
तुलसी साहित्य में केवल रामकथाओं एवं रामस्तुति, ही प्रमुख है। सर्वाधिक प्रचलित रामचरितमानस के अतिरिक्त तुलसी साहित्य में विनय पत्रिका, गीतावली एवं दोहावली ही जनसाधारण के प्रचलन में है। शेष कृतियाँ रामभक्त हनुमान की स्तुति एवं उनके अनुपम कृत्यों के विषय में प्रचलित है।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में भगवान श्रीराम के विषय में कहा है।
सारद सेस महेस बिधि आगम निगम पुरान।
नेति नेति कहि जासु गुन करहि निरंतर गान।।
सो नयन गोचर जासु गुन नित नेति कहि श्रुति गावहीं।
जिति पवन मन गो निरस करि मुनि ध्यान कबहुँक पावहीं।। 1
सरस्वती जी, शिवजी, ब्रह्मा जी, शास्त्र, वेद और पुराण ये सब ‘नेति-नेति’ कहकर सदा जिनका गुणगान किया करते हैं। श्रुतियाँ, ‘नेति-नेति’ कहकर जिसका गुणगान करती हैं उन्हीं प्रभुराम की महिमा का मैं बखान करने जा रहा हूँ।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपनी रचनाओं में विशेषकर रामचरितमानस में राम और उनके नाम की महिमा को स्वयं तथा अन्य पात्रों कें मुख से भिन्न-भिन्न प्रकार से दर्शाया है। इसी को आधार बनाकर मैं प्रभुराम एवं नाम का महत्व बताने का प्रयास कर रहा हूँ। तुलसीदास जी का राम के प्रति प्रेम इतना गहन था कि उनके रोम-रोम में राम समा गये थे। यही कारण है कि वे राम की महिमा का गान करते-करते थके नहीं और न ही उनका मन भर पाया उन्होंने यहाँ तक कह दिया-
सपनेहुँ मैं बर्राहि के मुख से निकसे नाम।
वाके पग की पाँतुरी मेरे मन को चाम।।
कोई व्यक्ति यदि अनजाने में भी बेसुधी में भी राम का नाम ले ले तो तुलसीदास जी उसको कुछ भी अर्पण करने को तैयार है। ऐसी अनन्य भक्ति तभी पैदा होती है जब मनुष्य के अन्दर अपने आराध्य के प्रति श्रद्धा भक्ति और विश्वास पैदा हो जाता है। इसके लिए मनुष्य को स्वयं को पूर्ण रूप से अर्पित करना होता है। ऊपरी मन से राम-राम जपने से स्वयं को पूर्ण रूप से अर्पित करना होता है। ऊपरी मन से राम-राम जपने से न श्रद्धा उत्पन्न होती है न भक्ति। वह तो केवल दिखावा मात्रा होता है जब तक गंगा में डुबकी नहीं लगायेंगे तब तक शरीर गीला नहीं होता। केवल हर गंगे कहने से गंगा स्नान नहीं होता। इसके लिये गंगा में गोता लगाना होता है। निम्न मुक्तक पर ध्यान दें। यह यद्यपि संदर्भ से थोड़ा हट कर है किन्तु सारगर्भित है।
बिहरो बिहारी की बिहार वाटिका में चाहे
सूर की कुटी में अढ़ आसन जमाइये।।
केशव के कुँज के किलोल केलि कीजिये या।
तुलसी के मानस में डुबकी लगाइये।। 2
राम के नाम की महिमा का एक साक्षात् उदाहरण वाल्मीकि हैं। ऐसी कथा है कि वाल्मीकि प्रारम्भ में एक दस्यु थे। उन्हें मार्ग में नारद मिले और उन्होंने नारद से कहा कि जो कुछ है वह सब मेरे सुपुर्द कर दो। नारद ने कहा भैया मेरे पास तो एक यह तम्बूरा है जो तुम्हारे किसी काम नहीं आयेगा। तुम यह दुष्कर्म छोड़कर प्रभु राम के नाम को जपो तो तुम्हारे सारे पाप धुल जायेंगे। किन्तु हठी वाल्मीकि ने राम की जगह मरा-मरा का जाप प्रारम्भ कर दिया। किन्तु मरा-मरा
