‘‘गोशे गोशे में सुलगती है चिता तेरे लिए,

        फर्ज का भेष बदलती है कजा तेरे लिए,

        कहर है तेरी हर एक नर्म अदा तेरे लिए

        जहर ही जहर है दुनिया की हवा तेरे लिए,

        रूत बदल डाल अगर फलना फूलना है तुझे,

        उठ! मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे…!!’’

        ये चन्द खूबसूरत पंक्तियांॅ हैं, ‘कैफी आजमी साहब’ की मशहूर कविता ‘औरत’ के, और बेशक्…मेरी पसंदीदा भी।

        अचानक कोई पसंदीदा बात या कुछ पंक्तियांॅ जेहन में आ जायें, या कुछ लिखते-पढ़ते हुए दिख जायें, तो उससे जुड़े कुछ लोग, उनकी बातें, उनसे जुड़े अनुभव…कुछ खट्टे-मीठे प्रसंग…आदि बरबस ही स्मृति-पटल पर दस्तक देने लगते हैं।

        स्कूली दिनों में गौरी मेरे साथ ही पढ़ती थी। गौरी के पिता जी अक्सर ही ये नज्म सुनाया करते थे। मैं गौरी के पिता जी से शास्त्रीय-संगीत सीखने नियमित रूप से उनके घर जाया करता था। गायन-वादन अभ्यास के दौरान वो गौरी को भी अपने पास बिठा लेते। जाहिर है, मेरे संग गौरी भी अपने पिता से संगीत की बारीकियांॅ सीख रही थी। उस संग बचपन में बिताए गये खुशनुमा दिनों की ढ़ेरों खट्टी-मीठी यादें आज भी मेरे जेहन में तरोताजा हैं। उन पलों की जब भी याद आती है, मन-मस्तिष्क में स्मृतियों के ढेरों रंग-बिरंगे कोलॉज से बनने-संवरने लगते हैं।

        बहुत दिनों से गौरी की कुछ खोज-खबर नहीं मिली। आज काफी समय बाद जब गांॅव आया तो पता चला…वो तो महीनों से अपने मायके में ही रह रही है। मन  अनजान आशंकाओं से घिर उठा। उसके बारे में तफसील से जानने की उत्कण्ठा हुई। सोचा…गौरी के घर ही चल कर पता किया जाय, क्या हाल-चाल हैं गौरी के…?

        गौरी और उसके घर वालों से मुलाकत तो हुई, पर गौरी की खोज-खबर लेते, काफी समय से गौरी के यंूॅ मायके में पड़े रहने के कारणों के बारे में जानने, उसके प्रति ससुराल वालों के व्यवहार, उनकी बातों-उलाहनों को सुनते-सुनाते…गौरी के चेहरे पर झलकते दर्द, उसकी निस्तेज हो रही आभा को सहज ही समझा, देखा, महसूस किया जा सकता था। मेरे अतिशय अपनापा दर्शाने पर…थोड़ी-बहुत झिझक-हिचकिचाहट के बाद तो वो और उसके परिवारीजन, जैसे फट ही पड़े।

        ‘‘मैं तो दिन गिन रहा हंूॅ…एक-एक दिन। बिलावजह ही कोई रार नहीं ठानना चाहता। आखिर रिश्ते को बचाये रखने की जिम्मेदारी उनकी भी तो है। गौरी अगर हमारी बिटिया है, तो उनकी भी तो बहू है। फिर निहोरा-चिरौरी किस बात की? आखिर, हमारी भी इज्जत है बिरादरी में, गांॅव-जवार में? अन्ततः तो उन्हें हंॅसी-खुशी बिदा कराके इसे ले जाना ही होगा।’’ गौरी के पिता जी ने कुछ इस तरह अपनी पीड़ा, अपना रोष प्रकट किया।

       ‘‘मैंने भी कोई कच्ची गोलियांॅ नहीं खेली हैं। ईंट से ईंट बजा दंूॅगा। मंॅॅूछें मंुॅड़ा लंूॅगा, नाम बदल दंूॅगा, पर उन बेशर्मों के आगे हाथ-गोड़ नहीं जोडंॅूंगा। समझौतावादी रूख तो कत्तई नहीं अपनाऊंॅगा। नाक न रगड़वायी अपने दरवज्जे पर…तो मेरा भी नाम उजागिर बाबू नहीं। वो तो गौरी की वजह से चुप हंूॅ अभी तलक, नहीं तो बता देता उन्हें भी आटे-दाल का भाव। कोरट-कचहरी के इतने चक्कर लगवाता-इतने चक्कर लगवाता कि अब तक पचासों पनहियांॅ घिस गयीं होतीं उनकी। पाला पड़ा है किससे, ठेकाने से समझ में आ जाता।’’ गौरी के बड़े भइय्या जो बेहद गुस्से में थे, ने रौब झाड़ते बताया।

