जयशंकर प्रसाद जी कवि होने के साथ ही वैदिक परंपरा के ऋषि भी हैं कामायनी हिंदी का वेद है तो उसके पद्य मंत्र हैं जिनका भाव मनन द्वारा ही जाना जा सकता है।
वर्तमान हिंदी साहित्य के युगपुरुष प्रसाद जी छायावादी काव्य धारा के प्रवर्तक कवि है। कामायनी छायावाद की प्रथम रचना है। विवेच्य महाकाव्य का समग्र कथानक 15 वर्गों में वर्णित है जिसमें कुल 6 चरित्र हैं मनु , श्रद्धा, इड़ा ,कुमार (मानव) आकुली और किलात। कामायनी की कथा के नायक केंद्र बिंदु वैवस्वत मनु हैं l कथानक उन्हीं के चतुर्दिक घिरा हुआ है। श्रद्धा कामायनी की नायिका है ऋग्वेद में इसको देवता और ऋषिका दोनों ही रूपों में स्वीकार किया गया है। वह विश्व की करुणामूर्ति है। कामायनी का नामकरण नायिका श्रद्धा के नाम से है ।मनु नायक है और कामायन (काम मार्ग )पर यात्रा कर रहा है। अतः विवेच्य ग्रंथ का नामकरण कामायनी प्रसाद जी की बौद्धिक प्रतिभा का परिचायक है।
दर्शन का अर्थ:- वस्तुतः जीवन संग्राम में अपने को विजयी बनाना प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है। मनुष्य विवेकशील प्राणी होने के कारण प्रत्येक अनुष्ठान के अवसर पर अपने विचार शक्ति का उपयोग करता है चाहे इसका ख्याल इसे रहता हो या नहीं पर उपयोग करता है वह अवश्य। दर्शन शब्द का व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ है ‘ दृश्यते अनेन इति दर्शनम ‘अर्थात जिसके द्वारा देखा जाए I हम कौन हैं? कहां से आए हैं? इस सर्वतो दृश्यमान जगत का सच्चा स्वरूप क्या है? इसकी उत्पत्ति कहां से हुई है? इसकी सृष्टि का कौन कारण है ?वह चेतन है या अचेतन आदि प्रश्नों का समुचित उत्तर देना दर्शन का प्रधान ध्येय है।
दर्शन तथा जीवन का संबंध:- दर्शन में आत्मसाक्षात्कार (ब्रह्म साक्षात्कार) के भाव निहित हैं । जिस शास्त्र में आत्मा, अनात्मा , जीवन ब्रह्म , प्रकृति , पुरुष, जगत, धर्म, मोक्ष तथा मानव जीवन के उद्देश्य आदि का निरूपण होता है उस शास्त्र को दर्शन नाम से अभिहित करते हैं । जो सत्य का दर्शन कर लेता है उसे ही विद्वान कहते हैं। भारत के विश्व विख्यात दार्शनिक डॉ० राधाकृष्णन सर्वपल्ली का मत है- ‘ दर्शन की भूमिका है जीवन को व्यवस्थित बनाना तथा कर्म का मार्ग प्रदर्शित करना।‘ जब तक जीवन और जगत की नाना समस्याएं हमारे सामने उपस्थित रहेंगी तब तक उनके निदान निकालने के लिए हमें दर्शन का ही अवलंबन लेना होगा। “ इसी प्रकार सुदर्शन का मत है” जिसमें सोचने की शक्ति खत्म हो गई है समझ लीजिए वह व्यक्ति बर्बाद हो चुका है I”वस्तुतः दर्शन का संबंध बुद्धि के साथ होता है दर्शन ही हमें चिंतन मनन की दिशा में ले जाता है । भारत के पूर्व राष्ट्रपति स्वर्गीय एपीजे कलाम का मत है “जीवन में सही दिशा समृद्धि और सफलता दिलाती है इस प्रकार दर्शन तथा जीवन का अटूट संबंध है ।“
