हिंदी का ‘लोक शब्द फोक का पर्यायवाची शब्द है। जिसका अर्थ है जन या ग्राम। अतः लोक का अभिप्राय सर्वसाधारण जनता से है, वह जनता जिसकी व्यक्तिगत पहचान न होकर सामूहिक पहचान होती है जैसे की आदिवासी समाज तथा अन्य किसी भी समाज की तरह इनके लोक में व्याप्त मौखिक परंपरा में जो साहित्य उपलब्ध है वह लोकसाहित्य कहलाता है  इसके संबंध में डॉ. धनेश्वर मांझी लिखते है कि “लोकसाहित्य जन जीवन की जीवंत अभिव्यक्ति है। यह जनता के हृदय का वह उन्मुक्त उद्गार है, जिसमें पीढ़ीयों का समृद्धशाली ज्ञान भंडार सदियों से संचित है। अपने उद्भव से लेकर विकास के जिस चरण में भी मानव समुदाय आज खड़ा है, उसकी समस्त अनुभूतियां लोक साहित्य के द्वारा संप्रेषित होती हैं।”1  संसार के बहुत से समदायों से यह परम्परा प्रायः लुप्त होती जा रही है लेकिन आदिवासी समाज में यह परम्परा कहीं न कहीं आज भी जीवित है जो उनके जन्म से लेकर मृत्यु तक के जीवन यात्रा में अभिन्न रुप से रच बस चुके है और उनका समाज आज जिन मूल्यों व दर्शनों से संचालित है उनको गढ़ने में लोकसाहित्य का स्थान सर्वोपरि है, एक प्रकार से कह सकते है कि आदिवासी जीवन का प्रतिनिधित्व ही लोक साहित्य है। लोकसाहित्य मनुष्य जीवन के आरंभ से ही वाचिक परम्परा द्वारा पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होता आ रहा है इनकी आवश्यकता को दृष्टिकोण में रखते हुए इस बहुमूल्य निधि को संचयित तथा शब्दबद्ध कर स्वतंत्र पाठन के रुप में प्रयोग भी लाया जा रहा है ताकि इसके माध्यम से इस समाज को जिसे हर तरह से हाशियें में रख दिया गया था के जीवन की वास्तविक विशेषताओं को जाना और समझा जा सके। आदिवासी समाज में ऐसी बहुत सी विशेषताएं दिखलाई देती है जो इनके समाज को कई मायने में अन्य की तुलना में बेहतर साबित करने में सक्ष्म है अतः लोकसाहित्य उनके संपूर्ण जीवन को समझने के लिए आवश्यक है। इधर हिंदी साहित्य में इस प्रकार का प्रयास विभिन्न विधाओं  के माध्यम से यह पहल किया जा रहा है। अन्यथा आदिवासी भाषाओं में इनके साहित्य की कोई कमी नहीं है एक प्रकार से कह सकते है कि इनका साहित्य इतना अधिक विस्तृत और वृहद है कि अभी हिंदी साहित्य को इस समृद्ध साहित्य को प्रकाश में लाने के अभी लंबी दूरी और तय करनी है।

                      आज जितने भी आदिवासी से संबंधित रचनाएं लिखी जा रही है उनमें आदिवासी जीवन आधार के रुप में उनके लोकगीतों व लोककथाओं को भी लिया जाता है जिनके बगैर आदिवासी जीवन और साहित्य दोनों ही अधूरा है। कहने सुनने की परम्परा जितनी पुरानी है उतनी ही पुरानी लोककथा भी है। इन कथाओं में समाज के विभिन्न वर्गों, उनकी चारित्रिक एवं सामाजिक विशेषताओं, गुण- दोष आदि को विषय बनाया जाता है, साथ ही पशु-पक्षी कथा, नीति शिक्षा, धार्मिक कथा, अच्छे बुरे शक्तियों के औलोकिक कथाओं को भी विषय बनाया जाता है।