जपने से ही उनके ज्ञान चक्षु खुल गये और वे महर्षि वाल्मीकि होकर रामायण के रचयिता हुए। आदि कवि नाम से विख्यात हुए। ‘‘जान आदि कवि नाम प्रतापू। भयऊ सुद्ध करि उलटा जापू’’ तुलसीदास जी ने राम की जगह उनके नाम की वन्दना की है उसका महत्व और अर्थ बताया है।
बंदउँ नाम राम रघुबर को। हेतु कृसानु धातु हिमकर को।
बिधि हरि हरमय वेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधन सो।। 3
राम के नाम की वन्दना की गई है जो कृशानु (अग्नि) भानु (सूर्य) और हिमकर (चन्द्रमा) का हेतु अर्थात् ‘र’
‘आ’ और ‘म’ रूप से बीज है वह राम नाम ब्रह्मा, विष्णु और शिवरूप है। वह वेदों के प्राण है, निर्गुण उपया रहित समाया है। राम का एक नाम सहस्त्रा नामों के समान है। विद्वान, ऋषि-मुनि, भक्त, कवि अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार राम और उनके नाम का अपने विचार से सर्वश्रेष्ठ वर्णन करने का प्रयास करते हैं। प्रभु प्रेम सहित सुन कर सुख मानते हैं। यह राम का भक्तों के प्रति भाव है।
निरुपम न उपमा आन राम समान रामु निगम कहै।
जिमि कोटि सत खद्योत सम रबि कहत अति लघुता लहै।।
एहि भाँति निज निज मति बिलास मुनीस हरिहि बखानहीं।
प्रधु भाव गाहक अति कृपाल सप्रेम सुनि सुख मानहीं।। 4
क्योंकि उनकी महिमा, नाम, रूप और गुणों की गाथा अपार एवं अनंत है फिर भी अपनी-अपनी मति अनुसार उनके गुण गाये जाते हैं। वैसे ही मैं भी उनकी महिमा और नाम के गुणों का संकलन कर रहा हूँ।
महिमा नाम रूप गुन गाथा।
सकल अमित अनंत रघुनाथा।
निज निज मति मुनि हरि गुन गावहिं।
निगम सेष सिव पार न पावहिं।। 5
तुलसीदास जी ने राम के नाम को कल्पतरु और मुक्ति का घर बताया है। राम के नाम सुमिरन से ही तुलसी तुलसीदास बने ‘‘जो सुमिरत भयो भाँग ते तुलसी तुलसीदास’’। भगवान राम इतने कृपालु हैं कि कोई किसी भी भाव से उनके नाम का स्मरण करे सभी का परिणाम केवल कल्याण ही कल्याण होगा। ‘‘भाँय कुभाय, अनख आलस हूँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ’’।। प्रेम से करें, वैर से करें, क्रोध् से करें या आलस्य से करें। राम के नाम का कैसे भी स्मरण करें बस दसों दिशाओं में कल्याण ही कल्याण है।
राम के नाम को तुलसीदास जी ने सबसे बड़ा क्यों माना इसके लिये वे कहते हैं-
अगुन सगुन दुइ बृहम सरूपा। अकथ अगध् अनादि अनूपा।
मोरे मत बड़ नाम दुहू तें। किए जेहिं जुग निज बस निज बूतें।। 6
निर्गुण और सगुण दोनों ब्रह्म के दो रूप हैं। ये दोनों अकथनीय, अथाह एवं अनादि हैं। इनकी उपमा संभव नहीं। किन्तु नाम प्रत्यक्ष एवं सरल तथा उपलब्ध है। इसका स्मरण संभव है, अपने वश में है और इसी के बल पर राम के नाम ने निर्गुण एवं सगुण दोनों ब्रह्म रूपों को अपने वश में कर रखा है। इसीलिए राम का नाम राम से बड़ा है। उन्होंने सगुण
एवं निर्गुण को आगे और स्पष्ट किया है-
प्रौढि सुजन जनि जानहि जन की। कहँउ प्रतीति प्रीति रुचि मन की।
एकु दारुगत देखिअ एकु। पावक सम जुग ब्रह्म विवेकु।।