कामायनी में दर्शन:- कामायनी छायावादी युग का सर्वश्रेष्ठ व सर्वाधिक देदीप्यमान महाकाव्य है इसमें काव्य और दर्शन का अपूर्व समन्वय हैT वैसे तो इसका आधार ऐतिहासिक है किंतु इस महाकाव्य का दार्शनिक आधार अत्यंत पुष्ट एवं प्रौढ़ हैl शैव- दर्शन और भारतीय दर्शनों से ओतप्रोत कामायनी में देव – मानव के दार्शनिक पक्ष का ही ग्रहण अधिक है। अतः कामायनी के दार्शनिक सिद्धांतों का हम निम्न विचार बिंदुओं के अंतर्गत अध्ययन करेंगे:-
१. समरसता का सिद्धांत २.आनंदवाद ३.नियतिवाद ४.प्रत्यभिज्ञा दर्शन ५.अन्य दर्शनों का प्रभाव
१.समरसता:-समरसता का अर्थ है- द्वयता का अभाव lदो का मिलकर एक हो जाना ही समरसता है lयह शब्द मूलतः प्रत्यभिज्ञा दर्शन से संबंध रखता है। समरसता के द्वारा जीवन के नाना वैषम्य एवं जटिलताओं का निराकरण संभव है। समरसता की व्याख्या करते हुए डॉ भोलानाथ तिवारी लिखते हैं – ‘दो का मिलकर एक हो जाना ही समरसता है। ‘ डॉक्टर रामलाल सिंह ने भी लिखा है:- “ दो विपक्षी या विरोधी वस्तुओं के द्वन्द्व का अभाव ही समरसता है जिसमें दोनों वस्तुएं समरस समभाव जान पड़ती हैं I” कामायनी में प्रसाद जी ने जीवन की अनेकानेक जटिलताओं और वैषम्यों के निवारण का मार्ग बताया है। कामायनी में अनेक प्रकार की समरसता का विवेचन है। हृदय और बुद्धि का समन्वय, इच्छा क्रिया और ज्ञान का समन्वय, सुख दुख का समन्वय, नर-नारी का समन्वय, अधिकार और अधिकारी का समन्वय आदि कामायनी में वर्णित है। समरसता पर प्रकाश डालते हुए आचार्य नंददुलारे वाजपेयीजी लिखते हैं “जीवन के वास्तविक विरोधों को श्रद्धा की मूलवर्तनी सत्ता द्वारा अपहृत कर जीवन में समरसता और समन्वय स्थापित करने की अपूर्व आशाप्रद कल्पना प्रसाद जी ने कामायनी काव्य में की है।“ कामायनी में दुख और सुख के बीच समरसता निम्नलिखित पंक्तियों में व्यक्त हुई है:-
“ नित्य समरसता का अधिकार
उमड़ता कारण जलधि समान
व्यथा से नीली लहरों बीच
बिखरते सुखमणि गण द्युति मान|”
नर नारी तथा अधिकारी अधिकृत के बीच समन्वय स्थापित करने के लिए प्रसाद जी ने लिखा है:-
“तुम भूल गए हो पुरुष मोह में कुछ सत्ता है नारी की
समरसता है संबंध बनी अधिकार और अधिकारी की।”
इसी प्रकार हृदय और बुधि के समन्वय में प्रसाद जी ने लोकमंगल की भावना व्यक्त की है। हृदय के अभाव में कोरी बुद्धि द्वारा सुख और आनंद की प्राप्ति नहीं हो सकती और व्यक्ति निरंतर दुखों को झेलता है। मनु जब तक इड़ा के प्रभाव में रहे, दुखी रहे Iश्रद्धा के सामीप्य ने ही उन्हें यथार्थ और अखंड आनंद दिया है। सारस्वत प्रदेश की रानी इड़ा बुद्धि और कर्म की प्रतीक है ।मनु बुद्धि के साथ बलात्कार द्वारा उसका दुरुपयोग करना चाहते हैं तब सारी प्रजा बिगड़ जाती है मनु आहत हो जाते हैं। श्रद्धा उनको अपने साथ लिवा ले जाती है और वह अपने पुत्र मानव को पीछे से इड़ा को सौंपते हुए भावना और ज्ञान के समन्वय की ओर संकेत करती है:-
“हे सौम्य! इड़ा का सुचि दुलार,
हर लेगा तेरा व्यथा भार ;