              आदिवासी समाज एक सामुदायिक समाज है जिसमें व्यक्ति विशेष के भाव के स्थान पर सामुदायिक भावों को महत्व दिया जाता है और समुदाय कहने से मात्र मानवों का समुदाय नहीं बल्कि उनके साथ सदियों से  जीवन साझा करते आ रहे समस्त प्रकृति वनप्राणियों, पहाड़- पर्वत, जंगल, नदी निर्झर सम्मिलित है। जिस प्रकार से सभ्य कहे जाने वाले समाज में मनुष्य के निर्मित होने से लेकर स्थापित होने की कथा मिलती है उसी प्रकार से संथालों की उत्पत्ति के संबंध में भी कथा मिलती है और उनके कथाओं में मनुष्य और पशु पक्षी का वर्णन स्थान स्थान पर मिलता रहता  है कहा जाता है कि ठाकुर जिउ और उसकी पत्नी आसमान में रहते थे और बारी -बारी से स्नान करने के लिए पानी में उतरा करते थे। “एक बार ठाकुराइन स्नान कर रही थी तब उनकी हंसुली हड्डी के पास से कुछ मैल निकला ठाकुराइन उस मैल को अपनी हथेलियों में लेकर मलती रही जिससे दो पक्षियों के स्वरुप बन गए। दोनों देखने में बहुत सुंदर लगते थे। इसलिए ठाकुराईन ने ठाकुर जिउ से अनुरोध किया कि वे दोनों में प्राण डाल दें।…ठाकुराइन के हंसली हड्डी की दाहिनी ओर के मैल से जो पक्षी बना था वह हाँस (हंस) कहलाया । वह नर था। उसी प्रकार, बाई ओर के मैल से जो पक्षी बना था वह हांसिल(हंसिनी) कहलायी वह मादा थी। हंस हांसिल दोनों साथ ही रहा करते थे।”2 और दोनों बाद में पृथ्वी में जिस स्थान में स्थपित हुए वह स्थान हिहिड़ि-पिपिड़ी था। और उनके दो बच्चे मानव-शिशुओं के रुप में हुए थे जिन्हें पिलचू हाड़ाम और पिलचू बूढ़ी कहा जाता है। और इन्ही पिलचू हाड़ाम और बूढ़ी से जो बच्चे पैदा हुए वे ही होड़, सानताड़, संथाल या संताल नाम से विख्यात है। यहां देखा जा सकता है कि संथाल आदिवासियों के जीवन की उत्पत्ति पक्षियों से हुई इसलिए इनके जीवन में पशु-पक्षियों का स्थान इतना  महत्वपूर्ण है कि वे इस कदर से भावात्मक रुप से जुड़े है कि उरांवों के लोककथा में पूरी प्रकृति को ही शोकाकुल होते देखा जा सकता है, यह कथा धरती माई की बेटी बिंदी की है “उरांव लोककथा वाली बिंदी जो एक दिन खेलते-खेलते पाताललोक जा पहुंची। वहां से लौटने का सवाल ही नहीं। यहां धरती पर पशु–परेवा-परिंद सब बिलखने लगे। लरंग-लतर, पौधा-दरख्त सब व्याकुल। धरती माई खुद हाहाकार करने लगी। लेकिन पताल देवता मानने को तैयार नहीं। ऐसी–ऐसी वापसी होने लगे तो जन्म-मरण के चक्र का क्या होगा? नहीं हो सकता। बहुत प्रार्थना। बहुत पूजा–इबादत। बहुत मनावन। तब जा कर कुछ बात बनी। थोड़ा सा पसीजे पाताल देवता। जाइए साल में एक बार बिंदी धरती पर जाएगी । फिर क्या था? जब भी बिंदी धरती पर आती …बसंत आ जाता। पेड़-पौध, लतर लरंग सब लाल गुलाबी हरे-जोगिया रंग के कोपलों से लद जाते। जगने लगते, फलने फूलने, झूमने लगते। सखुआ, सरजोम,साखू हरे सफेद फूलों के गुच्छों से गदरा जाते। पशु पक्षी परेवा –परिंद सब मगन हो जाते।” 3

