प्रस्तावना-

बीसवीं शताब्दी के यूरोपीय साहित्यकारों ने अनुभवों और विचारों के धरातल पर वैविध्य के ऐसे संसार को खड़ा किया जिसने भौगोलिक सीमाओं को तो परिभाषित किया, चेतना के धरातल पर अस्मिताओं के संकट को साझा भी किया।रूसी, फ़्रेंच,जर्मन,ब्रिटिश साहित्यकारों का रचना संसार भारतीय मनीषा को छूता उससे टकराता रहा।संवाद के धरातल चाहे बराबर के न भी थे ,ग्रहणशीलता  के आयाम व्यापक और गहन थे। इसी  कड़ी में चेक रचनाकार कारेल चापेक को पढ़ना यानी मानव स्वभाव के विभिन्न पहलुओं से परिचित होना है। चापेक अपने समय की वैज्ञानिक गति और  नवीन विचार धाराओं के फलस्वरूप बदलते सामाजिक, आर्थिक व प्रशासनिक समीकरणों को बड़ी गहराई से पकड़ने में संघर्षरत रहे। उनकी रचनाएँ चाहे आर.यू.आर हो या वाइट डिजीस, सैलेमैन्डर्स का युद्ध, या टेल्स फ्रॉम टू पॉकेट्स, लेखक की प्रतिबद्धता के प्रमाण हैं। चापेक इस बात का खुलासा करना चाहते हैं कि नए आविष्कार या नयी सोच बंद कमरों या सरहदों के भीतर तय नहीं होगी और इस सोच को काल के दायरों से भी अलग करना होगा तभी “निज “की पहचान संभव है।

बीजशब्द-:-यथार्थ,विपर्यय,विडंबना,एकाकीपन,निज, अस्मिता,संभावना,अवसाद,संवेदनश,अंतर्दृष्टि,प्रश्नाकुल।

आधुनिक यूरोपीय साहित्य यथार्थ के धरातल पर परम सत्य और सत्य ,निश्चित और अनिश्चित ,भीड़ और अकेलेपन, घोर उत्सवधर्मिता और अवसाद के विषयों से संवाद और संवादहीनता की स्थितियों से गुज़रता रहा है।मार्क्सवादी,अस्तित्ववादी चिंतन ने स्व और पर की समकक्षता की भूमि तैयार की तो मनस्तत्व और वस्तुपरक दृष्टि बिंदुओं ने अन्वेषण की प्रक्रिया को उजागर किया। इन सबके बीच सबसे बड़ी घटना अस्मिता के संकट की रही। इसप्रकार बीसवीं शताब्दी के यूरोपीय साहित्य में अनुभूति और अभिव्यक्ति के खतरों  के बीच अस्तित्व बोध का प्रश्न प्रखर रूप से उभर कर सामने आया –

“An important strand of European literature began calling the possibility of fixed self definition into questions in the 1920s occasionally even deploying the word identity explicitly in the writings of  Herman Hesse,Virginia woolf ,Louigi Pirandello , Robert Musil, Herman Broch and Franz Kafka.(1) इन रचनाकारों ने औद्योगिक युग व वैज्ञानिक संभावनाओं के पार्श्व में छिपे संकटों को पहचाना और अंतहीनता की विडंबनात्मक स्थिति को पाठक के समक्ष प्रस्तुत किया। बीसवीं शताब्दी के यूरोपीय साहित्य में इस ‘पैराडॉक्स’ को  चेक रचनाकार कारेल चापेक ने बड़ी गहराई से महसूस किया और अपने समय और स्थान के यूटोपियन स्वप्न में विद्यमान खतरों को प्रकाशित किया।चापेक की रचनाओं में वैज्ञानिक उन्नति की सीमाएं हैं तथा युद्ध राजनैतिक मसलों का विकल्प नहीं।  चापेक बड़ी शिद्दत से महसूस करते हैं कि सत्ताएँ  जहाँ एक ओर निजता के संदर्भों को बेमानी सिद्ध करने में जुटी हैं तो दूसरी ओर जातीय समूहों को विनष्ट करने में।उनकी कहानी ‘फॉर्चून टेलर ‘और  नाटक ‘वाइट डिज़ीज़’ इन्ही बिंदुओं को उद्घाटित करता है। ‘द फॉर्चून टेलर’ का कथा तत्व रैखिक प्रगति को ठुकराता है  व ‘वाइट डिज़ीज़’ की विषयवस्तु सिद्ध करती है कि भौगोलिक सीमायें  महामारी के दायरे को तय नहीं करती। इसी प्रकार सन् 1920 में प्रकाशित उनका नाटक R.U.R ,जिसने पहली बार रोबोट शब्द का इस्तेमाल हुआ,विज्ञान के महत्वाकांक्षी प्रयोगों के भीतर छिपी त्रासदी को उद्घाटित करता है।

