शोध-सार :

अपने मूल स्थान से अलग किसी अन्य स्थान पर जाकर बसने वाला व्यक्ति ‘प्रवासी’ कहलाता है। नए स्थान पर बसने के दौरान प्रवासी व्यक्तियों को कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। प्रवास के दौरान पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों को कई स्तरों पर संघर्ष झेलना पड़ता है। दक्षिण एशियाई समाज के विशिष्ट संदर्भ में देखें तो हम पाएँगे कि स्त्रियों का प्रवास स्वेच्छा से न होकर विस्थापन और निर्वासन के रूप में हुआ है। अधिकांश स्त्रियाँ विवाह के पश्चात् अपने पति के साथ विदेश प्रवास के लिए जाती हैं जहाँ व्यक्तिगत चयन की स्वतंत्रता से अधिक घर बसाने का सामाजिक दबाव होता है। उषा प्रियंवदा की नायिकाएँ भी ऐसी ही समस्याओं से जूझती हुई अपने जीवन रूपी गाड़ी को खींचती हैं। एक विशेष बात जो उनकी नायिकाओं में दिखाई पड़ती है वह है उनका व्यक्तित्वान्तरण। तमाम तरह के संघर्ष झेलने के बावजूद हार न मानते हुए वे सभी स्व को पहचानकर अपने जीवन में आगे बढ़ती हैं।

बीज शब्द : प्रवास, प्रवासी स्त्रियाँ, संघर्ष, मोहभंग, अस्मिता और अस्तित्व।

         प्रवासी हिंदी साहित्य में उषा प्रियंवदा का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। अमरीकी साहित्य पर शोध-कार्य करने और वहीं बसने के कारण उषा प्रियंवदा का जीवनानुभव और सृजनात्मक आयाम विस्तृत और व्यापक हुआ है। वे दोनों संस्कृतियों की मुक्त भुक्ता रहीं हैं। उनकी रचनाओं में भारतीय और पाश्चात्य संस्कृति का यथार्थ चित्रण दिखाई पड़ता है। परिवेश के बदलने के साथ ही भावभूमि और चिंतन में भी परिवर्तन होना लाज़मी है। उनके लेखन की भावभूमि में स्पष्ट तौर पर प्रवासी मनःस्थिति का वर्णन इस बात का प्रामाणिक दस्तावेज है। विदेश प्रवास के दौरान ही उन्होंने विविध देशों की यात्राएँ की और वहाँ रह रहे भारतीय और विदेशी पात्रों की मनःस्थितियों का सूक्ष्म निरीक्षण करके अपनी कहानियों में अनुभूत सत्य की प्रामाणिक अभिव्यक्ति दी।

उषा प्रियंवदा ने अपने कथा साहित्य में मुख्य रूप से मध्यवर्गीय स्त्रियों की समस्यायों को उठाया है। वे लिखती हैं- “मेरी चेतना और अनुभूति मध्यम वर्ग नारी जीवन में केंद्रित रही है और मेरी कहानियाँ उसी के चित्रण तक सीमित है। मैंने उसकी अनेक समस्याओं, उसकी मौन, व्यथा, विवशता, निराशा और फ़्रस्ट्रेशन्स को वाणी देने का प्रयास किया है। मेरी कहानियों में नारी दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से उभरता है।”[1] उषा प्रियंवदा का कथा साहित्य स्त्री जीवन की त्रासद स्थितियों का ऐसा प्रामाणिक दस्तावेज है जो अपने समाज की नग्न तस्वीर को बिना तोड़े-मरोड़े यथार्थ रूप में सामने रखता है। उनके कथा साहित्य में एक बात जो विशेष रूप से उल्लेखनीय है, वह है स्त्री का व्यक्तित्वान्तरण। स्त्री किस प्रकार अपनी दारुण नियति से संघर्ष कर समाज में खुद को स्थापित करती है यह क्रमवार तरीके से उनकी रचनाओं में दिखाई पड़ता है। उनकी पहली रचना दूसरी रचना की पृष्ठभूमि के रूप में दिखाई पड़ती है।