उभय अगम जुग सुगम नाम तें। कहेउँ नाम बड़ ब्रह्म राम ते।
व्यापकु एकु ब्रह्म अविनासी। सत चेतन धन आनंद रासी।। 7
सगुण एवं निर्गुण दोनों प्रकार के ब्रह्म का ज्ञान अग्नि के समान है। निर्गुण उस अप्रकट अग्नि के समान है जो काठ के अन्दर है किन्तु दिखाई नहीं पड़ती और सगुण उस प्रकट अग्नि के समान है जो प्रत्यक्ष दिखती है। दोनों में तत्व एक ही है केवल प्रकट एवं अप्रकट के कारण भिन्न दीख पड़ती है। दोनों जानने में कठिन है किन्तु नाम से दोनों सुगम हो जाते हैं। इसी कारण नाम को बड़ा माना गया है। क्योंकि नाम में दोनों समाहित हैं।
निर्गुण एवं सगुण की व्याख्या करते हुए एक और उदाहरण मानस में मिलता है। जो गुनरहित सगुन सोई कैसें। जलु हिम उपल बिलग नहि जैसे। कितनी सुन्दर उपमा है। जल और ओलों दोनों में कोई भेद नहीं। दोनों के समान गुण है एक तरल पदार्थ है दूसरा ठोस। केवल आकृति का भेद है। ओला भी पिघलकर जल का ही रूप लेता है और जल की विशेषता यह है कि उसे आप जिस बर्तन में भर देंगे वह उसी का रूप धरण कर लेता है। राम का नाम कोई किसी भी रूप में ले वह उसके लिये हर रूप में सुखदायी होती है।
राम ने विश्वामित्रा की आज्ञा पाकर ऋषि -मुनियों को कष्ट देने वाली ताड़का का वध किया। उसके पुत्र सुबाहू का संहार कर ब्राह्मणों को कष्ट से मुक्ति दिलाई। शिला समान पड़ी अहिल्या का अपनी पावन चरण रज से उद्धार किया। दलित शबरी को उसकी योनि से मुक्त किया। परस्त्राीगामी बाली का वध कर सुग्रीव का राज्याभिषेक किया। अमरत्व को प्राप्त खर और दूषण जो भयंकर राक्षस थे उनका वध कर उन्हें मुक्ति दिलाई। जटायु अन्त में उनका नाम लेकर परम धम को प्राप्त हुआ। मारीच ने चतुरतापूर्वक राम नाम लेकर मुक्ति पाई। रावण जैसा योद्धा महापंडित जो पापों के कारण राक्षस बना वह भी अन्त में राम के दर्शन कर प्रभु के धम को गया। इन सब में जो राक्षस अथवा दुष्ट भी थे वे भी अन्त समय में राम के नाम अथवा उनके दर्शन मात्रा से अपनी अधम योनि से मुक्त होकर भगवान के धाम को पहुँच गये। आज राम तो नहीं है किन्तु राम की अनुभूति है। राम का नाम हृदय से लेने पर राम स्वयं आ खड़े हुए हैं ऐसा अनुभव आप कर सकते हैं यदि आपकी राम में आस्था है। क्योंकि ‘‘जाकी रही भावना जैसी। प्रभु देखी मूरत तिन तैसी।
श्रीराम ने बाली का वध कर दिया। बाली ने राम से पूछा कि ‘‘अवगुन कथन नाथ मोहि मारा’’ श्रीराम ने उत्तर दिया ‘‘अनुज बधू भगिनी सुत नारी। सुन सठ कन्या सम ए चारीं। इन्हइ कुदृष्टि बिलोकई जोई ताहि बधे कछु पाप न होई।’’ बाली ने कहा प्रभु आपके समक्ष मेरी कोई चतुराई नहीं चली किन्तु अन्तिम काल में तो मैं यहाँ आपकी शरण में ही पड़ा हूँ फिर भी मैं पापी ही रहूँगा। राम ने बाली के शरीर को स्पर्श किया और कहा कि तुम कहो तो मैं तुम्हारे शरीर को अचल कर दूँगा। तुम जीवित रहोगे। बाली ने जो कहा सुनने योग्य है- ‘‘जन्म जन्म मुनि जतनु कराहीं। अन्त राम कहि आवत नाहीं।।’’ मुनि लोग जीवन भर घोर तपस्या करते हैं, भिन्न-भिन्न प्रकार के यत्न करते हैं कि प्रभु को पा लें फिर भी अन्तिम घड़ी में उनके मुख से राम नहीं निकलता और आज मेरे सौभाग्य से साक्षात् राम मेरी आँखों के सम्मुख खड़े हैं। ऐसा अवसर मैं खो दूँ और इस शरीर को धारण करके रहूँ यह तो मेरी बड़ी भारी मूर्खता होगी। ऐसा कौन होगा जो कल्पवृक्ष काटकर बबूल लगायेगा। ‘‘अस कवन शठ हठि काटि सुरतअ बारि करिहिं बबूरहिं’’ बाली जैसे दुष्ट व्यक्ति के अन्दर भी राम के दर्शन मात्रा से उच्च विचार पैदा हुए और जीवन का मोह छोड़ मृत्यु को वरण करना अपना सौभाग्य समझा और अन्त में यही वर माँगा कि ‘‘जेहि जोनि जन्मौ कर्म बस तँह राम पद अनुराग हूँ’’ राम ने बाली को परम पद दिया। यहाँ भी राम के नाम की महिमा उत्कृष्ट है।
गिद्धराज जटायु श्रीराम के पिता महाराज दशरथ के मित्र थे। जब रावण सीता का अपहरण कर विमान द्वारा लंका की ओर प्रस्थान कर रहा था तो जटायु ने उसे देखा और वह सीता की रक्षा के लिये रावण से भिड़ गये। किन्तु जब रावण ने तलवार से उनके पंख काट दिये तो वे असहाय होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। राम जब सीता को ढूंढते-ढूंढते विलाप करते वन में भटक रहे थे तो उनकी भेंट वहाँ जटायु से हुई। घायल शरीर एवं उनकी पीड़ा को देख राम ने उनके शरीर पर हाथ फिराया। जिससे उनकी सारी पीड़ा जाती रही। तब राम ने जटायु से भी यही कहा कि वे चाहें तो शरीर को बनाये रख सकते हैं। जटायु ने भी बाली की तरह वही बात कही।
जाकर नाम मरत मुख आवा। अधमउ मुकुत होइ श्रुति गावा।
सो मम लोचन गोचर आगें। राखों देह नाथ केहि खांगे।। 8
अन्तिम क्षणों में जिसमे समक्ष साक्षात् भगवान राम खड़े हों वह ऐसा अवसर कैसे छोड़ सकता है। अतः अब किस हेतु शरीर रखना है। पक्षी राज जटायु अत्यंत धर्मयुक्त दानी एवं ज्ञाता थे। वे राम के प्रताप से भली-भाँति परिचित थे।
श्रीराम की कृपा से जटायु को परम धम प्राप्त हुआ। इससे भी ‘‘जो राम मंत्र जपत संत अनंत जन मन रंजन।’’ कहकर जटायु ने राम की महिमा को उजागर किया है।
लंकापति रावण की मृत्यु के पश्चात् उनकी पत्नी मंदोदरी ने भी राम की महिमा को स्वीकार किया। वे विलाप करती हुई कहने लगी कि मेरे बार-बार कहने पर भी हे दशानन तुमने साक्षात श्रीहरि को मनुष्य करके जाना। शिव और ब्रह्मा भी जिन्हें नमन कर उनके नाम को भजते हैं उन्हें तुमने कभी नहीं भजा। तुम्हारा सारा जीवन द्रोह एवं पाप कर्मों में ही लिप्त रहा। इस सबके बाद भी निर्विकार ब्रह्मा स्वरूप श्रीराम ने तुम्हें अपने धाम भेज दिया है। मैं उन्हें नमस्कार करती हूँ। ‘‘तुम्हहू दियो निज धाम राम नमामि ब्रह्म निरामयं’’ मंदोदरी ने यहाँ भी राम के नाम के महत्व को बताया है।
‘‘जैहि नमत् सिव ब्रह्मादि सुर पिय भजेहु नहिं कअनामयं’’ अर्थात् प्रिय पति आपने राम के नाम को नहीं भजा।
यह वास्तविकता है कि राम की कृपा के बिना कुछ भी सम्भव नहीं। राम के नाम की महिमा जानने के लिये भी राम की कृपा चाहिए। सत्संग करेंगे तो विवेक होगा। विवेक होगा तो राम और उसके नाम की महिमा को जान पायेंगे और