सन् 1890 में तत्कालीन चेकोस्लोवाकिया में जन्में कारेल चापेक की रचनाओं के हिन्दी अनुवाद अभी भी बहुत अधिक उपलब्ध नहीं है परंतु इसके बावजूद चापेक की कहानियों उपन्यासों ,नाटकों और यात्रा वृतांतों आदि से जागरूक पाठक न केवल परिचित हैं अपितु प्रभावित और विमुग्ध भी ।

सन् 1890 से 1938 तक के अपने छोटे से जीवन में, रीड की हड्डी की भयंकर पीड़ादायक बीमारी से लड़ते हुए भी, चापेक की भविष्योन्मुखी दृष्टि उनकी रचनाओं ‘लाइफ़ ऑफ़ इंसैक्ट्स’(उपन्यास), ‘आर यू आर’(नाटक), ‘सैलेमेंडर्स के साथ युद्ध’(उपन्यास),’सफ़ेद बीमारी’(नाटक), आदि में दिखाई दे जाती है,वहीं ‘ टेल्स फ्रॉम टू पॉकेट्स’ , ‘टिकट संग्रह’ (कहानी संग्रह) आदि की कहानियों में संबंधों में छिपी दर्द भरी हिचकिचाहट को अनुभव किया जा सकता है।  चापेक की प्रतिभा से विस्मित निर्मल वर्मा ने उनकी कहानियों का अनुवाद करते हुए  ‘टिकट संग्रह’,(कारेल चापेक की कहानियाँ) में लिखा है, “कारेल चापेक संपूर्ण रूप  से बीसवीं शताब्दी के व्यक्ति थे—- अत्यंत संवेदनशील असाधारण अंतर्दृष्टि के मालिक ,दो आँखों में हज़ार आँखें लिए हुए अपने संस्पर्श से हर अँधेरी चीज़ को उजागर करने वाले असली मायनों में एक सुसंस्कृत लेखक।(2)

