गहराई से किए गए तुलसी काव्य के अवलोकन से यह चित्रित सत्य एकदम साफ हो जाता है कि तुलसी ने राम को चार रूपों में चित्रित किया है:- (1) निर्गुण ब्रह्म, (2) अवतार, (3) मानव तथा (4) प्रतीक।

निर्गुण ब्रह्म राम:— भारत की दर्शन अध्यात्म-परंपरा में सृष्टि- निर्माता और संचालक है- ब्राह्म जो इच्छा अनुकूल निर्गुण और सगुण रूप धारण कर लेता है। ब्रह्मा का नित्य-स्वरूप इंद्रियातीत अर्थात निर्गुण है जिसमें मनुष्य अपनी इंद्रियों के योग से सगुण को प्रतिष्ठित कर लेता है। दूसरे शब्दों में, कम से कम भक्त कवि के लिए निर्गुण और सगुण दोनों ही ब्रह्म हैं और निश्चित: स्वयं तुलसी ने भी यही मानना है। पार्वती और भारद्वाज की ऐसी शंका-समाधान के हेतु “मानस” की राम-कथा सामने आती है। राम-जन्म (अवतार) के कारण उत्तरकांड में वेदों द्वारा दी गई राम-स्तुति, जन्म से पूर्व ही श्री भगवान का, देव-प्रार्थना के स्वरूप कौशल्यादि के सम्मुख प्रकट होना तथा कौशल्य द्वारा दी गई उनकी निर्गुण रूप की स्तुति एवं अन्यत्र भी स्थान पर कवि का निर्गुण-सगुण-ऐक्य की याद दिलाते चलना इसी के पुष्टिकर प्रमाण है। स्वयं तुलसी (मानस) के अनुसार, निर्गुण ब्रह्म अप्रकट अग्नि के समान है और सगुण प्रकट अग्नि के समान। यही निर्गुण अपने भक्त-प्रेमवश सगुण बनता और लीला-शरीर (मानवादि का रूप) धारण कर लेता है। इसी प्रकार “सगुनहि अगुनाह नहिं कछु भेदा” की स्वीकारोक्ति कहने वाले तुलसी के राम मूलत: निर्गुण ब्रह्मा ही है। निश्चित: “तुलसीदास में सगुण-निर्गुण का विरोधी नहीं है, यद्यपि निर्गुण से सगुन प्रधान है और राम रूप में सगुण सर्वोत्कृष्ट आकार पा सकता है।”

अवतार राम:— तुलसी के राम अवतारी है किंतु कहीं निर्गुण ब्रह्मा के, कहीं हरि या विष्णु के। दूसरी और ब्रह्मा-विष्णु महेशादि, राम से अलग और एकदम उनके दास्य भक्त हैं। दूसरी ओर मानस के राम ब्रह्मा, विष्णु, महेश को नचाने वाले स्वयं परब्राह्म परमेश्वर हैं। एक स्थान पर तो तुलसी ने परशुराम और राम दोनों को ही ईश्वरावतार बताया है- “मीन कमठ सूकर नरहरी।

बामन परसुराम बपुधरी।।”

मानव राम:— अपने मानव रूप में राम दशरथ के पुत्र हैं जो अपने उच्च कर्म एवं चरित्र से ‘रघुकुल-भूषण’, ‘रघुवंश-मणि’ आदि नाना प्रशंसात्मक विश्लेषण प्राप्त करते हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि वे अद्भुत-अपूर्व और अद्वितीय सौंदर्य-शक्ति एवं शील के संगम है, आदर्शों और सद्गुणों के पुंज है तथा मर्यादा-नैतिकता-सांस्कृतिक-धार्मिक-परंपरा आदि के निर्वाहक करते हुए एक ओर यदि भूमि को पापियों से मुक्त करते हैं तो दूसरी ओर राम राज्य की स्थापना भी करते हैं।

समग्रत: तुलसी के “राम अनन्त सौंदर्य-संपन्न है। करोड़ों कामदेव को लज्जित करने वाले उनके असाधारण एवं अनंत रूप सौंदर्य का अवलोकन कर आबाल-वृद्ध-वनीता, सभी विस्मय विमुग्ध हो जाते हैं। उनकी रूप-माधुरी का तुलसी पर इतना अधिक प्रभाव है कि अनेक अनेक बार उनकी अभिव्यक्ति करते हुए उनको पुनरुक्ति का भी भान तक नहीं होता। माता कौशल्य-सुमित्रा पिता दशरथ, पत्नी सीता जैसे निकट स्थित संबंधी ही नहीं, समस्त अयोध्या और जनकपुर वासी, वन मार्ग में मिलने वाले ग्रामीण नर नारी, कोल-भील और किरातादि जनजातियों वाले ऋषि-मुनि-देवता, शिव-पार्वती आदि से लेकर वैरागी-विदेही जनक तक उनकी ब्रह्म रूप माधुरी का पान कर-करके भावाभिभूत तक हो जाते हैं। इतना ही नहीं वरन् वन के पशु-पक्षी से लेकर शत्रु खरदूषण, शूर्पणखा, मारीचि जैसे राक्षस-जन भी उससे मानो मंत्र-मुग्ध से बन जाते हैं। यहां तक कि एक स्थान पर तो साँप बिच्छू जैसे विषैले जीव भी उसके प्रभाववश अपनी तामसी-प्रकृतिदत्त प्रकृति छोड़ देते हैं।