उषा प्रियंवदा कृत ‘पचपन खम्बे लाल दीवारें’ उपन्यास को छोड़कर शेष उपन्यास  प्रवासी जीवन पर केंद्रित हैं। उनके सभी उपन्यासों में अमरीकी परिवेश और उस परिवेश में ‘फिट’ और ‘मिसफिट’ होते प्रवासी भारतीयों की कहानियाँ हैं। उनका पहला प्रवासी जीवन पर आधारित उपन्यास है ‘रुकोगी नहीं राधिका’। राधिका शिक्षित, आधुनिक व आत्मकेंद्रित लड़की है। माँ की मृत्यु के पश्चात् उसके पिता कम उम्र में विद्या से दूसरा विवाह कर लेते हैं, जिसे राधिका स्वीकार नहीं कर पाती। माँ की मृत्यु के बाद अठारह वर्ष तक वह पिता के ‘खाली क्षणों की संगिनी, पूरे जीवन की धुरी थी’। वह यह बात बर्दाश्त नहीं कर पाती और अपने पिता का घर छोड़कर उनसे बदला लेने की भावना से अपने से उन्नीस वर्ष बड़े पत्रकार डेन के साथ फाइन आर्ट्स में डिग्री लेने अमरीका चली जाती है। अमरीका पहुँचकर वहाँ की चकाचोंध ग्लैमर और संबंधों में खुलेपन को देखकर उसे झटका लगता है। डेन के साथ एक वर्ष साथ रहने के बाद जब वह उससे अलग होती है तो उसका भारतीय मन उस पर हावी हो जाता है- “दुख, खेद, रुलाई, आत्मभर्त्सना का एक भारी ढेर हृदय पर रखा हुआ था और ओंठ भिचे हुए।’’[2] पढ़ाई पूरी करने के पश्चात् जब वह भारत लौटती है तो उसे फिर झटका लगता है। उपन्यास के फ्लैप पर लिखा है– “यह उपन्यास प्रवासी भारतीयों की गहरी मानसिकता में गहरे उतरकर बड़ी संवेदनशीलता से परत-दर-परत उनके असमंजस को पकड़ने का सार्थक प्रयास है। ऐसे लोग जो जानते हैं कि कुछ साल विदेश में रहने पर भारत में लौटना सम्भव नहीं होता पर यह भी जानतें हैं कि सुख न वहाँ था न यहाँ है। स्वदेश में अनिश्चतता और सारहीनता का एहसास, वापसी पर परिवार के बीच होने वाले अनुभव विदेश में पहले ‘कल्चरल शॉक’ और स्वदेश में लौटने पर ‘रिवर्स कल्चरल शॉक’ से गुजरती नायिका को कुछ और करने पर बाध्य कर देता है: ‘मेरा परिवार, मेरा परिवेश मेरे जीवन की अर्थहीनता और मैं स्वयं जो होती जा रही हूँ, एक भावनाहीन पुतली-सी।”[3] प्रवासी व्यक्ति के जीवन की यही विडंबना है न तो वह पूरी तरह अपने देश का हो पाता है और न अपनाये हुए देश का। वह दो संस्कृतियों के पाटों में पिसकर रह जाता है। राधिका भी स्वयं को दो भिन्न संस्कृतियों के बीच पिसता हुआ पाती है। सलमान रश्दी प्रवास की पीड़ा के बारे में लिखते हैं- “But, I too, have ropes around my neck, I have them to this lay, pulling me this way and that, East and West, the nooses tightening, commanding, choose, choose. I buck I snort, I whiny I kick.”[4] अपने घर-परिवार से हज़ारों किलोमीटर दूर जा चुकी लेखिका ने राधिका के माध्यम से कहीं न कहीं अपनी पीड़ा, अपने अकेलेपन को अभिव्यक्त किया है। राधिका अकेलेपन, अजनबीपन का भारी बोझ लिए यह सोचने पर मजबूर हो जाती है कि “वह अपने परिवेश का भाग नहीं रही, वह यहाँ रहते हुए भी निर्वासिता है। उसका जीवन निरुद्देश्य यात्रा है.. पर वहाँ तो भिन्न परिवेश था ही, एक भिन्न संस्कृति वहाँ पार्थक्य की भावना बहुत सहज और स्वाभाविक थी। स्वदेश लौटकर स्वजनों के मध्य शायद उसके अंदर का यह हिमखण्ड पिघल जाए, पर ऐसा सम्भव नहीं लगा।”[5] अपने परिवार के बीच होते हुए भी खुद को अलग और अजनबी महसूस करना कितना पीड़ादायक है यह महसूस किया जा सकता है। ऐसी ही पीड़ा और अकेलेपन  का अनुभव ‘वापसी’ कहानी के गजाधर बाबू ने भी किया था।