              आदिवासियों का प्रेम प्रकृति के प्रति और प्रकृति का प्रेम उनके प्रति अबाध रुप से दृष्टिगत होता है यही वजह है कि आदिवियों के गोत्र भी पशु, पक्षी और वृक्षों आदि के नाम से जुड़े होते है और ये अपने गोत्र से संबंधित जीवों को मारने की बात तो दूर नुकसान पहुंचाना भी किसी अनिष्ठता का होना समझते है। आदिवासियों के त्यौहार भी प्रकृति से ही जुड़े होते है जो उनके लिए पूजनीय है “सरहुल में सखुआ वृक्ष की पूजा करते आदिवासी त्यौहार के उन दिनों न जमीन खोदते हैं और न ही वृक्ष काटते हैं। इस विश्वास में कि ऐसा करने पर पूरे गांव का ही अनिष्ठ हो जाएगा । इसी प्रकार करमा त्यौहार से भी करम वृक्ष की तीन डालों को लाकर अखाड़े में गाड़कर पूजा जाता है।”4 वैसे तो आदिवासियों के कई सारे देवता है इनके जितने भी देवता है वे सारे देवता मानवीय रुप धारण किए हुए देवता नही बल्कि पूरी प्रकृति ही इनके देवता है इनके सबसे बड़े व सर्वशक्तिमान बोंगा के रुप में सिंगबोगा यानि सूर्य देवता को माना जाता है। आदिवासी “लोक में दो तरह के देवी देवताओं के सवरुप मिलते हैं। एक प्रारंभिक प्रतिष्ठित देवता और दूसरे स्थानीय देवता । लोक देवता कई तरह के होते हैं। पाप नाश करने वाले, बीमारी फैलाने वाले और दूर करने वाले, अनिष्टकारी देवता, संकट दूर करने वाले और रक्षा करने वाली माताएं अनिष्ट करने वाली शक्तियां सुख संपदा देने वाली , स्वस्थ रखने वाले गांव के देवता, कुल देवता, घर के देवता आदि। इस लोक में ऐसी कोई जगह या सोच नहीं है जहां कोई न कोई देवता न बिराजें हो ।”5 प्रकृति के जिस दृश्य और अदृश्य व अच्छी बुरी शक्तियों से इन्हें लाभ व हानि  पहुंचती वे अच्छे बोंगा और बुरें बोंगा के रुप से जाने जाते है तथा यही परिकल्पना इनके समुदाय में विश्वास के तौर पर प्रगाढ़ हो गई है।