       ‘‘समधन जी ने तो हम-सब-जन से बहुत बड़ा धोखा किया है। अगर कोई शिकायत थी तो खुल के कह देतीं। हम तो खुल के बातचीत करने और कहने में विश्वास रखते हैं। सच बात के हिमायती हैं। ये क्या कि…मिलने-जुलने वालों से बार-बार गौरी बिटिया के बारे में, कुछ-न-कुछ शिकायतें, उलाहने, ओरहन कहते रहना? अरे…जो कुछ कहना था सबके सामने कहतीं। ई पीठ पीछे का लगाई-बुझाई बतियाती रहती हैं? जाने किस जनम का बदला ले रही हैं ये परपंची समधन जी भी।’’ गौरी की अम्मा ने तनिक तल्ख लहजे में ही शिकायत की।

       ‘‘पर, आप ऐसा क्यों कह रही हैं चाची? आखिर, गौरी का रिश्ता तो देखभाल कर ही किया था आप लोगों ने? सुनते हैं कि ये रिश्ता तो आपके अगुआ-चाचा ने ही बताया था।’’ मैंने अपनी चुप्पी तोड़ते बात का सिरा पकड़ना चाहा।

        ‘‘मति मारी गयी थी हमारी जो अगुआ-चाचा की चिकनी-चुपड़ी बातों में आ गये। अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार बैठे हम-सब-जन। घर-वर ठीक से देखने-सुनने की जहमत में नहीं पड़े, और न लेन-देन…दान-दहेज की ही साफ-साफ बात हुई। न देखा…न देखउव्वल…इधर चट मंॅगनी…उधर पट ब्याह। लड़के वालों के चाल-चरित्तर के बारे में न देखा-ताका ही गया, और न उन्हें ठीक से समझा- बूझा- परखा ही गया। सब कुछ इतनी जल्दी-जल्दी में हुआ कि आगा-पीछी समझने-बूझने-जानने का मौका ही नहीं मिला। उन्हें भी जल्दी थी शादी की और हमें भी चिन्ता थी, दिनों-दिन बढ़ती-जवान होती अपनी गौरी बिटिया की। ऊपर से रमेश बाबू की नौकरी पक्की है भी या नहीं, ये तक पता नहीं कर पाये गौरी के बापू। लड़के वालों की सामाजिक हैसियत…घर-दुवार…नौकरी-चाकरी, कुछ भी तो नहीं जान पाये हम लोग।’’

         ‘‘यानि, आप ये कहना चाह रही हैं कि आप लोगों के साथ धोखा हुआ है?’’ सब कुछ जानने की मेरी उत्कंठा, अंकुलाहट बढ़ती ही जा रही थी।

         ‘‘बाप रे बाप…एतना बड़ा धोखा किया न! उन दाढ़ीजारों ने हमारे साथ, पूछो ही मत। बज्जर पड़े…आग लगे….ऐसे नासपीटों के। कहांॅ आतताइयों के घर ब्याह दिया अपनी फूल जैसी बेटी को। बेचारी का तो जैसे किलकना ही बिसर गया। अगर जानती…तो जीते-जी कभी न ढ़केलती, अपनी लाडो…बिटिया रानी को उन मनहंूॅसों-मरदूदों के घर, उस नारकीय अंधेरे कंुएं में। आ जायें अब कभी दरवज्जे पर! ऐसी लानत-मलामत करूंॅगी कि अकिल ठेकाने आ जायेगी। हांॅ नहीं तो।’’ गौरी की अम्मा ने लगभग रूआंसे स्वर अपनी पीड़ा, अपना दुखड़ा कह सुनाया।

        ‘‘मैंने तो कितनी ही बार, कितने ही तरीके से समझाया…देखो दीदी! यंूॅ बात-बात में ससुराल से लड़-झगड़ कर, महीना-दो-महीना पर…मायके आकर रहने से कोई फायदा- वायदा नहीं होने वाला। उल्टे तुम्हारा ही नुकसान  होगा। बात बिगड़ेगी ही।’’ बातचीत के बीच में ही शामिल हुईं गौरी की भाभी के मुंॅह से इतना सुनते, गौरी ने डबडबाई आंॅखों उनकी तरफ देखा था।

