली विश्वविद्यालय