यह तर्क मई तू श्रद्धामय,
तू मननशील कर कर्म अभय,
X X X
सबकी समरसता का प्रचार,
मेरे सुत ! सुन मां की पुकार; ।”
इस प्रकार जड़ और चेतन की समरसता पर कामायनी की अंतिम पंक्तियों द्वारा प्रकाश डाला गया है :-
“समरस थे जड़ या चेतन
सुंदर सा कार बना था;
चेतनता एक विलसती,
आनन्द अखंड घना था।”
इस प्रकार प्रसाद जी ने समरसता के सिद्धांत को जीवन के व्यवहारिक और आध्यात्मिक दोनों ही पक्षों में समायोजित किया है और उनके अनुसार समरसता ही अखंड आनंद की प्राप्ति का साधन है I
२.आनंदवाद:- कामायनी में प्रतिपादित दार्शनिक सिद्धांतों में आनंदवाद का अपना विशिष्ट स्थान है। कामायनी में निहित आनंद वाद को समझने से पूर्व यह जानना आवश्यक है कि प्रसाद जी ने इस सिद्धांत को क्यों अपनाया? वस्तुतःहै इसका उत्तर कवि ने स्वयं ही काम सर्ग में दे दिया है ।शिव का शत-चित स्वरूप लाभ के परदे से ढका रहता है और इसे हटाने में सब समर्थ नहीं होते :-
“सौंदर्यमयी चंचल कृतियां बनकर रहस्य हैं नाच रहीं,
मेरी आंखों को रोक वही आगे बढ़ने में जांच रही ।“
आनंद शब्द का प्रयोग शैव दर्शन में बहुलता से प्राप्त होता है। इसके पूर्व भी वेदांत वादियो ने सच्चितानंद की कल्पना की थी। रजस तमस के स्थान पर जब सतोगुण की प्रधानता हो जाती है तभी आनंद का आविर्भाव होता है ।इस आन्द की उपलब्धि व्यक्तिवाद के विनाश द्वारा ही संभव है। अद्वैत अथवा समरसता के आधार पर ही आगमों ने अपने आनंद की स्थापना की। स्पंदन शास्त्र के अनुसार जगत में सर्वत्र प्रत्येक काल में आनंद व्याप्त रहता है ।यह आनंद परम शिव का ही एक रूप है ।प्रसाद जी के अनुसार आनंद तो समरसता में सामंजस्य में है। कामायनी के आनंद सर्ग में इस सामंजस्य की ओर जाता हुआ मानवता का कारवां दिखाया गया है:-
“वह एक यात्रियों का दल ;
सरिता के रम्य पुलिन में ,
गिरि पथ से ले निज संबल,
था सोमलता से आवृत,
वृष धवल धर्म का प्रतिनिधि,
घंटा बजता तालों में
उसकी मंथर गतिविधि।”
वृष या वृषभ धर्म का प्रतिनिधि है। भगवान शिव का वाहन नंदी वृषभ है। सोमलता आनंद का प्रतिनिधि है। धर्म वही है जो आध्यात्मिक आनंद की ओर ले जाए। वस्तुतः समरसता के साधन द्वारा जिस साधन की प्राप्ति होती है वही आनंद है ।यह आनंद ही कामायनी का प्रतिपाद्य है ।इस आनंद के संबंध में डॉ नगेंद्र ने लिखा है: -“ कामायनी में आनंद के जिस रुप की प्रतिष्ठा है वह स्पष्टत: आत्मस्थ है। वह अंतर्मुखी आनंद या आत्मानंद है। वाह्य गोचर विश्वरूप में प्रसारित आनंद नहीं है।“ इस अखंड आनंदानुभूति में व्यथा के लिए स्थान नहीं है। दुख और सुख तथा जड़ और चेतन के द्वैतभाव इसमें तिरोहित हो जाते हैं:-
“सब भेदभाव भुलवाकर दुख सुख को दृश्य बनाता;
मानव कह रे ! यह मैं हूँ ,यह विश्व नीड़ बना जाता।”