चापेक की कहानियों में विपर्यय की स्थितियां बराबर दो अलग अलग धरातलों पर दिखाई देती हैं। एक धरातल संबंधों के दायरों में संयोजकता को छोड़ना नहीं चाहता क्योंकि सम्बंधहीनता की स्थितियां  व्यक्ति को एकाकीपन और पीड़ा की अतल गहराइयों में धकेलती है,तो दूसरी ओर जीवन के  संवेदनशून्य व यांत्रिक हो जाने का ख़तरा सच होता दिखाई देता है।चापेक इन स्थितियों की गति को रोकने की पुरज़ोर कोशिश में हैं। उन्हें बराबर यह अवस्था विचलित करती है इसीलिए वह विकल्पों की खिड़की बंद नहीं होने देना चाहते और समय की दिशा को बदलने की संभावनाओं को जिलाए रखना चाहते हैं।“Capek  was a revolutionary as recognising that time was not immutable but merely a convention invented by man” (3) चापेक की “टिकटों का संग्रह” कहानी में ऐसे ही एक पात्र  की पीड़ा है जो “ एक ख़ास क़िस्म की ज़िंदगी चुन लेता है और आख़िर तक उसे निभाये ले जाता है ।सब से शोचनीय बात यह है कि वे दूसरी ज़िंदगियाँ—- जिसने उसे नहीं चुना—- मरती नहीं ।किसी- न- किसी रूप में  वे  उसके भीतर जीवित रहती हैं।” (4)   कारास अपनी बाल्यावस्था को याद करता है कि उसने दस वर्ष की आयु में डाक टिकट जमा करने शुरू किए थे। संपन्न सुसंस्कृत पिता के विरोध के बावजूद वे अपने मित्र लोयज़ीक चेपेल्का, जिसके पिता एक मामूली पियक्कड़ बैंड मास्टर थे से गहरी आत्मीयता महसूस करता है ,जो टिकटों के संग्रह के समान शौक़ से उपजा है। ।कारोस की बीमारी के दौरान उसके पिता गोदाम में छिपाए उस टिकटों के सिन्दूक से टकरा जाते हैं और उसे एक अलमारी में छिपा देते हैं ।कारोस ताउम्र यही सोचता है कि लोयज़ीक ने ही वे संदूक चुराया होगा और उससे नफ़रत करने लगता है। अब कारोस पूरा जीवन रिश्तों की सघनता से महरूम, केवल कर्तव्य और नियमों का पालन करते हुए जीवन  व्यतीत करता  आया है। अंततः जीवन यात्रा के अंतिम छोर पर पहुंचकर जहाँ उसकी पत्नी की भी मृत्यु हो चुकी है ,वह शोकविह्वल अवस्था में अपने परिवार के स्मृतिचिन्हों को उलटते पलटते उसी सिंदूक को पा जाता है ।तब कारोस को लगता है कि  इन तमाम वर्षों में  उसने जो घृणा पाल रखी थी वे बेमानी थी।अंततः अवसाद और पश्चाताप से घिरे जीवन में वह पुनः विकल्पों की तालाश में फिर से टिकट इकट्ठा करने लगता है और  उन धधकते क्षणों को पुनः जीवन का हिस्सा बना लेता है। ।चापेक जीवन फिर से शुरू करने के आग्रही रहे हैं ।लेकिन जहाँ “टिकेट का संग्रह” कहानी लेखक की जिजीविषा को रेखांकित करती है वहीं  “दूसरी दुनिया” कहानी का पात्र कारेल पुनः अपनी  सुविधाभोगी ज़िंदगी में लौट जाता है ।चापेक  जानते हैं कि व्यवस्था कारेल का अनुकूलन कर चुकी है और वह उस समाज का प्रतीक है जो मौक़ापरस्त  है और जिन सुविधाओं का  वह आदि हो चुका है उसे कभी भी तलांजलि  नहीं दे सकेगा। चापेक अपनी रचनाओं को आदर्श का जामा पहनाने की होड़ में नहीं हैं वरन् व्यक्ति की मनःस्थिति की अनेकानेक परतों को पहचानने में संलग्न।

“दूसरी दुनिया” कहानी वोयतोख और कारेल दो भाइयों की कथा है ,जो शहर के दो छोर पर रहते हैं।एक बुर्ज़आ वर्ग का हिस्सा है जो सुविधाभोगी, अवसरवादी, प्रदर्शन प्रेमी है जहाँ की जीवन शैली संबंधों की सहजता को खा जाती है। पत्नी उस व्यवस्था का कलपुर्ज़ा  मात्र है, जो कारेल को मर्यादावान  और सुसंस्कृत बनाती है।दूसरा वह जहाँ वोयतोख रहता है जो सर्वहारा वर्ग की दयनीय स्थिति के बीच भी मानवीय मूल्यों को बचाए हुए है। जीवन का विरोधाभास तब उद्घाटित होता है जब कार्यालय में किसी ग़लत फहमी की वजह से कारेल को लांछित किया जाता है।  उस समय कारेल को अपना जीवन