यह सब राम की कृपा के बिना सम्भव नहीं।
बिनु सतसंग विवेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।। 9
इस विषय में और अनेक कवियों के मत हैं। विनय पत्रिका में कहा है- ‘‘बिनु विवेक संसार घोर निधि पार न पावहि कोई’’ हनुमान जी ने जब लंका में प्रवेश करना चाहा तो लंकिनी ने भी कुछ ऐसा ही कहा ‘‘तात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरिय तुला एक अंग। तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग।।’’ सारे संसार और स्वर्ग के सुख भी सत्संग की बराबरी नहीं कर सकते।
‘‘रामहि केवल प्रेम पियारा’’ राम बस प्रेम से ही बस में आते हैं। यहां तक कि ‘‘प्रेम से प्रकट होइ भगवाना’’ प्रेम भी राम की तरह अपरिमित है। इसे कोई बलात पैदा नहीं कर सकता। यह तो स्वयं ही पैदा होता है और जब पैदा होता है तो संसार की कोई शक्ति इस पर रोक नहीं लगा सकती। कृष्ण के ऊपर एक टी.वी. सीरियल का मुझे स्मरण आ रहा है जिसमें एक गीत था जिसकी पहली पंक्ति के बोल थे-
प्रेम की महिमा है न्यारी।
ढाई अक्षर प्रेम चारि वेदन पै धारी।।
दो पंक्तियों में ही प्रेम की व्याख्या कर दी। वेद भी प्रेम की संपूर्ण परिभाषा नहीं कर पाये। उसी प्रेम की बात हम कर रहे हैं जो सुगमता से न उत्पन्न होता है, न उपलब्ध होता है और जब हो जाता है तो राम मिलते है। उनके नाम में अथाह शक्ति होती है और उस नाम के सहारे हम प्रत्यक्ष राम तक पहुँचते हैं। अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करते हैं। सूफी एवं भक्त कवि कबीर ने ऐसा ही कुछ कहा है।
पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ भया न पंडित कोई।
ढाई अक्षर प्रेम का पढ़े सो पंडित होई।
प्रेम एक भाव है और भाव भावना से उत्पन्न होते है। भावना के लिये श्रद्धा भक्ति एवं विश्वास चाहिए और इन सबके लिये व्यक्ति को सत्संगति और स्वाध्याय की आवश्यकता होती है। रामचरितमानस एक ऐसा ग्रंथ है जिसके अध्ययन मनन से व्यक्ति के ज्ञान चक्षु खुलते हैं। उसका जीवन की वास्तविकता से साक्षात्कार होता है और फिर उसे केवल शीतलता का आभास होता है। उसके राममय होकर अपने सांसारिक जीवन में भी अपने कर्तव्यों के पालन करने में कोई बाधा नहीं आती। राम के भक्त को किसी आडम्बर की आवश्यकता नहीं होती। बस उसे राम नाम की गहराईयों में गोते लगाने होते हैं। एक बार वह राम को समझ लें, उसके नाम को समझ लें फिर और कुछ समझने की आवश्यकता नहीं रह जाती।
पुण्यं पापहरं सदा शिव करं विज्ञानंभक्तिप्रदं
मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम्।
श्रीमद्रामचरित्रामानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये
ते संसारपतड्गंघोरकिरण्यैर्दहयित्त नो मानवाः।। 10
श्री रामचरितमानस पुण्यरूप, पापों का हरण करने वाला, सदा कल्याणकारी, ज्ञान और भक्ति को देने वाला, माया, मोह और मल का नाश करने वाला, परम निर्मल, प्रेमरूपी जल से परिपूर्ण तथा मंगलमय ग्रंथ है। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इस मानसरोवर में गोता लगाते हैं वे संसार रूपी सूर्य की अति प्रचंड किरणों से भी नहीं जलते।