कामायनी में प्रतिपादित आनंद वाद को कवि ने युग की पुकार सुनकर भी अपनाया है । आज का मानव बुद्धिवाद की मृग- मरीचिका में भटक रहा है किंतु बुद्धि का संबल ग्रहण कर वह आनंद तत्व को नहीं पा सकता। कामायनी का आनंदवाद जीवन से पलायन करने की शिक्षा नहीं देता। वैसे यह आनंद कोई नई चीज नहीं है। वैदिक काल से ही यह भारतीय जन जीवन में समाहित चला आ रहा है। वैदिक कालीन आर्यों को इंद्र के आतंकवाद द्वारा इस आनंद भावना की प्रेरणा मिली थी। उपनिषद में आत्मा को आनंद स्वरूप माना गया है तथा श्रद्धा द्वारा जीवन को आनंदमय बनाने का उपदेश दिया गया है। कामायनी में श्रद्धा मनु की गुरु है । मनु पहले तो उसके उपदेशों को अनसुना कर देते हैं किंतु निर्वेद और प्रातिभज्ञान का उदय होने पर उसका महत्व समझते हैं और शांति की खोज में निकल पड़ते हैं। डॉ. शंभूनाथ सिंह ने लिखा है:- “ इस अवस्था में अर्थात मधुमती भूमिका में पहुंचने पर उन्हें चैतन्य परम शिव का दर्शन नटेश के तांडव नृत्य के रूप में होता है I” मनु के श्रद्धा के सहयोग से वह आलोक पुरुष दृष्टिगत होता है जो चित्त और आनंद के अतिरिक्त कुछ नहीं है-
“लीला का स्पंदित आह्लाद,
वह प्रभाकुंज चिन्मय प्रसाद
आनंदपूर्ण तांडव सुंदर।”
मनु श्रद्धा के पीछे- पीछे चलते गए। उनका मन एक बार चंचलता से ग्रस्त हुआ और पैर डगमगाए किंतु श्रद्धा का संबल पाकर सारे व्यवधान मिट गए। कामायनी में निहित आनन्द वाद की साधना का मूल तत्व श्रद्धा है और समरसता उसका साधन है ।डॉ. रामलाल सिंह ने लिखा है :- प्रसाद जी के लिए आनंद प्राप्ति की अवस्था प्रपंचातीत या विषयातीत है ।उनके लिए आनंद ही योग है ,आनंद ही मोक्ष है तथा आनन्द ही ब्रह्म है l”
इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रसाद जी के आनंदवाद में श्रद्धा का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है वही मनु को अखंड आनंद की प्राप्ति कराती है। मनु जब तक इड़ा के अथवा बुद्धि के प्रभाव में रहते हैं तब तक वास्तविक सुख और आनंद की उपलब्धि उन्हें नहीं होती।
३– नियतिवाद:- चिंतन के दार्शनिक क्षेत्र में कामायनी में नियति को भी स्थान प्राप्त है। नियति शब्द का प्रयोग शैव – दर्शन में हुआ है । कला , विद्या , राग , काल , नियति ये पाँच कंचुक हैं जो जीव को आवृत कर लेते हैं। नियति प्रत्येक वस्तु का नियमन करती है। व्यक्ति के कार्यों पर वह एक प्रकार का प्रतिबंध लगा देती है। आगम की नियति शक्तिशालिनी है कामायनी में इसका ग्रहण उस चेतन शक्ति के रूप में किया गया है जिनके सम्मुख मानव विवश हो जाता है।
कामायनी के प्रथम सर्ग में ही प्रलय में सारी सृष्टि का ध्वंस नियति की प्रेरणा से हुआ दिखाया गया है। प्रसाद जी नियति को सचेतन प्रकृति का कार्यकलाप मानते हैं। सचेतन प्रकृति नियति के रूप में ही सक्रिय होती है। इस प्रकृति से मनुष्य को स्पर्धा नहीं करनी चाहिए क्योंकि यह एक वृहत्तर शक्ति है। मानव जब एकांगी आत्म विस्तार में लगता है तब प्रकृति रोसाविष्ट हो उठती है और नियति के रूप में मानव की उक्त प्रवृति का शमन करती है। प्रसाद जी की दृष्टि में नियति प्रकृति का नियमन और विश्व का संतुलन करने वाली शक्ति है जो मानव अतिवादों की रोकथाम करती है और विश्व का संतुलित विकास करने में सहायक होती है। प्रसाद का यह नियति सिद्धांत साधारण भाग्यवाद या प्रारब्धवाद से भिन्न है। नियति एक अज्ञेय शक्ति है किंतु यह जड़ और अज्ञान मूलक नहीं है। कामायनी में जल प्लावन के समाप्त होते ही कवि नियति की सूचना देता है:-