व पूरी व्यवस्था ,जिसका वह हिस्सा है बेमानी लगने लगता है ।अपनी आरामदायक अफ़सरी से कुछ समय के लिए ही सही उसका मोहभंग हो जाता है। परिस्थितियों के वशीभूत उस पूरे समाज से प्रतिकार स्वरूप वे वंचित वर्ग का हिस्सा हो जाना चाहता है।कारेल अपने भाई से अपनी आंतरिक पीड़ा को व्यक्त करते हुए कहता है- “मेरे जैसे ऊँचे अफ़सर बिल्कुल नहीं जानते! कि आम लोग कैसे होते हैं — उनकी दुर्दशा और बीमारी के प्रति बिल्कुल बेख़बर! जब तक तुम अपनी आँखों से बीमारी, पीड़ा और गंदगी नहीं देखोगे, तब तक उसके बारे में कुछ भी नहीं जान सकोगे ।एक बार उन्हें आँखें खोलकर ध्यान से देख लेने से ही तुम मानवीयता की सेवा कर सकते हो— एक बार देख लेने के बाद तुम कभी चैन से नहीं बैठ सकोगे— तुम्हारा मन हमेशा भटका भटका सा रहेगा। तुम्हें लगेगा कि तुम धीरे -धीरे पागल हो रहे हो। मेरे ख़याल से यह स्थिति कमरे के गद्दों के बीच दबी स्वस्थ और सुखी ज़िंदगी से कहीं ज़्यादा बेहतर है।(5) संघर्षरत, वंचित समाज के प्रति उसकी सहानुभूति कितनी सारहीन है यह वोयतोख देख चुका है।आदर्शों का बखान करते हुए कारेल कितनी हिक़ारत से उसके घर की दुर्व्यवस्था को देख रहा था ,इसे वोयतोख अनुभव  कर चुका है,  इसलिए उसे समाज की दया का पात्र नहीं होना है, ठीक जैसे प्रेमचंद के कर्मभूमि उपन्यास में अमरकांत ग़रीब किसानों को देखकर द्रवीभूत हो उठता है और उनकी सहायता के लिए लालायित है तब  डॉक्टर शांति कुमार कहते हैं कि  “ दया और धर्म की बहुत दिनों परीक्षा हुई और यह दोनों हल्के पड़े।अब तो न्याय परीक्षा का युग है।”(6)। कारेल की सहानुभूति और उसकी दलीलों में छिपी दयाभावना व उसमें से झांकती अहमंयता को वोयतोख पहचानता है ।भाई वोयतोख कारेल के ऑफ़िस जाकर मंत्री महोदय की उस ग़लतफ़हमी को दूर करने में सफल हो जाता है जिसके कारण कारेल स्वयं को अपमानित महसूस कर रहा था।विडंबना यह है कि वे पात्र जो अभी तक सत्ताधारी वर्ग से बेहद नाराज़ ,उसके स्वार्थपूर्ण रवैये की आलोचना कर रहा था, जो व्यक्ति अभी तक अपने आपको समाज के निम्नतम निहायत ग़लीज़ ज़िंदगी जीने वाले वर्ग का अंग बनाने को बेताब था ,अचानक बदल जाता है ।यह समाचार पाने के बाद की ऑफ़िस ने उसकी निरपराधी माना है और स्वयं मंत्री महोदय की गाड़ी उसे लिए आयी है ,यह जानकर वह अपनी साड़ी पीड़ा, सारी कड़वाहट भूल जाता है और हड़बड़ाहट में तैयार होकर मंत्री की गाड़ी से ऑफिस चला जाता है ।वोयतोख अपने भाई को प्रेम करता है लेकिन वह यह भी जानता है कि कारेल उसकी निरीह दुनिया का हिस्सा नहीं हो सकता और साथ ही  कारेल की आँखों में व्याप्त दयाभाव उसके लिए असहनीय है इसलिए वह कारेल के जाते ही उसके “ घर की ओर चल पड़ा ताकि उसकी पत्नी को ही सूचना दे सके कि उसका पति वापस घर आ रहा ।”(7)

चापेक कारेल के माध्यम से उस शक्ति संपन्न वर्ग पर बड़ी सूक्ष्मता से व्यंग करते हैं जो बड़े बड़े बखान तो कर सकता है और अपनी पूरी हमदर्दी भी जता सकता है लेकिन उन स्थितियों को बदलेने का पक्षधर नहीं और मौक़ा मिलते ही अपनी दुनिया में लौट जाता है और वहीं दूसरी दुनिया का वोयतोख दया का पात्र नहीं होना चाहता।