नि:संदेह, मानव राम का यह समस्त शील स्वभावगत है। वस्तुतः राम सर्वगुणसंपन्न है। भारतीय नैतिकता में परंपरा से कल्पित और मान्य न्याय, करुणा, दया, क्षमा, उदारता, दानशीलता आदि प्राय सभी गुण उनमें भरे पड़े हैं। तुलसी के अनुसार यह गुण अनंत हैं और करोड़ों सरस्वती तथा अरबों शेषनाग भी इनका वर्णन करने में असमर्थ है। राम के समान हितकारी और कोई नहीं है। उनको सर्वाधिक प्रिय है– सेवक (भक्त या शरणागत)।

राम मानव है और फलस्वरुप उनमें कुछ मानवोचित स्वाभाविक दुर्बलतायें भी हैं। सीता हरण के उपरांत उनका रुदन करते हुए, वन-वन में, एक-एक पेड़-पौधे तक से सीता का पता पूछते फिरना और “महा विरही अति कामी” की भाँति विलाप करना, लक्ष्मण के मूर्छित हो जाने पर परेशान होना, निरपराध बालि का धोखे से वध करना आदि ऐसे ही कुछ प्रमाण है।

प्रतीक राम:— यदि तटस्थ भाव और गहनतापूर्वक देखें तो तुलसी के राम ब्रह्मादि के ही नहीं स्वयं ‘तुलसी मानस के भी प्रतीक’ है। तुलसी अपने समकालीन धार्मिक राजनैतिक परिवेश से असंतुष्ट भी थे और उस सब के घोर विरोधी भी। उस सबसे वे विरोध में कर ही नहीं सकते थे क्योंकि ना तो वह कोई वीर राजा थे, ना दरबारी कवि। वे मसिजीवी थे, असिजीवी नहीं। फिर भी उन्होंने मानसिक विरोध प्रकट करने और समकालीन बाधाओं से लोहा लेने का भावमय प्रयास किया राम-काव्य रचकर। अतः राम को स्वयं तुलसीय मानस का प्रतीक भी माना जा सकता है।

उपसंहार:— नि:संदेह, राम और उनके चरित्र के साथ हर युग में “जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी” (जिसकी जैसी भावना उसी के अनुरूप प्रभु (श्रीराम) को उसी रूप में देखा) उक्ति ही चरितार्थ होती रही है। यह भी सर्वज्ञात है कि तुलसी से पूर्व राम का चरित्र विपुल मात्रा में और विविध रूपों में अंकित किया जा चुका था जिसमें विशेष परिवर्तन या मौलिकता- समावेश की अधिक गुंजाइश ही नहीं बची थी। इस पर भी तुलसी का महत्व कार्य और अद्भुत योगदान ही कहा जाएगा कि उन्होंने परंपरा से प्राप्त और प्रचलित राम को एक ऐसे अद्भुत सांचे में ढाला, उसको विकसित-परिवर्तित करके एक ऐसा अनूठा मौलिक और विशिष्ट रूप दिया तथा जन-जन के लिए ऐसा उपयोगी बनाया कि राम एकदम तुलसी के ही बन गए। एक दार्शनिक, एक भक्त, एक कवि, एक भारतीय तुलसी के राम पूर्ववर्ती राम रूपों से आगे ही नहीं बढ़े, जन-जन को आगे बढ़ाने वाले, हर एक के मन- मानस पर छाये रहने वाले और सब मिलाकर विकसित वर्धित- समन्वित अमर चरित्र बन गए। “निश्चित: किसी भी जाति की काव्य प्रतिभा ने कभी भी जिन उद्धत गुणों की कल्पना की होगी, कदाचित उनका एक आदर्श में रूप हमें (तुलसी के) राम के चरित्र में समाहित मिलता है।” इसी एक प्रदेय ने राम को भी अमर कर दिया और तुलसी को भी।

नदीम अहमद
शोधार्थी
लॉर्ड्स यूनिवर्सिटी, चिकानी अलवर, राजस्थान