        ‘‘हांॅ-हांॅ…मैं कब कह रही हंूॅ कि…सारी गलती आपकी ही है? पर मानेगा भी कौन? आपकी बात पर कोई पतियाएगा भी तो भला क्यों और कैसे? देखो दीदी…ताली दोनों हाथों से बजती है, ये तो तुम भी भली-भांॅति जानती हो, मानती भी हो? किससे-किससे बताती…फरियौता करती-कराती फिरोगी? इहांॅ किसको फुरसत है…फटे में टांॅग अड़ाने की? इहांॅ भी कउन सुखी है? हम-सब-जन भी तो परेशान ही हैं, अपनी-अपनी गिरस्थी में। मुश्किलों में। रोज-रोज की आपाधापी में। इहांॅ तो सभी मगन हैं…अपने आप में। अपने-अपने खोल में। जो भी सुनेगा, हंॅसेगा या दो-चार बातें सुनायेगा ही। ‘ये कर लेती…वो कर लेती…जुबान खोलने के बजाय…दो बात चुपचाप सुन-सह ही लेती…तो इससे आप छोटी…थोड़े न हो जातीं? आखिर, परिवार चलाने के लिए किसे नहीं समझौता करना पड़ता? ये तो आप भी जानती होंगी, जहांॅ चार बरतन होते हैं, आवाज होती ही है?’’ गौरी की भाभी ने मानो मश्विरा दिया हो।

          ‘‘पर क्या मेरा कोई मान-सम्मान, कोई इज्जत, कोई इच्छाएं नहीं है भाभी?’’ गौरी ने रूआंॅसे स्वर अपनी भाभी से प्रति-प्रश्न किया।

          ‘‘इहांॅ गांॅव-जवार में, मायके के लोगों की हील-हुज्जत कराने से तो अच्छा था, चार बात अपनी ससुराल के लोगों की ही सुन लेतीं। इससे घर की बात घर में ही रहती…यंूॅ छीछालेदर तो न होती? ऐसी भद्द पिटने से मायके वालों की भी तो बदनामी होती है कि जाने कैसी कुलच्छिनी जनमी है? ससुराल जाने का नाम ही नहीं लेती। जब देखो…मायके में ही जमीं बैठी रहती है?’’

          ‘‘तो क्या मैं यहांॅ अपनी खुशी से हंूॅ? मेरी हालत बहुत अच्छी है यहांॅ? मैं क्या यहांॅ के हालात, आप सभी की परेशानियांॅ नहीं समझती?’’ इस बार गौरी ने लगभग रोष जताते हुए कहा था।

          ‘‘इहांॅ मेरा भी तो यही हाल है। आपने तो देखा ही होगा। आपसे कुछ भी छुपा है क्या? आपके भइय्या और अम्मा जी की चार बातें दिन-भर सुनती नहीं रहती…क्या मैं भी? उनके नाज-नखरे-चोंचले, बर्दाश्त नहीं करती रहती…क्या मैं भी? बात-बात पर समझौता करती नहीं रहती…क्या मैं भी? फिर भी सब-कुछ सहते-सुनते, रह रही हंूॅ, एडजॅस्ट कर रही हंूॅ न! मैं भी? आखिर तो अब वही आपका घर है न!…कहा भी जाता है कि…‘लड़की की जहांॅ डोली जाती है, अर्थी भी वहीं से निकलती है।’’ गौरी की भाभी ने इस बार उसे प्यार से समझाना चाहा।

        ‘‘पर आप लोगों की इस लागडॉट, नाक की लड़ाई में मेरी क्या गलती है?’’ गौरी ने प्रतिकार किया था।

         ‘‘कितनी ही बार, कितने ही मौकों पर, कितने ही तरीकों से समझाया होगा कि कुछ सहना-सुनना भी सीखिये। जरूरी नहीं कि हर बात का जवाब दिया ही जाय। अरे! कुछ बातें तो सिरफ सुनाने के लिये ही कही जाती हैं। कुछ लोगों की तो आदत ही होती है…बात का बतंगड़ बनाने की। बिलावजह ही टांॅग खिंचाई करने की। जब-तक कि अगड़म-बगड़म-सगड़म सा कुछ जद्-बद् बोल-बतिया न लें। किसी से चार बातें लगा-बुझा न लें तो खाया-पिया पचता ही नहीं उनका। जैसे कि…‘आज सब्जी में नमक कम है, कल बहुत ज्यादा था।’…‘आज सब्जी में पानी ज्यादा है, कल तो इस कदर सूखी थी कि घोंटा ही नहीं जा रहा था।’…‘मांड़ ज्यादा हो जाने के कारण चावल गीला हो गया है, खिला-खिला सा नहीं लग रहा है।’…‘दाल इतनी पानीदार, पतली क्यों है?’…‘सब्जी में खालिस मिर्चा ही झोंक दिया है। मुंॅह भंभाने लगा, खाया ही नहीं जा रहा है। क्या तुम्हारे घर वालों ने कुछ सिखाया नहीं तुम्हें?’…‘आज फलनियांॅ तो कुछ ज्यादा ही चमक रही थी।’…‘आजकल त चिलनियांॅ के पैर ही जमीन पर नहीं पड़ते।’…‘अलनियांॅ  को तो शहर की हवा लग गयी है, बड़की मेम-साहब बनी मटक-मटक कर चलती-फिरती है।’’…ऐसे लोगों की लाग-लपेट बातों को चुपचाप मंूॅड़ी झुकाये सुन लेना चाहिये। ऐसे मीन-मेखी बतियाने वाले लोगों की चार बातें सुन लेने में देह में गड्ढ़ा नहीं पड़ जाता। कुछ समझीं कि नहीं समझीं दीदी?’’ गौरी और उसकी भाभी के बीच कुछ देर तक इसी तरह संवाद चलता रहा।