                          आदिवासी लोककथाओं में इनके देवता मात्र मानव के साथ ही न्याय या दंड देते दृत्ष्टिगत नही होते बल्कि वे सभी प्राणी जगत के देवता है जो सभों की गुहार सुनते है और उस पर पसीचते और विचार भी करते, कथा है कि सिगबोंगा ने “धरती कीट, पतंग, पेड़, पौधा, पशु, पक्षी, मनुष्य आदि आदि का निर्माण करने के बाद उन्होंने एक गाय को नियुक्त किया और उसे यह जिम्मेदारी दी कि वह जाकर होको(आदमियों) को यह संदेश सुनाए कि वे एक दिन में एक बार खांए और दो बार सोए। गलती से गाय ने मनुष्यों को जाकर उन्हें उल्टा संदेश सुना दिया। कहा –तुम लोगों को दिन में एक बार सोना है और दो बार खाना है। सिंगबोंगा गाय पर नाराज हुए। बोले –तुम्हारी इस गलती की सजा यही है कि तुम्हें मनुष्यों को उनके कृषि कार्य में मदद करनी होगी। उसके बाद से ही गाय बैल को हल में जोता जाने लगा। मनुष्य को तो मानो वरदान ही मिल गया हो। वे इनसे इतना काम करवाने लगे कि उन्हें दम लेने की भी फुरसत नहीं मिलती थी। हारकर उन्होंने सिंगबोगा से शिकायत की। विनती की- हे सिंगबोगा। हमारी एक गलती की इतनी ब़ड़ी सजा तो मत दीजिए। कम से कम हमारे लिए काम के बीच बीच में थोड़ा सुस्ताने की तो व्यवस्था कर दीजिए। सिंगबोंगा को उन पर दया आयी। बोले –ठीक है, ठीक है। मैं कोई बंदोबस्त करता हूं। और उन्होंने खैनी बनाकर दी। मनुष्यों को खैनी की लत लगा दी। अब हल जोतते समय भी उन्हें खैनी की तलब होने लगी और वे थोड़ी थोड़ी देर में खैनी खाने के लिए रुकने लगे। इस तरह गाय बैलों को सुस्ताने का मौका मिलने लगा।”6 जब आदिवासी के देवता पशुओं के हालात पर गौर करते नजर आते है तो जाहिर सी बात है कि आदिवासियों के जीवन में पशु मात्र पशु के रुप में नहीं बल्कि उनके परिवार के सदस्य के रुप में गणना की जाती  है यहां तक कि शिकार आदि में कुत्तों भी उनके साथ जाते है और उनकी मदद करते है  जिसके एवज में शिकार के एक भाग पर कुत्ते का अधिकार होता है और इस प्रकार शिकार को मिलबांट खाने की परंपरा भी आदिवासी समाज में देखा जा सकता है।

                                    जहां यह समाज जानवर के अधिकारों की रक्षा करने में नहीं चूकता वहीं समता पर आधारित इस समाज में व्यक्ति विशेष हित या लाभ समग्र हित या लाभ के समक्ष शून्य है। मरांग गोड़ा नीलकंठ हुआ उपन्यास में समता व समग्र हित से संबंधित नीति शिक्षा का अच्छा उदाहरण लोककथा द्वारा देखा जा सकता है। जो आदिवासी समाज के सामुदायिकता के भाव को जीवित रखने और व्यक्ति विशेष के लाभ को तिलांजलि देने की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। चारिबा सगेन से कहती है “ एक बार हमारे गांव का एक आदमी इस जलाशय में उतरा था मछली पकड़ने। उसकी बेटी किनारे खड़ी थी। वह आदमी पानी में डुबकी लगा लगाकर गमछे से मछली पकड़ रहा था और मछली की गर्दन मरोड़ मरोड़कर उसे किनारे फेंकता जा रहा था। बेटी उन मछलियों को उठा –उठाकर अपने गमछे में रखती जा रही थी। मछली उठाते उठाते अचानक बेटी ने देखा कि मछली की जगह उसके पिता का सिर आकर गिरा है धप्प से। किसी ने उसके पिता के सिर को मरोड़कर फेंक दिया था मछली की तरह। धड़ गायब था। बहुत ढूंढने पर भी वह धड़ नहीं मिला गांववालों को। यह भी पता नहीं चला कि किसने उसका सिर मरोड़ा। ….कहते हैं कोई बहुत ही गुस्सैल बोंगा रहता हैं इस जलाशय में । ..कुछ लोग तो कहते है कि लालच के कारण जान गवांनी पड़ी थी उस आदमी को।…हमेशा की तरह गांववालों के सामूहिक शिकार पर जाने का दिन निश्चित हो चुका था। समूह में मछलियां भी पकड़नी थीं। पर वह आदमी ज्यादा मछलियों की चाह में चुपके से आकर मछलियां चुरा रहा था। अब जब हमारे जंगलो पर, नदियों पर, जलाशयों पर पूरे गांव का, समूह का अधिकार होता है तो कोई कैसे उसका उल्लघंन कर सकता है ? ”7 आदिवासी समाज की पहचान उनके सामूहिकता से ही होती है। इस तत्व को गैर आदिवासी समाज में नही देखा जा सकता। अतः इस कथा से ज्ञात होता है कि आदिवासी समाज एकाधिकार पर नहीं सामूहिकता की नींव पर टिका समाज है।