भारतीय परिवेश में व्याप्त संस्कृति की विविधता के बीच स्त्री स्वयं को बंधनो में जकड़ा हुआ पाती है और नए परिवेश में पहुँचकर उत्प्रवासन उसकी समस्याओं को और अधिक जटिल बना देता है। दक्षिण एशियाई समाज के विशिष्ट संदर्भो में देखने पर हम यह पाएँगे कि पुरुष का प्रवासन तो ऐच्छिक रूप में हुआ लेकिन स्त्रियों का प्रवासन अधिकांशतः निर्वासिता के रूप में ही हुआ। बहुत सारी स्त्रियाँ विवाह के पश्चात् अपने पति की अनुगामिनी बनकर विदेश पहुँची हैं। व्यक्तिगत चयन की स्वतंत्रता के अभाव में, घर परिवार संभालने व वैवाहिक संबंधों को बचाने के बोझ तले दबी औरत जब विदेश पहुँचती हैं तो किस तरह की समस्याओं से गुजरती होंगी इसका अनुमान लगाया जा सकता है। ‘शेषयात्रा’ और ‘अंतर्वंशी’ की नायिका विवाह के पश्चात् ही अमेरिका पहुँचती हैं। नयी संस्कृति और परिवेश में स्वयं को अकेला पाते हुए ये स्त्रियाँ अपने पति की अनुगामिनी बनकर रहना चाहती हैं परन्तु समय बीतने के साथ ये स्त्रियाँ अपनी अस्मिता और अस्तित्व के बारे में विचार करती हुई दिखाई पड़ती हैं। ‘शेषयात्रा’ उपन्यास में एक परित्यक्ता स्त्री की कहानी है जो सामर्थ्यहीनता के केंचुल को उतारकर अपनी पहचान नए सिरे से गढ़ती है। उपन्यास की नायिका अनु का विवाह विदेश में रहने वाले संभ्रांत परिवार के लड़के प्रणव से तय होता है जो पेशे से डॉक्टर होता है। विवाह के पश्चात् अनु प्रणव के साथ अमरीका जाती  है और अपने पति के आश्वासन ‘मैं तुम्हें रानी बनाकर रखूँग।‘ से बहुत खुश होती है और आँख बंद कर उस पर भरोसा कर अपना जीवन व्यतीत करने लगती है। लेकिन धीरे- धीरे प्रणव अनु को तंज कसने लगता है तब अनु सोचती है “जो जिम्मेदारी प्रणव ने पकड़ाई थी, जो भूमिका दी गयी थी, वही निभा रही थी। खाना बनाना, घर साफ़-सुथरा रखना, प्रणव की पोजीशन के अनुसार कपड़े पहनना, पार्टियों में चुपचाप मुस्कुराते रहना’’[6] पश्चमी समाज में रहते हुए आखिर वह कब तक स्वयं को उस समाज से असंपृक्त रख सकती थी। अनु को जब प्रणव की दूसरी स्त्रियों से संबंध रखने की सच्चाई पता चलती है तो वह पूरी तरह टूट जाती है। प्रणव चन्द्रिका के लिए अनु को तलाक देता है और यहाँ से शुरू होता है अनु का संघर्ष। अनु की दोस्त दिव्या और उसका पति उसकी मदद करते हैं। प्रणव की यादों से निकलकर वह अपने बारे में सोचती है और १० वर्ष बाद प्रणव से अलग होकर स्वयं का मूल्यांकन करती है ‘’दस सालों के वियोग ने उसे निखारा है, तोड़ा नहीं। जिस पगली सी बौराई लड़की को वह छोड़कर चला गया था, वह यही है ? प्रखर मौन स्थिर।”[7] बहुत संघर्ष के बाद जब वह डॉक्टर बनती है और अपने स्व को पा लेती तो कहती है ‘’मैं हूँ अनु, अपने में तुष्ट, अपने स्वत्व-बोध में सुखी, अपने सुख-दुःख में अकेली, अपने में स्वाधीन।”[8] निर्मला जैन ‘शेषयात्रा’ उपन्यास के बारे में लिखती हैं, ‘’इस उपन्यास का प्रमुख कथ्य है – स्त्री के सशक्तीकरण और आत्मविश्वास के अर्जन की कथा । इस प्रस्थान बिन्दु के साथ अमेरिकन वस्तुस्थितियों का प्रवासी भारतीयों द्वारा सहज स्वीकार, स्त्री चरित्रों के विविध रूप, स्त्री-पुरुष सम्बन्धों के विदेशी मॉडल की स्वीकृति, कुल मिलाकर उस दूर-देश में प्रवासी भारतीयों की आचार-पद्धति सबका खाका खींचता है यह उपन्यास।‘’[9] उषा प्रियंवदा ने अपनी नायिकाओं को अबला से सबला बनते हुए दिखाया है।