         ऐसी देश- काल- स्थिति-परिस्थिति में अब गौरी आगे क्या करे? बचपन में जिसे हमेशा हंॅसते-खिलखिलाते देखा था। गौरी का क्लान्त, निस्तेज चेहरा मुझे भूल नहीं रहा था। उसे देखकर ऐसा लग रहा था मानो, घर, आस-पड़ोस, गली में खेलते, शोर मचाते, दौड़ते बच्चो के शोर-गुल का उस पर कोई असर नहीं। बैठकखाने की खिड़की से झांॅकते शहतूत की डालियों पर चहकते पक्षियों के कलरव पर उसका जरा भी ध्यान नहीं। क्या वो इस कदर मायूस है? नहीं…! गौरी को मजबूत होना होगा। फिर…आज के समय में जब कैरियर बनाने के ढ़ेर सारे ऑप्शन्स मौजूद हों, तो उसे भी मजबूत बनना होगा। अपने आसपास की गुनगुनी धूप, मलय-समीर को महसूस करनी होगी। तारों भरा आसमान निहारना होगा। खुले गगन में उड़ना होगा।

          ‘‘बेटी! सत्यजीत बाबू को अपने कमरे में बिठाओ। इन्हें कुछ चाय-नाश्ता भी तो कराओ, या खाली बतकुच्चन ही होती रहेगी?’’ गौरी और उसके घर के लोगों की बातों को सुनते, गौरी के दर्द को समझते, मैं कुछ देर और वहीं गुमसुम सा बैठा रहा कि मुझे गमगीन देख गौरी की मांॅ ने मुझे चाय-नाश्ता देने के लिए गौरी से कहा।

         ‘‘सत्यजीत बाबू, आप यहांॅ मेरे कमरे में आ जाइये। यहांॅ बैठकी में अभी बाबू जी के शिष्यगण आ रहे होंगे। संगीत सीखने का समय हो चला है।’’ अपनी मांॅ की पुकार पर अकबकाई सी गौरी ने मायूसी भरे चेहरे पर हल्की मुस्कान लाते, मुझसे निवेदन किया था।

          मुझे अपने कमरे में बिठाकर गौरी चाय बनाने चली गयी। मैं कमरे का मुआयना करने लगा। बेहद सादगी भरा और कुछ-कुछ मौन सा कमरा था, जो गौरी के निरूत्साह से दैनन्दिन को बयां कर रहा था। कमरे में एक तख्त, जिस पर बिस्तर मोड़कर रखा हुआ था। एक साफ-सुथरे मेजपोश बिछे टेबल के सामने कुर्सी लगी हुई थी। टेबल पर तरतीब से लगी पांॅच-छः किताबें और एक डॉयरी भी दिखी। ध्यान दिया तो डॉयरी के बीच में एक पेन भी दबा हुआ था। उत्सुकतावश मैंने उस डॉयरी को खोला तो उसमें दैनन्दिन के छोटे-छोटे प्रसंगों पर बाकायदे तिथि अंकित करते हुए, अखबार या पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित महापुरूषों की सूक्तियांॅ आदि लिखी हुईं थीं। जैसे…‘देखा जाय तो हम सभी कहीं-न-कहीं अपने अकेलेपन से जूझ रहे हैं। परन्तु जिसने इसे एकान्तवास में बदल लिया, उसने जीवन-रहस्य को समझ लिया।’

        एक पेज पर तो दार्शनिक बातें भी लिखीं थीं…‘कभी-कभी तो लगता है कि महानताओं को भी कहीं-न-कहीं आदर्शवादिता से समझौता करना पड़ जाता है। देखा जाय तो प्रकृति में भी आदर्श परिस्थितियांॅ कहांॅ हैं? बारोमास कुछ-न-कुछ बाढ़, सूखा, अकाल, आपदा, महामारी आदि लगा ही रहता है। ऐसे में आदर्श स्थिति या पूर्ण आदर्शवाद की तो कल्पना ही की जा सकती है।’

          ‘अनजान इन्सानों को तो हम थोड़ी ही देर में पूरी तरह समझ लेने का दावा कर लेते हैं, परन्तु बेहद करीबी, अपने नाते-रिश्तेदारों, दोस्तों आदि को हम ता-उम्र समझते रहते हैं।’…पता नहीं ये बातें गौरी ने किस सन्दर्भ और किन देश-काल-स्थिति-परिस्थितियों में लिखी होगी?