                         इसी प्रकार नैतिक जिम्मेदारी से संबधित लोककथा भी देखने को मिलता है जिसमें अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए जंगलों का अंधाधुंध दोहन असुरों द्वारा और सिंगबोगा द्वारा इन जंगलों का नाश करने वालों को समझाने बुझाने पर भी न सुनने व अंततः दंडित करने की कथा भी दिखलाई देती है। मरांग गोड़ा नीलकंठ हुआ उपन्यास के संवाद में हो लोककथा के आधार पर “आदिम काल में हो दिशुम में आते समय रास्ते में पड़ने वाले जंगलों में असुर(जिनका काम पत्थरों से लोहा निकालना लोहे को भट्ठी में पिघलाकर औजार बनाना था और आज भी चल रहा है।) लोग रहा करते थे।”…..“हां तो उन दिनों वे उन इलाकों के हरे भरे जंगल के पेड़ पौधों को काटकर लोहे की भट्ठी में झोंका करते। धीरे धीरे बड़ी संख्या में जंगल के पेड़ पौधे नष्ट होने लगे। धुंए से होनेवाले प्रदूषण के कारण जीव जन्तुओं का नाश होने लगा। सभी प्राणी परेशान हो उठे। सिंगबोंगा से प्रार्थना करने लगे कि वे उनकी रक्षा करें।”.

-“फिर सिंगबोंगा ने क्या किया?”

“उन्होंने अपने दूतों के मार्फत बारी बारी से असुरों के पास पैगाम भेजा कि वे लोहा गलाने का काम बंद करें।”

“कौन लोग थे सिंगबोंगा के दूत?”

“लड्, हंस सोनादीदी तथा चन्दाकुई नामक पक्षी। पर जब असुरों नें इनमें से किसी की बात नहीं मानी और अपना काम करते रहे… जंगल का विनाश करते रहे, तब सिंगबोंगा को उन पर अत्यंत गुस्सा आया। उन्होंने खुद जाकर उन्हें मजा चखाने का निर्णय लिया।”

“फिर उन्होंने एक खुजली वाले नौकर का रुप धारण किया और असुरों की बस्ती में जाकर एक बूढ़ा-बूढ़ी के घर में काम करना आरंभ किया। वहां काम करने के दौरान सिंगबोंगा ने कई चमत्कार कर दिखाये पर कोई उन्हें पहचान नहीं पाया। एक दिन असुरों ने उस खुजली वाले नौकर को मारने के लिए उसे लोहे के भट्ठी में डाल दिया। जब थोड़ी देर बाद वह बिना जले भट्ठी से सोना लेकर बाहर निकला तो असुर भौचक्के रह गए। सोने के लालच में वे सभी भट्ठी में कूद पड़े और जलकर भस्म हो गए। इस तरह चालाकी से सिंगबोगा ने जंगल का नाश करने वालों का नाश किया था।”8 इस प्रकार की नैतिक जिम्मेदारियों से लिप्त कथा हम आदिवासी लोककथाओं में देख सकते है। आज के युग मानव इन्हीं नैतिक जिम्मेदारियों को भूलकर की जंगलों के दोहन से पूरे प्राणी जगत को ही नुकसान होगा मनुष्य अपने स्वार्थ पूर्ति में लगा रहता है जंगलो का दोहन लगातार बढ़ती ही जा रहा है और कई सारी प्राकृतिक आपदाएं भी आ रही है इसके बावजूद प्रकृति से सामंजस्य स्थापित करने की अपेक्षा लगातार उसका दोहन  ही कर रहे है वही आदिवासी समाज में प्रकृति का दोहन तो दूर की बात है वे प्रकृतिक सम्पदा में ही अपना जीवन तलाशते है जो उनके लोककथाओं में अभिव्यक्त है।