“ क़मीज़ें” कहानी में भी चापेक ने ऐसे दो पात्रों का सृजन किया है जो निर्धारित मानवीय प्रतिक्रियाओं को बदलना चाहते हैं।इनमें एक जो अपनी दरियादिली का कवच उतारकर अपराधी की मनःस्थिति को समझने का प्रयास करता है और दूसरा अपराधी होने पर भी इसलिए आहत है कि उसे चोर कहकर  ज़लील किया गया है।  “कमीज़ें” कहानी का नायक अपनी घरेलू सहायिका जोहान्का की चोरी रंगे हाथ पकड़ लेता है। जोहान्का शर्मिंदा होने के बजाए अपने मालिक पर स्वयं को अपनानित करने का आरोप लगाकर ज़ोर ज़ोर से रोने लगती है। कथावाचक जोहान्का  की चोरी से आहत है और इसी कश्मकश में है कि क्या उसे घर से निकल दे? दूसरी तरफ़ उसका निश्छल सेवा भाव है।कथावाचक की पत्नी की मृत्यु के पश्चात वह वर्षों से  उसके घर की व्यवस्था करती आयी है। इसी असमंजस में पड़ा वह सोचता कि वह जोहान्का को क्षमा कर देगा और अपने बड़प्पन की मिसाल क़ायम करेगा ।वह  भयक्रांत भी है कि जीवन का अकेलापन उसे लील लेगा ।जोहान्का का प्रतिरोध ‘ इमोशनल ब्लैकमेल’ नहीं है ।उसका मर्म इसलिए आहत हुआ है क्योंकि जिस मालिक की उसने  वर्षों  तक सेवा की उससे उसका बरताव ऐसा था जैसे वह  कोई मामूली चोर हो और जो  उसकी दया पर आश्रित है। “किंतु धीरे धीरे उसके  मन में जोहांका के प्रति करुणा सी उत्पन्न होने लगी।हर व्यक्ति का कोई कमज़ोर पहलू होता है—-उसने सोचा वह सब लांछनाएँ सह सकता है लेकिन उस पहलू को छू-भर देना उसके लिए असह्य हो जाता है।कितनी अजीब बात है! अपने सब दोषों के बावजूदआदमी के भीतर कहीं-न-कहीं एक असीम नैतिक संवेदनशीलता छिपी रहती है!—-ज़रा उसकी गुप्त-कमज़ोरी पर अंगुली तो रख दो वह पीड़ा-आक्रोश से चीख़  उठेगा।क्या ऐसा तो नहीं है कि अपराधी पर निर्णय देने के बजाय हम केवल अपराध पीड़ित व्यक्ति पर निर्णय  देते हैं?”(8) चापेक सत्ता और आम जन के दाता- याचक के संबंध को समाप्त करना चाहते हैं।

 इसप्रकार चापेक के पात्र अपनेपन की भावना के लिए तड़पते हैं। बीसवीं शताब्दी के यूरीपीय समाज में शिथिल होते पारिवारिक और वैवाहिक संदर्भों में  एकाकीपन की भावना आधुकनिकतावाद  का सबसे बड़ा ख़तरा बन रही थी और संवेदन शून्य होना सबसे बड़ा यथार्थ । ऐसे में स्वयं को व्यक्ति किस जगह रखे ताकि संबंधों के तार परिभाषित हों।चापेक की “ दो बाप” कहानी इसका सशक्त उदाहरण है।

उनकी “दो बाप” कहानी एक छोटी बच्ची की शवयात्रा की कहानी है । छोटी बच्ची का पिता, जो उसका जैविक पिता नहीं है लेकिन जिसने उस बच्ची की हँसी और खिलखिलाहट से शून्यता को भरा है  आवाक  शव के साथ चल रहा है और माँ जो पति से कोई रिश्ता नहीं रखती इस सबसे उदासीन है ।उसका पूर्व प्रेमी जो शव यात्रा में संगीत संचालक है  और बच्ची का पिता है  युवावस्था की बेफ़िक्री में मस्त है।शवयात्रा में सम्मिलित सभी पात्र सामाजिक चलन के अनुरूप सहानुभूति प्रदान कर  श्मशान भूमि से  धीरे धीरे अपने घरों को लौट रहे हैं  और केवल रह जाता है कब्र  खोदनेवाला मज़दूर ,जो  फावड़े-मिट्टी उठा उठा कर दो पिताओं के बच्चे को दफ़ना रहा है ।