उषा प्रियंवदा ने पश्चमी समाज की सच्चाई को जिस रूप में देखा उसी रूप में चित्रित किया। उनके सभी उपन्यासों में यौन संबंधों को खुले तौर पर चित्रित किया गया है। उषा जी ने सम्बन्धों के खुलेपन को न केवल चित्रित किया बल्कि उसे स्वीकृति भी दी। वाटरमैन द्वारा अनु से यह कहना “प्रणव तुम्हारे लायक नहीं है।  तुम बहुत स्वीट, बहुत भोली हो। तुम प्रणव के साथ सुखी नहीं हो, यह मुझे देखते ही समझ में आ गया।.. जिस दिन से तुम्हें देखा है मैं इस बात के लिए तड़प रहा हूँ। मुझे मालूम है कि तुम्हारे जैसी सुंदर लड़की केवल एक आदमी से संतुष्ट नहीं रह सकती। मैं उम्र में बड़ा जरूर हूँ मगर…”[10] इस प्रकरण से अनु को पश्चमी परिवेश से दूसरा धक्का लगता है कि कैसे कोई दूसरे की पत्नी से इस तरह शारीरिक संबंध बनाने का आग्रह कर सकता है। कालांतर में अनु का मानसिक द्वंद्व कई स्तरों पर चलने लगता है। अमेरिकी समाज में सम्बन्धों का खुलापन बहुत सहजता से स्वीकार्य है लेकिन भारतीय समाज में आज भी सम्बन्धों के खुलेपन के बारे में सुनकर लोगों के कान खड़े हो जाते हैं। इसी संदर्भ में निर्मला जैन ने लिखा है- “सम्बन्धों की यह तदर्थ व्यवस्था, रोज़मर्रा की ज़िंदगी की व्यवहारिक सुविधाओं के लिए कायम किये जाने वाले अस्थायी संबंधों की यह दुनिया, कम-से-कम उस समय तक भारतीय जीवन में आचरण का सहज-स्वीकार्य नहीं था।”[11]