                         अतः हम देख सकते है आदिवासी जीवन और प्रकृति एक दूसरे के ही पूरक है यही वजह है कि जहां जिन क्षेत्रों मे आदिवासियों की संख्या अधिक है वहां की धरती प्राकृतिक सुंदरता से लैस है। जो एक वैज्ञानिक सत्य पर आधारित है कि प्रकृति का नुकसान यानि मानव जाति का नुकसान जिसका हाहाकार आज पूरे विश्व में है कारण प्रकृति का अंधाधुंध उन्मूलन लेकिन वही यह वैज्ञानिक समझ इन समुदायों में दिखता है। अतः इस आधार पर देख सकते है कि सभ्य कहे जाने वाले को सभ्यता का पाठ पढ़ाना है या इन आदिवासियों को यही वजह है कि अरूधंति राय जैसे बड़े-बड़े लेखक और विचारक यह कहते नहीं थकते कि सभ्यता का पाठ हमें इन आदिवासी समुदायों से सीखना है। जो व्यक्तिगत स्वार्थता को स्वीकार न कर समन्वय का जीवन जीने में विश्वास रखते है।

                         इतना ही नही संताल आदिवासियों के जीवन विनाश का भी कथन मिलता है। जो उनको जीवन में बुराईयों को त्याग कर कर्मठ होने की सीख भी देते है। जिन्हें संथाल आदिवासी जीवन का बहुत बड़ा सबक के रुप में याद करते है कहा जाता है कि “हिहिड़ी –पिपिड़ी में जन्में सन्ताल हराता होते हुए नयी भूमि ढूंढते जब खोजकामान तक पहुंचे थे। तब तक सन्तालों में अनेक मानवीय बुराइयां आ चुकी थीं। दिन-रात मद्ध और विलास में डूबे रहते थे सन्ताल। ईश्वर को भूलकर पतन की सुरंग में उतरते जा रहे थे।  संतालों के इस पतन पर ठाकुर जी अत्यंत कुद्ध हुए। उन्होंने सन्तालों को शाप दे दिया। प्रलय उपस्थित कर दिया। कादा बीट कील लीखे नाको …! अर्थात पशुओं के समान भोजन और मैथुन मात्र में रत रहनेवाले सन्तालों पर ठाकुर जी ने आग बरसाना प्रारम्भ कर दिया था। एयाय सियं एयाय जिंदा सेंगेल दागे हो, एयाय सियं एयाय जिन्दा जाड़ाम-जाड़ाम हो, एक संताल पुरूष और एक संताल स्त्री को ठाकुर जी ने सुरक्षित रखा। शेष संताल जाति अग्निवर्षा  में समाप्त हो गयी थी । अग्निप्रलय के उपरान्त बचे इसी संताल जोड़े ने ‘सासाडबेड़ा’ में जाकर संतालो की वंशवृद्धि की थी। ”9

                इसी प्रकार से आदिवासी लोकथाओं में प्रेरणा के स्त्रोत की धारा यदाकदा देखी जा सकती है।  जोड़ा हारिल की रुपकथा कहानी में धानी, बागुन को अपना अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष करने के लिए प्रेरित करती हुई एक कथा कहती है- “ आसमान की कथा ..कभी आसमान इतना नीचे था कि कोई हाथ उठाकर उसे छू सकता था। खड़े होकर चलना मुश्किल था। धान कूटती एक बुढ़िया ने एक रोज आसमान से विनती की कि वह तनिक ऊपर उठ जाए ताकि मूसल उठाने में सुभीता हो। आसमान नहीं माना। बुढ़िया ने धरती को गोहराया कि वही तनिक नीची हो जाए। सावन से भादों दुबला….? बुढ़िया को क्रोध आ गया। उसने आसमान को मूसल से इतना हुमचकर ठेला कि ।..”10 आसमान उपर ही चला गया। अतः प्रेरणा की दृष्टि से भी आदिवासी लोककथा में जीवन का सार निहित है। और प्रेऱणा के स्त्रोत से मंड़ित होकर ही आदिवासी ने अपने जीवन में संघर्ष के बल पर ही अपनी संस्कृतियों व सभ्यता को सुरक्षित रख पाया है। गजलकार दुष्यंत कुमार जी का यह कथन आदिवासी जीवन पर सटीक बैठता है-