          डॉयरी के अगले पन्नों पर ‘बाराख़ड़ी, एडिटिंग की गुंजायश, सूरज-चांॅद-सितारे, सनद रहे’ आदि अलग- अलग शीर्षकों से कुछ छोटी-बड़ी अनगढ़ सी कविता पंक्तियांॅ भी लिखी दिखीं।

         उसकी डायरी और उसमें लिखे कुछ कविता-अंश पढ़कर स्तब्ध रह गया मैं। मैंने गौरी के घर वालों को आश्वस्त किया कि मुझे सुबह ही ‘सिवान बाजार गांॅव’ जाना है। कोशिश करूंॅगा कि गौरी के ससुराल वालों से भी मिलकर वास्तविकता जान सकंूॅ।

         गौरी के परिवार वालों से विदा लेकर घर लौटते वक्त रास्ते-भर ढ़ेरों बातें मेरे मन में आलोड़न-विलोड़न होती रहीं। गौरी का क्लान्त, निस्प्राण सा चेहरा बार-बार मेरी आंॅखों के सामने घूम जाता। कितना हाहाकार…कितनी पीड़ा समेटे हुए थीं वो अपने आंॅचल में? कोई जान भी पायेगा कभी उसके दुःख-दर्द को?

         पूरी रात गौरी के ही बारे में  सोचते, बिस्तर पर उलट-पलट होता रहा। सुबह गौरी के ससुराल वालों से मिलने का इरादा कर उसके ससुराल ‘सिवान बाजार गांॅव’, जो मेरे घर से लगभग पन्द्रह किलोमीटर ही दूर था, चला गया। उम्मीद के विपरीत…गौरी के ससुराल वालों से गौरी को लेकर तो कुछ और ही सुनने को मिला। जिससे मेरा मन गौरी के भविष्य को लेकर अतिशय आशंका और भय से भर गया।

         ‘‘देखता हंॅू कब तलक अपने घर में रखे रहेंगे? कब तलक यंूॅ अपनी लाडो को घर में बिठा कर खिलायेंगे? पहल नहीं करेंगे, बात नहीं करेंगे, हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे? एक-न-एक दिन तो उनकी अक्ल ठिकाने आ ही जायेगी। नाक रगड़ेंगे मेरी चौखट पर, तब भी बिदा कराने नहीं जाऊंॅगा। अरे! विदा कराना तो दूर, सोचंूॅगा भी नहीं उसके बारे में। जिद अगर उनकी है…तो जिद मेरी भी है। बिदा तो करना ही पड़ेगा उन्हें एक-न-एक दिन…झक्क् मारके। तब पूछंूॅगा…क्यंूॅ निकल गयी सारी हेकड़ी? सारा ऐंठन? निकल गये अरमान, घर में ब्याहता बेटी को बिठाए रखने के, जो अपनी गरज जान के आये हो छोड़ने उसे यहांॅ? बड़ेे आये मुझसे पहल की उम्मीद रखने वाले।’’ ऐसे तो विचार, गौरी के पति महाशय के थे।

         ‘‘हमने तो सोचा था लक्ष्मी जैसी बहू आयेगी, घर-दुआर चहंुॅओर उजियार हो जायेगा। भाग संवर जायेंगे। धन-धान्य से घर भर जायेगा हमारा। दंूॅगी आशीर्वाद उसे भर-भर हाथों…‘दूधो नहाओ, पूतो फलो’ का। पर वो तो निकली कुलच्छिनी, घर फुंॅकनी, घर उजाड़ू? पता नहीं रमेशवा के बाबूजी ने पोथी-पत्रा देखा कर बहू के सारे गुण ठीक से मिलवाए भी थे या नहीं? मुझे तो उसके एक भी गुण अपने बेटे से मिलते-जुलते नहीं दिखते। ऐसी चाल-चलन…ऐसे लच्छन…ऐसा तिरियाचरित्तर? हे भगवान! हमारे लड़के के तो जैसे करम ही फूट गये। उढ़री कहीं की?’’ गौरी की सासू मांॅ तो बस शुरू हो गयीं। पता नहीं कितनी शिकायतें, उलाहने थीं उनके पास?…‘पर सारी गलती गौरी की ही तो नहीं होगी?’ पूछने का मन हुआ, पर हिम्मत नहीं जुटा सका। मैं वहांॅ बात बनाने गया था, बिगाड़ने नहीं।