इस कहानी में शवयात्रा का इतना तटस्थ चित्रण है कि समाज की प्रतिक्रियाएं ,माँ की उदासीनता और अंत में रुदन और हास्य के बीच मीलों फैली शून्यता पाठक को विचलित कर जाती है।  त्रासदी का इतना मर्मस्पर्शी चित्रण कम ही दिखाई देता है।

चापेक आधुनिक समाज के स्वप्न और यथार्थ को पहचान रहे थे ।प्रथम विश्व युद्ध ने जिन वास्तविकताओं को उजागर किया था उनके समकक्ष वर्गहीन समाज सिद्धान्त तक ही सिमटता दिखाई दे रहा था। समाज में नए पदानुक्रम दिखाई दे रहा थे, जहाँ पुलिस, न्याय पालिका, प्रशासन अनेक ऐसे शक्तिशाली संस्थान खड़े हो गए है जो केवल छवि निर्माण में लगे थे और आम जन इन सबसे कोसों दूर।जिसप्रकार साम्राज्यवादी शक्तियों ने शहरों का ध्रुवीकरण किया था उसी प्रकार सर्वहारा और विशिष्ट वर्ग का भेद  स्पष्टतः दिखाई  देने लगा था। निर्मल वर्मा लिखते है “यह एक निर्मम व्यंग की स्थिति थी कि जिस उदारवादी परंपरा के मूल्यों में चापेक का इतना गहरा विश्वास था,वे उनके समय में ही मुरझाने लगे थे।”(9) चापेक इस बदलाव के साक्षी रहे और फ़ासीवादी सत्ताओं से उनका विरोध उनके साहित्य में झलकता रहा। उनकी की बहुत सी कहानियां न्याय प्रणाली प्रशासन पर कटु प्रहार करती हैं।

 आम आदमी के लिए न्याय की आकांक्षा उनकी ‘टेल फ़्रॉम टू पॉकेट ‘ की कहानियों में मिलती है। ये कहानियाँ अपने समय की जासूसी कहानियों से प्रभावित हैं लेकिन चापेक इन कहानियों में रहस्यों को सुलझानें के उतने आकांक्षी नहीं जितने सामान्य मनुष्य की उलझनों को समझनें में प्रयासरत हैं।  “Capek was equally intrigued by the idea of creating a different type of  mystery story,one which depicted ordinary human beings caught up in highly un-ordinary,often extraordinary situations and circumstances .And as much of his writings,the Pocket Tales were an attempt to identify. “the various roads that lead to the knowledge of truth.”(10)  “प्रत्यक्ष -प्रमाण” कहानी में बड़े ही मनोरंजक ढंग से विश्लेषित किया गया है कि न्यायाधीश के समक्ष जब ज़िरह चल रही होती है तो अभियुक्त ,गवाह और वकील सभी अधिकांश झूठ और थोड़े सत्य का सहारा लेकर न्यायालय में नाटक सा करते हैं। ऐसे समय में उस झूठ में से सच को निकालना अत्यंत कठिन होता है। “प्रत्यक्ष- प्रमाण” कहानी में मैजिस्ट्रेट अपने मित्र टॉनिक से कहता है  “ मैं उस क्षण तक अविकल धैर्य से प्रतीक्षा करता रहता हूँ जब तक झूठ और बहानों (जिन्हें क़ानून के विशेषज्ञ के आत्म स्वीकृति कहते हैं) के बीच अचानक   अजाने  में सत्य प्रकट  नहीं हो जाता।”(11) सत्य कितना तरल है इसका खुलासा भी इस कहानी में हो जाता है।