“उस एकांत नियति शासन में
चले विवश धीरे-धीरे
एक शांत स्पंदन लहरों का
होता ज्यों सागर तीरे।”
नियति मनु को कार्य में नियोजित करती है। इस प्रकार वह एक सत्ता है, जो शासन करती है। इसके पूर्व देव सृष्टि का विनाश भी नियति की प्रेरणा से हुआ था। संसार का समस्त क्रिया व्यापार नियति के द्वारा ही चलता है। यह व्यक्तिगत नहीं समष्टिगत है ।नियति केवल मनुष्य का जीवन ही परिचालित नहीं करती वरन समग्र संसार उसी से नियंत्रित है :-
“नियत चलाती कर्म चक्र यह ,
तृष्णा जनित ममत्व वासना ,
पाणि – पादमय पंच- भूत की ,
यहाँ हो रही है उपासना।”
अपना जीवन नियति को सौंपकर मनुष्य का निष्क्रिय हो जाना अनुचित है किंतु नियति से संघर्ष करना भी उचित नहीं ।नियति के अनुशासन से व्यक्ति के मानसिक परिवर्तन होते हैं तथा वाह्य क्षेत्रों में भी नियति की आज्ञा से परिवर्तन हुआ करते हैं। यही नियति स्त्री पुरुष के बीच संबंध जोड़ती है:-
“चल रहा था विजन पथ पर मधुर जीवन- खेल ,
दो अपरिचितों से नियति अब चाहती थी मेल|”
नियति की अनन्य शक्ति से क्या मनुष्य क्या देवता सभी कठपुतली के समान नाचते हैं । यह नियति करुणामयी है। कभी-कभी यह बाहर से भयंकर और त्रास दायक दिखाई पड़ती है। देवताओं का जीवन उच्छृंखल हो जाने पर ही जल – प्रलय से उनका विध्वंस हुआ था। मनु जब इड़ा के ऊपर एकाधिकार करना चाहते हैं उस समय नियति उन्हें इसका दंड देती है :-
“तांडव में थी तीव्र प्रगति परमाणु विकल थे ,
नियति विकर्षणमयी त्रास से सब व्याकुल थे।”
इस प्रकार कामायनी में वर्णित नियति के स्वरूप को देखने से प्रकट हो जाता है कि वह एक सर्वशक्तिमान सत्ता के रूप में अंकित हुई है। मानव प्रयत्न करने पर भी नियति के जाल से मुक्त नहीं हो सकता।
४– प्रत्यभिज्ञा दर्शन:- कामायनी में शैवागम और प्रत्यभिज्ञा दर्शन के सिद्धांतों की छाया भी दिखाई पड़ती है। प्रसाद जी ने इन दार्शनिक सिद्धांतों से जिन तत्वों को लिया है उन्हें कथानक में घुला मिला दिया है ।डॉक्टर शंभू नाथ सिंह के अनुसार प्रत्यभिज्ञा दर्शन से उन्होंने मुख्य रूप से चार बातें ग्रहण की है – एक शिव तत्व दूसरा शक्ति तत्व और ज्ञान इच्छा क्रिया की शक्तियां तीसरा पंच कंचुक और मन बुद्धि अहंकार का सिद्धांत । चौथा समरसता और चिदानंद लाभ का सिद्धांत।
कामायनी के आशा सर्ग में सृष्टि के विकास का जो चित्रण हुआ है उनमें परम शिव के विश्व रूप में अभिव्यक्त होने का संकेत है:-
“यह संकेत कर रही सत्ता किसकी सरल विकासमयी,