सरनागत बच्छल भगवानाः जो भी राम की शरण में आया कभी निराश नहीं हुआ। अन्तिम क्षणों में परमवीर बाली और जटायु भी उनकी शरण में आकर परम गति को प्राप्त हुए। शत्रु का भाई विभीषण जब राम की शरण में आये तो सुग्रीव ने शंका व्यक्त की-
जानि न जाय निसाचर माया। कामरूप केहिकारन आया।
भेद हमार लेन सठ आवा। राखिअ बाँधि मोहिअस भावा।। 11
लेकिन राम- सखा नीति तुम नीकि बिचारी। गम पन सरनागत मय हारी।
सुनकर हनुमान तो गदगद हो गये – सरनागत बच्छल भगवाना और राम यहीं नहीं रुके। उन्होंने कहा-
सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि।
ते नर पाँवर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि।। 5/43 12
अपनी अन्य रचनाओं में गोस्वामी जी ने राम की इन महानता का वर्णन कुछ इस प्रकार किया है-
कहा विभीषण लै मिल्यो कहा बिगारसो पालि।
तुलसी प्रभु सरनागतहि सब दिन आये पालि।।
तुलसी कोसलपाल सो को सरनागत पाल।
मज्यो बिधीकाण बंधु भय भंज्यो दारिद काल।। 13
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आरत-बन्धु, कृपालु, मृदुलचित जानि सरन हौं आयो।
तुम्हारे रिपु को अनुज विभीषण, भय भंज्यो दारिद काल।।
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बचन विनीत सुनत रघुनायक हंसि करि निकट बुलायो।
भैट्यो हरि धरि अंक धरत ज्यों, लंकापति मन भायो।। 14
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ऐसो को उदार जग माहिं।
बिनु सेवा जो द्रवै दीन पर राम सरिस कोऊ नाहि।
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जो संपति दस सीस अरप करि सिव पहिं लीन्हीं
सो संपदा विधीकाण कहँ अति सकुच-सहित हरि दीन्ही।। 15
सार यह है कि राम तक पहुँचने के लिये मनुष्य को रामचरितमानस के मानसरोवर में डुबकी लगानी होगी तभी राम और उनके नाम की महिमा का उसे ज्ञान होगा। तुलसी साहित्य में यहीं राम की महिमा है।
श्रीराम द्वारा किये गये उपरोक्त वर्णित सभी कार्यो में उनकी वीरता, दया, करुणा एवं क्षमा स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है। अन्तिम क्षणों में रावण ने भी श्री प्रभु के हाथों मृत्यु का वरण कर परम धाम पाया। श्रीराम ने लंका विजय के पश्चात् वहाँ की राक्षसी जनता को राक्षस योनि से मुक्त कर दिया और वे सामान्य जन की तरह लंका में निवास करते रहे।
बाली वध् एवं जटायु प्रकरण राम की उदारता एवं संवेदनशीलता का एक अनुपम उदाहरण है।
संदर्भ सूची
- रामचरितमानस 1/12 – गोस्वामी तुलसीदास कृत
- डॉ. हरिशंकर शर्मा द्वारा रचित
- रामचरित मानस – 1/18/1
- वही – 7/91;खद्ध/4
- वही – 7/90;खद्ध/2
- वही – 1/22/1
- वही – 1/22/2
- वही – 3/30/3-4
- वही – 1/2/4
- वही – 7/130 ख/2
- वही – 5/42/3-4
- वही – 5/43
- दोहावली – 159/160
- गीतावली सुंदरकांड पद 36
- विनयपत्रिका पद 162