उषा प्रियंवदा का ‘अन्तर्वंशी’ उपन्यास उन तमाम भारतीय परिवारों की जीवन-शैली का विश्लेषण करता है जो बेहतर अवसरों की तलाश और आशा में प्रवासी हो जाते हैं। विदेश में बसे युवकों से मध्यवर्गीय परिवारों की कन्याओं का विवाह सौभाग्य समझा जाता रहा है और फिर यहीं से शुरू होता है संघर्ष और मोहभंग का अटूट सिलसिला। बनारस की वनश्री भी विवाह के पश्चात् अपने पति का दामन पकड़कर अमरीका पहुँचती है। अपने प्रवास के शुरूआती दिनों में वाना भौतिकतावादी समाज में कभी फिट तो कभी मिसफिट होती जैसे-तैसे अपना जीवन व्यतीत करती है। आदिम प्रकृति के अनजाने प्रवाह में खिंचकर वह अपने पति शिवेश के बच्चों की माँ बनती है; वात्सलमयी माँ बनकर सुखी भी रहती है। एक सदगृहणी की भाँति अपने परिवार का ध्यान रखना अपना कर्तव्य समझती है किन्तु उसके जीवन में जो आभाव है वह उसके मन को बेचैन करता है। केवल पति और बच्चों के प्रति समर्पित स्त्री के रूप में रहना आसान नहीं होता। स्त्री का सारतत्व में प्रभा खेतान ने लिखा है “विचारों की दुनिया में पुरुष की स्थापना व्यक्ति के रूप में हुई है और स्त्री की वस्तु के रूप में। इसी कारण स्त्री अपने संदर्भ के बदले पुरुष के संदर्भ में परिभाषित होती रहती है। स्त्री का होना महज आकस्मिक घटना की तरह मान लिया गया है। पुरुष व्यक्ति के रूप में सम्पूर्ण है। स्त्री तो बस अन्या है।”[12] वाना भी स्वयं को अन्या महसूस करती है। उसके भीतर कई सवाल उठते हैं वह खुद से प्रश्न करती हैं, “कौन हूँ मैं ? क्या पत्नी और माँ के परे भी कोई पहचान होती है ? उसके लगता है कि “कपड़ों की धुलाई-झाडू, बिस्तर लगाना, दाल-चावल बनाना। यही है चुनमुन पाण्डेय वनश्री मिशिर की पहचान। उसका अस्तित्व।”[13] वाना के जीवन में बदलाव आता है जब वह शालिनी और सारिका में मिलती है। उनसे प्रभावित होकर वाना आगे पढ़ाई करती है, गाड़ी चलाना सीखती है, सेक्रेटरी का कोर्स करती है और मकान बेचने वाली एजेंसी के साथ काम भी करती है। स्त्री चेतना और अस्तित्व बोध के कारण ही शिवेश को छोड़कर जीवन में आगे बढ़ने का निर्णय करती है। लेखिका ने प्रवास में तलाकशुदा औरतों की दशा को अंजी के चरित्र द्वारा चित्रित किया है “अंजी को रोटी कमानी है। वह घंटों, लहंगों और सलवारों, कुर्तों पर जरी का काम काम करती है, एक-एक मोती और सितारा हाथ से टाँकती है। बिजली-पानी किश्तें सब बिल भरती है। शाम का खाना बनाती है और पढ़ भी रही है।”[14] परिस्थितियों से हार ना मानते हुए, एकाधिक स्तरों पर जीते हुए वाना और अंजी दोनों प्रवासी स्त्रियाँ अपने ‘स्व’ को पहचानकर अपने व्यक्तित्व को निखाकर विदेशी भूमि पर अपनी पहचान बनाती हैं और अपने ठहरे हुए जीवन को गति देती हैं।

वरिष्ठ आलोचक रविरंजन औरत की मुक्ति के संदर्भ में लिखते हैं– “ज़िंदगी की जद्दोजहद से रोज़-ब-रोज़ दो चार होती औरत सारी उधेड़बुन के बावजूद अंततः उस मुख्य मुद्दे पर बात करने के लिए बेचैन रहती है जिसका सम्बन्ध उसकी मुक्ति से है।”[15] उषा प्रियंवदा की नायिकाएँ मुक्ति के लिए जद्दोजहद करती हुई दिखाई पड़ती हैं। राधिका, अनु और वाना के प्रसंगों में यह भली भाँती दिखाई पड़ता है। उषा प्रियंवदा ने प्रमुख रूप से स्त्री-पुरुष सम्बन्धों को लेकर ही रचना की है । स्त्री-पुरुष संबंधों में प्रेम के विविध पक्षों में स्वछंद, आत्मनिर्भर स्त्री के प्रेम के परिवर्तित स्वरूप, उसके बदलते सम्बन्ध, अकेलापन, उदासी, के साथ-साथ भारतीय मन और विदेशी परिस्थितियों का द्वंद्व, स्त्री का जीवन संघर्ष, स्त्री की अविकसित, अप्रस्फुटित, अव्यवहारिकता से सजग, चेतनशील बनने तक की यात्रा को उनके कथा-साहित्य में देखा जा सकता है। लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय जी के शब्दों में – “आधुनिक मध्यवर्गीय परिवारों की क्या स्थिति है, उनकी मान्यताएँ किस सीमा तक परिवर्तित हुई है और मूल्य-मर्यादा किन विषमताओं और विकृतियों के कारण खण्डित हो रही हैं और उस परिवेश में तथाकथित आधुनिक नारी अपनी उच्च शिक्षा एवं अस्तित्व-रक्षा की भावना से ओत-प्रोत किस प्रकार मिसफिट है- उषा प्रियंवदा ने अपनी कई कहानियों में इसका बड़ा ही यथार्थ और सजीव चित्रण किया है।”[16]