जीवन की लालसा आज क्यों इतनी प्रखर विलासमयी।”
परम शिव की इच्छा क्रिया और ज्ञान की शक्तियां जब तक एक दूसरे से विलग रहती हैं तब तक नाना दुखों और संघर्षों की सृष्टि करती हैं:-
“यह अभिनव मानव प्रजा सृष्टि ,
द्वयता में लगी निरंतर ही,
वर्णों की करती रहे वृष्टि।”
परम शिव बाधाहीन और स्वच्छंद होता है । माया, पंच – कंचुकों की सृष्टि द्वारा उसे पुरुष रूप में लाती है और उसकी शक्तियों को संकुचित कर देती है । जीव के लिए इस अवस्था से मुक्ति का केवल एक ही उपाय है कि वह अपने अंदर स्थित शिव शक्ति को पहचाने और चिदानंद लाभ करें । गुरु की दीक्षा और प्रतिभा ज्ञान का उदय होने पर यह संभव हो जाता है। कामायनी में श्रद्धा मनु का पथ प्रदर्शन करती है और उन्हें नटेश के तांडव नृत्य के रूप में परम शिव के दर्शन कराती है । सामरस्य अवस्था में जीव को चिदानंद लाभ होता है और वह जीव मुक्त हो जाता है:-
“समरस थे जड़ या चेतन,
सुंदर साकार बना था ,
चेतनता एक विलसती ,
आनंद अखंड घना था।”
इस प्रकार स्पष्ट है कि कामायनी की दार्शनिक विचारधारा पर शैवागम और प्रत्यभिज्ञा दर्शन का गहरा प्रभाव पड़ा है।
५-अन्य दर्शनों का प्रभाव :- कामायनी के दर्शन में प्रत्यभिज्ञा दर्शन के अतिरिक्त उपनिषद, वेदांत, बौद्ध दर्शन आदि का प्रभाव है। कामायनी का दर्शन सामाजिक दर्शन भी है जो कि व्यक्ति के विकास से संतुष्ट न रहकर संपूर्ण समाज के लिए विकास की कामना करता है । कर्म सर्ग में इसका सुंदर विवेचन है:-
“औरों को हंसते देखो मनु हँसो और सुख पाओ,
अपने सुख को विस्मृत कर लो सब को सुखी बनाओ।”
इसी प्रकार कामायनी की दार्शनिक विचारधारा पर बौद्ध दर्शन का भी प्रभाव पड़ा है। बौद्ध दर्शन का आधारभूत सिद्धांत दुखवाद है । कामायनी के चिंता सर्ग में दुख की व्यापक छाया है:-
“वे सब डूबे- डूबे उनका ,विभव बन गया पारावार,
उमड़ रहा था देव सुखों पर, दुख जलधि का नाद अपार।”
निष्कर्ष :- कामायनी की दार्शनिक विचारधारा का उपर्युक्त विवेचन करने के उपरांत हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि कामायनी में दर्शन और काव्य का अपूर्व समन्वय हुआ है।
संदर्भ ग्रंथ सूची
- कामायनी – जयशंकर प्रसाद
- भारतीय दर्शन – बलदेव उपाध्याय
- कामायानी का सश्रद्ध मनन – सत्यभूषण योगी
- हिंदी साहित्य – आधुनिक काव्य – संपादक- ब्रजभूषण मिश्र
- हिंदी काव्य – विमर्श – गुलाबराय
- कामायनी की टीका – डॉ. दुर्गाशंकर मिश्र
- प्रसाद का काव्य – डॉ. नगेन्द्र
- जयशंकर प्रसाद – नंददुलारे वाजपेयी
- कामायनी का पुनर्मूल्यांकन – डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी
शोध आलेख
डॉ. दिनेशकुमार
सिद्धार्थ,कला,विज्ञान एवं वाणिज्य
महाविद्यालय बुद्धभवन, फोर्ट मुबई:-२३
पत्राचार का पता:-
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गणेशनगर(भाब्रेकर नगर), कांदीवली ( प.)
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