         ‘‘वो दिन और आज का दिन…ऊपर वाला झूठ न बुलवाये हमसे, हमारी तो वैसे भी थुक्का-फजीहत हो रही है, जग-हंॅसाई हो रही है। उसकी वजह से हम कहीं मुंॅह दिखाने लायक नहीं रहे। बिना किसी बात के, बहू के घर छोड़ जाने की वजह से तो हमारी नाक ही कट गयी बीच-बाजार में। उसी के कारण नीचा देखना पड़ा लोगों के बीच हमें। अब तो आस-पड़ोस के लोग भी कहने लगे हैं…‘रमेशवाऽबउ अइसन चरित्तर देखलायेगी…बात-बात में छहंत्तर बतियायेगी, ऊ करमजली को देख केऽ कोई कहेगा भला?’ कहांॅ कंगलों के घर ब्याह दिया हमने भी अपने हीरे जैसे बेटे को।’’ गौरी की सासू मांॅ के पास उलाहनों-तानों की कमी नहीं थी। अगर बीच में ही उनकी बड़ी बहू न आ जातीं तो गौरी को लेकर और भी जाने क्या-क्या सुनना पड़ता उसकी सासू मांॅ के श्रीमुख से?

        ‘‘मैंने भी कहांॅ कसर छोड़ी थी। उसकी सेवा-सुश्रुशा में दिन-रात एक किये रहती थी। बिलकुल छोटी बहन के मानिन्द मानती थी। उसकी हर मांॅग को उसके मंुॅह खोलने के पहले ही भांॅप लेती। बिना ज्यादा कुछ  पूछे-ताछे ही पूरा कर देती थी। यहांॅ तक कि इस घर में उसे कभी भी, कहीं भी घूूमने-फिरने, आने-जाने, कुछ-भी पहनने-ओढ़ने की पूरी आजादी थी। घर की कोई बड़ी जिम्मेदारी भी तो नहीं दे रखी थी हमने। दूर ही रखा था उसे घर गिरस्थी के तमाम परपंचों-झमेलों से। सोचा था कि अभी तो बच्ची है, घर-परिवार का ज्यादा बोझ सहन नहीं कर पायेगी। असमय ही बड़ी जिम्मेदारी देने से टूट जायेगी। पर उससे ऐसी उम्मीद नहीं थी। जिस थाली में खाती रही…उसी में छेद किया? तिस पर क्या-क्या सुनने को नहीं मिला, उस नामुराद के बारे में? हे भगवान!…भलाई का तो अब जमाना ही नहीं रहा।’’ ये विचार थे गौरी की जेठानी जी के।

         ‘‘कितना खयाल रखती थीं चाची हम-सब-जन का? शायद अम्मा से भी एक कदम आगे बढ़ कर। परीक्षा की तैय्यारी के दिनों में तो रात-रात भर वो हम दोनों भाई-बहनों के सिर पर एक मांॅ, बड़ी बहन की तरह माथे पर हाथ फेरते, हमारे बालों में तेल लगाते, हमारा सिर दबा देतीं। हमें देर रात तक पढ़ते-लिखते देख, रात-बिरात, बिना अलसाये, बेझिझक, तुलसी-अदरक- कालीमिर्च वाली चाय या कॉफी बना कर पिला देतीं। चाची कम, एक आदर्श नौकरानी की भांॅति, सदैव मुस्तैद रहतीं। हमारे इर्द-गिर्द उनकी उपस्थिति मात्र से ही, पढ़ाई का सारा टेंशन, सिर दर्द एकदम्म से उड़न-छू हो जाता। उनके रहने से पूरे घर को चाय-नाश्ता-भोजन-पानी सब कुछ बिलकुल सही वक्त पर मिल जाता। दादी तो कभी घुटनों के दर्द से, तो कभी अधकपारी की वजह से चारपाई ही नहीं छोड़तीं। वो ठीक से चल-फिर भी नहीं पातीं। उनका खाना-पीना, औंचना-ओठंगना सब कुछ चारपाई पर ही होता था। ठाठ थे हम-सब-जन के तो।’’ थोड़ी देर के लिए मुझे बैठक में अकेले देख, गौरी के भतीजे, भतीजी भी मेरे पास आ गये, और नमस्ते करने के बाद उन्होंने भी अपनी व्यथा-कथा कह सुनाई।

         ‘‘लेकिन, सब कुछ जानते-बूझते-समझते हुए भी आप लोगों ने अपने घर वालों को कुछ नहीं कहा?’’ मैंने उनसे जानना चाहा।

         ‘‘ऐसा नहीं है चाचा जी। हमें तो उनकी कमी सबसे ज्यादा खल रही है। अब अगर वो अपनी पढ़ाई आगे जारी रखने वास्ते, कुछ समय तक सन्तान नहीं चाहती थीं., तो क्या हुआ? हमारी तो उन्होंने अपने सन्तान की तरह ही देख-भाल की। वक्त-बेवक्त जब भी कुछ मांॅगा खाने-पीने को, निःसंकोच खिलाया-पिलाया। अफसोस! कि उनका दर्द…इस घर में कोई नहीं समझ सका? पर, हम भी क्या कर सकते हैं? घर के बड़े-बुजुर्गों पर तो हम छोटों का कुछ वश ही नहीं चलता न!’’