निष्कर्षतः कहा जा सकता है प्रवासी जीवन के मधुर-तिक्त अनुभवों की दास्तान हैं उषा प्रियंवदा की रचनाएँ जो पाठकों को बहुत गहराई तक उद्वेलित करती है। भारतीय प्रवासी कामकाजी स्त्री का जीवन संघर्ष, प्रवास से जुड़ी समस्याएँ, स्त्री अस्मिता और अस्तित्व से जुड़े प्रश्नों को लेखिका ने अपनी रचनाओं में उठाया है

संदर्भ सूची-

१. सत्यप्रकाश मिलिंद (संपा), हिंदी की महिला साहित्यकार, रूपकमल प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण, १९६०, पृष्ठ ३९

२. उषा प्रियंवदा: रुकोगी नहीं राधिका, राजकमल प्रकाशन पृ. 30

३. वही फ्लैप से

४. Sulman Rushdie: East and West

५. उषा प्रियंवदा: रुकोगी नहीं राधिका पृ. २८

६. उषा प्रियंवदा: शेषयात्रा, राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ २७

७. वही पृ. ११५

८. वही पृ. १२९

९. निर्मला जैन: कथा-समय में तीन हमसफ़र राजकमल प्रकाशन पृष्ठ १४८

१०. उषा प्रियंवदा: शेष यात्रा, पृ. ३४

११. निर्मला जैन: कथा-समय में तीन हमसफ़र पृष्ठ १४९

१२. प्रभा खेतान: उपनिवेश में स्त्री, राजकमल प्रकाशन

१३. उषा प्रियंवदा: अंतर्वंशी, वाणी प्रकाशन, पृ. १४४

१४. वही पृ. १२७

१५. रविरंजन: आईना-खाना में कोई लिए जाता है (आलेख) समालोचन पत्रिका

१६. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय: आधुनिक कहानी का परिपार्श्व,  पृष्ठ 148

अन्य संदर्भ ग्रंथ – 

[1] सत्यप्रकाश मिलिंद (संपा), हिंदी की महिला साहित्यकार, रूपकमल प्रकाशन, पृष्ठ ३९

[2] उषा प्रियंवदा: रुकोगी नहीं राधिका, राजकमल प्रकाशन पृ. 30

[3] वही फ्लैप से

[4] Sulman Rushdie: East and West

[5] उषा प्रियंवदा: रुकोगी नहीं राधिका पृ. २८

[6] उषा प्रियंवदा: शेषयात्रा, राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ २७

[7] वही पृ. ११५

[8] वही पृ. १२९

[9] निर्मला जैन: कथा-समय में तीन हमसफ़र राजकमल प्रकाशन पृष्ठ १४८

[10] उषा प्रियंवदा: शेष यात्रा, पृ. ३४

[11] निर्मला जैन: कथा-समय में तीन हमसफ़र पृष्ठ १४९

[12] प्रभा खेतान: उपनिवेश में स्त्री, राजकमल प्रकाशन

[13] उषा प्रियंवदा: अंतर्वंशी, वाणी प्रकाशन, पृ. १४४

[14] वही पृ. १२७

[15] रविरंजन: आईना-खाना में कोई लिए जाता है (आलेख) समालोचन पत्रिका

[16] लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय: आधुनिक कहानी का परिपार्श्व,  पृष्ठ 148

शशि शर्मा

शोधार्थी

हैदराबाद विश्वविद्यालय