 “सेल्विन का केस” कहानी में भी न्याय अन्याय को लेकर इसी प्रकार का ऊहापोह दिखाई देता है।बात इतनी ही है कि  बुद्धिजीवी वर्ग और न्याय व्यवस्था दोनों अपनी छवि निर्माण में व्यस्त हैं। कथा नायक लियोनार्ड अपनी साहित्यिक सफलता की चर्चा न कर अपनी  विनम्रता और दया भाव पर गर्व करता उसका बखान करने में मशगूल है। उसने एक बुढ़िया  की दुःखद कथा सुनकर कि उसके पुत्र पर हत्या का इल्ज़ाम लगाकर  उसे आजीवन कारावास की सज़ा सुना दी गई है ,कथा वाचक अख़बारों में लेख लिख न्याय व्यस्था पर सवाल खड़े करता है  ।जूरी ने सरकारी वकील की दलील पर कि कोर्ट पहले भी दो अभियुक्तों को छोड़ चुकी है और न्यायालय की छवि को ठेस पहुँची है  सेल्विन को दोषी करार देती है।कथावाचक के लेखों से और सरकारी गवाह के वक्तव्य में बदलाव से सेल्विन सात वर्ष बाद जेल से रिहा हो जाता है । कथा वाचक इस विजय से इतना प्रसन्न है कि सेल्विन के खुलासे से कि  उसी ने हत्या की थी ,वह उससे चिंतित नहीं है वरन् इस बात से फूला नहीं समा रहा की दुनिया  उसे सत्य  के योद्धा के रूप में याद  रखेगी । चापेक की “ पद-चिन्ह” कहानी में भी पुलिस सिर्फ़ व्यवस्था क़ायम रखने के लिए है ,संशय से उसका सरोकार नहीं वह सिर्फ़ घटित को ही सुलझाने के लिए कटिबद्ध है।कच्चा-रंग,हत्या की चोरी,संगीत-कंडक्टर की कहानी,एक साधारण हत्या आदि अनेक कहानियों में आम आदमी, पुलिस की भूमिका और न्याय व्यवस्था का चित्रण मात्र यूरोप या चेकोस्लोवाकिया का आम जन का ही नहीं सभी समाजों का सत्य है।चापेक व्यक्ति की दृष्टि से इस सत्य को उदघाटित करते हैं।निर्मल वर्मा लिखते हैं, “चापेक ने अपने साहित्य में हर व्यक्ति के ‘निजी सत्य’ को खोजने का संघर्ष किया था-एक भेद और रहस्य और मर्म,जो साधारण ज़िंदगी की औसत और क्षुद्र घटनाओं के नीचे दबा रहता है।” (12)

इसप्रकार चापेक अपने रचनासंसार में संस्थाओं की विसंगतियों को रेखांकित करते चलते हैं । संस्थाएँ  यह भ्रम बराबर बनाएँ रखती हैं कि वे सिद्धांत और नियम के अनूरूप ही चलेंगी और सत्य यह भी है कि ये नियम और सिद्धांत कब बदल जाते हैं  इससे आम आदमी की कोई दख़लंदाज़ी नहीं होनी चाहिए। वस्तुतः चापेक की कहानियाँ एक प्रश्नाकुल मनःस्थिति की मार्मिक अभिव्यंजनाएँ हैं ।

संदर्भ:

1.Identity becomes an issue: European literature in 1920s – journal, Cambridge core, Cambridge University, Press, volume five, issue two, August 2008.

2.टिकट-संग्रह-कारेल कापेक की कहानियाँ ,अनुवाद-निर्मल वर्मा,राजकमलप्रकाशन,दिल्ली संस्करण 2003, पृष्ठ-6

  1. Karel Capek – apocryphal tales, Famioyebode.com, 2019/11/21

4.टिकट-संग्रह-कारेल कापेक की कहानियाँ,अनुवाद निर्मल वर्मा,राजकमल प्रकाशन,दिल्ली, संस्करण 2003, पृष्ठ- 118

  1. वही- पृष्ठ 23

6.कर्मभूमि- प्रेमचंद,नटराज प्रकाशन,संस्करण-2017,

पृष्ठ-24

  1. टिकेट संग्रह- कारेल कापके की कहानियाँ,अनुवाद निर्मल वर्मा,राजकमलप्रकाशन,दिल्ली,संस्करण 2003,पृष्ठ-31
  2. वही-पृष्ठ -42

9.वही -पृष्ठ- 7

  1. Tales from two pockets – Karel Capek,adamantcritique.files.Wordpress.com/2014/7.

11.टिकट संग्रह -कारेल कापेक की कहानियाँ अनुवाद- निर्मल वर्मा,राजकमल प्रकाशन ,संस्करण -2003 ,पृष्ठ-54

  1. वही- पृष्ठ -6

 डॉ. मीनू गेरा
 एसोसियेट प्रोफेसर
 श्यामाप्रसाद मुखर्जी महाविद्यालय
 दिल्ली विश्वविद्यालय