         गौरी के घर-परिवार, उसके ससुराल वालों की बातें जानने-सुनने के बाद कुछ देर तक यंूॅ ही विचार-मग्न सोचता रहा कि सबको सिर्फ अपनी पड़ी है। यहांॅ किसी को भी गौरी की मनःस्थिति को जानने, उसके दुःख-दर्द से कुछ नहीं लेना-देना। गौरी अब करे तो क्या करे? किससे कहे अपने दिल की व्यथा-कथा? जो पिस रही है जाने कब से…मायके-ससुराल वालों के चढ़ा-ऊपरी, झूठे अहंकार के बीच?

         गौरी तो न मायके वालों का अपमान सह सकती है, और न प्रतिकार ही कर सकती है अपने ससुराल वालों का। उसे तो बचपन से यही सिखाया गया था, यही घुट्टी पिलाई गयी थी…‘लड़की का बचपन अगर मायके में बीता, तो उसे बाकी उमर ससुराल में गुजारनी होती है।’ उसके लिये तो दोनों ही पक्ष बराबर हैं, अजीज हैं। वो तो हर हाल में दोनों परिवारों की इज्जत-प्रतिष्ठा…मान-मर्यादा, बनाये-संजोये रखने वास्ते प्रतिबद्ध है। वो दई-मारी तो पिस के रह गयी, मायके-ससुराल रूपी इन दो पाटन के बीच। उसके इस हालात पर सोचते मुझे बरबस ही हाल में सुने पं. छन्नूलाल मिश्र जी के गाए इस शास्त्रीय गीत…‘‘कौन सी डोर खींचे कौन सी काटे रेऽ…’’ की याद हो आयी।

         मुझे ध्यान है। बल्कि अच्छी तरह याद भी है, पिछली दफा जब गौरी से भेंट हुई थी तो उसने बताया भी था कि शादी के बाद वो अपनी पढ़ाई, आधी-अधूरी ही छोड़-छाड़ कर पति के घर चली गई थी। अब वो अपनी अधूरी पढा़ई पूरी करने में तन-मन-धन से प्रयास करना चाहती है। लेकिन, पढ़ाई पूरी करने की गरजवश बस्स, कुछेक और साल तक बच्चा नहीं चाहती थी। उसने तो परिवारीजनों से बस्स…यही एक छोटी सी इच्छा जाहिर की थी।

         दबी जुबान मुझे यह भी सुनने को मिला कि बी.ए. का प्राइवेट-फॉर्म भरने के बाद गौरी अपने पड़ोसी अवनि बाबू से पढ़ाई के सिलसिले में चन्द किताबें, कुछ पुराने नोट्स वगैरह भी मांग लाई थी। उसे क्या पता था कि इस छोटी सी बात का बन जायेगा बतंगड़ इतना? जन्म-जन्मान्तर के रिश्तों की डोर इस कदर कच्ची साबित होगी कि एक झटके में ही चटक जायेगी? घर में बवण्डर खड़ा हो जायेगा?

         फिलहाल तो…गौरी की समस्या का समाधान और उसकी जिन्दगी की अनिश्चितताओं भरी कहानी का अंत नहीं सूझ रहा। सुनते हैं…ऊपर वाला बड़ा कारसाज है, कोई-न-कोई रास्ता अवश्य निकालेगा। जहांॅ तक गौरी को मैं जानता हंूॅ, वो धुन्नी है। हिम्मती है। उसमें कुछ कर दिखाने का जज्बा-जोश और जुनून भी है। पर कहीं-न-कहीं वो अपनी इस जादुई-शक्ति से अनजान है। मुझे उम्मीद है, पक्का विश्वास भी कि उसके दिन अवश्य बहुरेंगे। पर एक मेरे सोचने, उम्मीद करने भर से क्या होगा? जब-तक कि उसके परिवारीजनों की मनःस्थिति नहीं बदलेगी? अब गौरी आगे क्या करेगी? क्या वो अपने पति को माफ कर देगी? ससुराल वाले अपनी जिद छोड़ उसे लेने आ जायेंगे? या वो अपनी पढ़ाई मायके में रहकर ही पूरा करेगी? इन्हीं सब विचारों में ऊभ-चूभ होते मुझे नींद कब लग गयी, पता ही नहीं चला।