                                             कैसे आकाश में सुराग नहीं हो सकता

                                             एक पत्थर तो तबियत से उझालो यारों।

              आदिवासी लोकसाहित्य में ऐसे बहुत से तथ्य है जो समाज के लिए कई मायने में उपयुक्त है अज तक देश और  समाज की जो परिस्थिति जिनसे आज हर एक जन परिचित है के बदलाव में आदिवासी जीवन शैली और संस्कृति काफी हद तक सहायक हो सकती है जिसने जैसी जीवन शैली अपना ली उसको परिवर्तित तो नही किया जा सकता है, हां इतना तो जरूर कहा ही जा सकता है कि जो आने वाली पीढ़ी है उनको इस आदिवासी समाज से कुछ नया और बेहतर प्रदान किया जा सकता है जैसे कि “चीन में माओत्से तुंग से किसी पत्रकार ने जब कहा-इतना बड़ा देश, इतनी निरक्षर जनता कैसे चलेगी आपके साथ? तो माओत्से तुंग का जवाब था- यह तो और भी अच्छा है कि हमारी जनता निरक्षर है, तो हमारा काम सरल है, हम उन्हें नए सिरे से नए स्वर सिखा सकेंगे। जनता कुशिक्षित होती तो हमारा काम मुश्किल था। पिछले लिखे हुए को हमें पहले मिटाना पड़ता।”11 इसी कारण यह लोककथाएं जिसमें आदिम समाज का भव्य अतीत व अनमोल भविष्य निधि है में ही  संपूर्ण मानव जीवन का सार है के महत्व को प्रतिपादित करते हुए मरांग गोड़ा नीलकंठ हुआ उपन्यास के चारिबा के ततंग (दादा) कहते है कि “हमारे बुजुर्ग कहा करते थे, मरने से पहले हमसे सुनी हुई तमात कथाओं को नयी पीढ़ी को सुनाकर जाना। वरना तेरे साथ-साथ वे कथाएं भी मर जाएंगी और एक दिन ऐसा आएगा जब उनके पास हमारा दिया हुआ कुछ भी नहीं बचेगा…..कुछ भी नहीं…..। ”12

संदर्भ सूची-

1.संताली लोक कथाःएक अध्ययन, पृष्ठ संख्या 93

  1. संताली लोककथाओं की दुनियां, पृष्ठ- 15
  2. गायब होता देश, पृष्ठ- 174

4.खुले गगन के लाल सितारे, पृष्ठ-101

  1. झारखंड एन्साइक्लोपीडिया-4, पृष्ठ-163
  2. मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ, पृष्ठ-139
  3. मरंग गोड़ा नीकंठ हुआ, पृष्ठ-134
  4. मरांग गोड़ा नीलकंठ हुआ, पृष्ठ 129-130
  5. जो इतिहास में नहीं है, पृष्ठ 246-247
  6. जोड़ा हारिल की रुपकथा, पृष्ठ-129
  7. खुले गगन के लाल सितारे, पृष्ठ 64-65,
  8. मरांग गोड़ा नीलकंठ हुआ,पृष्ठ-146

डॉप्रवीण बसंती (सहायक प्रवक्ता)
वी.एन.जालान महाविद्यालय सिसई, गुमला (झारखंड)