         ‘‘जब जानकीनाथ…सहाय भयोऽ…’’…मेरी नींद खुली, गौरी के छत से आ रहे इस मधुर गायन से। मुझे गौरी की आवाज पहचानने में दिक्कत नहीं हुई। गौरी, शास्त्रीय- संगीत का अभ्यास कर रही थी। क्या पता…? वो संगीत के माध्यम से ही अपने दुःख-दर्द पर विजय पाना चाहती हो? ठीक ही तो है, उस दिन मैंने गौरी की डायरी भी तो पढ़ी थी,  कितना लाजवाब गद्य और पद्य लिखती है? मैं तो यही चाहंूॅगा कि गौरी पूरे जोशो-जुनून के साथ लिखन्त-पढ़न्त या संगीत-साधना में ही जुट जाये। क्या पता…इन्हीं में से किसी क्षेत्र में वो कुछ बड़ा नाम कर सके? गौरी के पढ़ने-लिखने, संगीत सीखने की ललक, उसकी नैसर्गिक-प्रतिभा को देखते मैं तो यही कहंूॅगा…‘रूत बदल डाल अगर फलना-फूलना है तुझे…उठ! मेरी जान…।’

राम नगीना मौर्य
लखनऊ , उत्तर प्रदेश

रचनात्मक उपलब्धियांॅ-

  1- प्रकाशन- साहित्य जगत की लगभग सभी लब्धप्रतिष्ठ पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर कहानियांॅ, कविताएं, व्यंग्य, समीक्षाएं व निबन्ध आदि रचनाएं प्रकाशित।

     कई साझा संकलनों में भी रचनाएं प्रकाशित। अब तक निम्न छः कहानी संग्रह प्रकाशितः-

      (1)-आखिरी गेंद,

      (2)-आप कैमरे की निगाह में हैं,

      (3)-सॉफ्ट कॉर्नर,

      (4)-यात्रीगण कृपया ध्यान दें,

      (5)-मन बोहेमियन,

      (6)-आगे से फटा जूता,

  2- पुरस्कार व सम्मान-

     (1)-राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान, उत्तर प्रदेश, द्वारा वर्ष 2016-17 में सतत साहित्य साधना के लिए ‘साहित्य गौरव सम्मान’।

      (2)- राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान, उत्तर प्रदेश, द्वारा हिन्दी भाषा गद्य की मौलिक कृति, कहानी संग्रह ‘‘आखिरी गेंद’’, वर्ष 2017-18 के लिए  ‘‘डॉ0 विद्यानिवास मिश्र’’ पुरस्कार (रू0 1,00,000/-)।

       (3)- कहानी संग्रह, ‘‘आखिरी गेंद’’, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, द्वारा वर्ष- 2017 में रूपये 75 हजार के अन्तर्गत ‘‘यशपाल पुरस्कार’’ ।

        (4)- अखिल हिन्दी साहित्य सभा (अहिसास), नासिक- महाराष्ट्र द्वारा ‘‘राष्ट्रीय हिन्दी साहित्य सम्मान- 2019’’ के अन्तर्गत, कहानी संग्रह ‘‘आप कैमरे की निगाह में हैं’’ को ‘‘साहित्य शिरोमणि सम्मान’’ (रूपये, 5100/-)।

        (5)- साहित्य के क्षेत्र में समर्पण एवं उत्कृष्ट सेवा के लिए ‘साहित्य श्रेणी’ में प्रतिष्ठित ‘‘लोकमत सम्मान-2020’’ से सम्मानित।

        (6)- अदबी उड़ान 5 वें राष्ट्रीय पुरस्कार एवं सम्मान- 2020 के अन्तर्गत कहानी विधा में ‘अदबी उड़ान कहानी साहित्यकार सम्मान’ प्रशस्ति-पत्र।

        (7)- ‘‘गया प्रसाद खरे स्मृति साहित्य, कला एवं खेल संवर्द्धन मंच-भोपाल’’ द्वारा ‘‘शान्ति-गया सम्मान समारोह-2020’’ में कहानी संग्रह ‘‘सॉफ्ट कॉर्नर’’ के लिए ‘‘प्रो0 श्यामनारायण लाल स्मृति सम्मान’’ से अलंकृत।

       (8)- ‘‘मैत्रेय ग्लोबल फाउण्डेशन-अमेठी, उत्तर प्रदेश’’ द्वारा ‘‘इसराजी देवी साहित्य शिरोमणि सम्मान-2022’’ से अलंकृत।

       (9)- साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक उन्नयन हेतु अग्रणी संस्था ‘‘युगधारा फाउण्डेशन-लखनऊ, उत्तर प्रदेश’’ द्वारा दिनांक 08 मई, 2022 को ‘‘पं. प्रताप नारायण मिश्र सम्मान’’ (रूपये, 5100/-) से अलंकृत।

      (10)- ‘‘टाइम इंडिया न्यूज व ऑक्सीटी’’ के संयुक्त तत्वावधान में साहित्यिक क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए दिनांक 03 जुलाई 2022 को ‘‘भारत गौरव सम्मान- 2022’’ से अलंकृत।

सम्प्रति-   राजकीय सेवारत (उत्तर प्रदेश सचिवालय, लखनऊ में विशेष

                             सचिव के पद पर कार्यरत।)