प्रस्तावना:-

      प्रत्येक भाषा का अपना एक विशिष्ट परिवेश होता है, जिसमें वह भाषा पलती है, फुलती है। कोई भी दो भाषाएं ध्वनि, शब्द, अर्थ, उच्चारण, लय, पदबन्ध, वाक्य विन्यास, मुहावरे, कहावतें, लोकोक्ति, अलंकार, छंद आदि भाषा के संरचनात्मक अवयव के स्तर पर एक दूसरे से भिन्न होती हैं। फिर भी हर भाषा का अपना एक सामाजिक-सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और भौगोलिक परिपेक्ष होता है। उसी परिवेशगत विशेषताओं के आधार पर उनका अपना एक अभिव्यक्ति कौशल्य भी होता है। उसी  के भाषा संरचना और भाषा व्यवस्था का महत्वपूर्ण अंग अभिव्यक्ति पक्ष को माना जाता है। यह कहा जा सकता है कि भाषा अपनी मूल प्रकृति में शाब्दिक इकाइयों के बीच संबंधों की व्यवस्था है और व्याकरण, विभिन्न स्तर और संबंधों की व्यवस्था का अध्ययन करता है। “अभिव्यक्ति पक्ष का तात्पर्य उस माध्यम से हैं जो कथ्य को व्यक्त रूप देने का साधन बनाता है”१ डॉ. भोलानाथ तिवारी ने अभिव्यक्ति को विशेष स्थान दिया है। उनके अनुसार “एक भाषा में व्यक्त विचारों को यथासंभव सम्मान और सहज अभिव्यक्ति द्वारा दूसरी भाषा में व्यक्त करने का प्रयास अनुवाद है”२ अर्थात अनुवाद का मूल लक्ष्य है, स्रोत भाषा की सामग्री को लक्ष्य भाषा में यथावत अपने मूल रूप में लाना।

बीज शब्द:- अनुवाद, समतुल्यता, विचलन, परिवृत्ति, प्रोक्ति, स्रोत भाषा, लक्ष्य भाषा, भाषिक संरचना, अभिव्यक्ति आदि।

     अनुवाद कार्य आसान नहीं है क्योंकि हर स्रोत भाषा अपनी विशिष्ट परिवेश में पनपती हैं। उनकी ध्वनि, शब्द या पद, पद बंध, वाक्य, प्रोक्ति, परिवृत्ति, प्रयुक्ति आदि महत्वपूर्ण इकाइयां है। जो एक दूसरे से भिन्न होते हुए भी एक दूसरे के आधार बने हुए हैं। यही इकाइयां भाषा को प्रभावशाली एवं संप्रेषणीय बनाती हैं। अनुवाद में इन गहन अभिव्यक्तियों के लिए अनुवादक का लक्ष्य भाषा पर पूर्ण अधिकार होना चाहिए। मूल पाठ की मूल अभिव्यक्तियों को लक्ष्य भाषा में अनूदित करने के लिए प्रोक्ति, परिवृत्ति का अध्ययन करना आवश्यक है।

प्रोक्ति:

        भाषा का प्रयोग किसी विचार या मंतव्य को अभिव्यक्ति देने के लिए होता है। विचार या मंतव्य को अभिव्यक्ति देने के लिए वाक्य की आवश्यकता होती है, जिसे भाषा की सार्थक और महत्तम इकाई मानते है लेकिन कई बार वाक्य से पूर्ण अर्थ का संप्रेषण नहीं होता है। इसलिए आधुनिक भाषा वैज्ञानिक मानते हैं कि विचारों के आदान-प्रदान के लिए केवल वाक्य परिपूर्ण नहीं है बल्कि पूर्ण संप्रेषण के लिए वाक्य की सीमा को पार करना पड़ता है। वाक्य के इस ऊपरी संरचना को प्रोक्ति कहते हैं। विचार या मंतव्य को अभिव्यक्ति देने के लिए एकाधिक वाक्यों का प्रयोग करना पड़ता है, उस एकाधिक वाक्य समूच्चय को प्रोक्ति कहते हैं। “वक्ता का संदेश और श्रोता तक उस संदेश को संप्रेषित करने वाला भाषिक व्यापार वाक्योंपरी स्तर का होता है। वाक्योंपरी स्तर की इस संरचना में वाक्यों का अनुक्रम होता है। इसमें अनेक वाक्य एक साथ मिलकर अभिव्यंजना की दृष्टि से एक इकाई का रूप धारण करते हैं। वाक्य के इस अंतर्संबंध से पाठ या प्रोक्ति का निर्माण होता है। अतः व्याकरणिक संरचना की दृष्टि से यदि वाक्य भाषा की महत्तम इकाई है, तो संप्रेषणीयत्ता की दृष्टि से प्रोक्ति भाषा की महत्तम इकाई है।”३ अर्थात प्रोक्ति, वाक्य या वाक्यों के ऊपर की व्यवस्था है। प्रोक्ति में अंतर वाक्य संयोजन होता है, जो अर्थ को स्पष्ट करने में सहायक है। प्रोक्ति केवल वाक्यों का समुच्चय नहीं है,बल्कि उसमें एक निर्दिष्ट संदेश भी नहित रहता है। वह वाक्य एक दूसरे से जुड़े होते हैं। प्रत्येक वाक्य में वक्ता का कोई ना कोई प्रयोजन होता है। उनके आंतरिक संरचना में संप्रेषण तत्व की प्रधानता होती है। विषय के अनुरूप ही वाक्यों का क्रम होता है। इसी अंतरिक्ष संगति के कारण प्रोक्ति अपने आप में पूर्ण होती है। अनेक विद्वानों ने प्रोक्ति की परिभाषाएं निम्नानुसार की है-

  1. कृष्ण कुमार गोस्वामी-“प्रोक्ति यह संकल्पना व्याकरणिक और अर्थपरक इकाई के रूप में विकसित हुई है। इसमें अंतरवाक्यीय संयोजन होता है, जो अर्थ को स्पष्ट करने में सहायक होता है व्याकरणिक और आर्थिक दृष्टि से इसकी वाक्योंपरी संरचना को प्रोक्ति कहते हैं।”४
  2. कुसुमकुमार अग्रवाल-“तर्कपूर्ण, क्रमयुक्त और आपस में आंतरिक रुप से सबद्ध ऐसी व्यवस्थित इकाई को प्रोक्ति कहते हैं, जो संदर्भ विशेष में अर्थ-द्योतन की दृष्टि से पूर्ण हो।”५

कुसुकुमार प्रोक्ति को तात्पर्ययुक्त संसक्त वाक्यों की एक कड़ी मानते हैं, जो वाक्यों की कड़ी से बीच संबंधों की व्यवस्था होनी चाहिए।

      उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि प्रोक्ति वाक्य या वाक्यों के ऊपर की व्यवस्था है। जिसमें वह वाक्य एक दूसरे से जुड़े होते हैं। वह वाक्य केवल वाक्यों की श्रृंखला नहीं होते हैं। तो वह एक तात्पर्ययुक्त संदेश का वाहन करते हैं और मूल कथ्य को एकसंघ बनाकर पूर्ण अर्थरूप ग्रहण करते है।

     अनुवाद में प्रोक्ति का महत्वपूर्ण स्थान है। अनुवाद करते समय पाठ का अर्थ ग्रहण शब्द तथा वाक्य की सीमा से आगे बढ़कर समग्र वाक्यों के स्तर पर होने लगता है। वहां अनेक वाक्यों की योजना संस्ंक्तिपूर्ण, संदर्भपरक एवं तर्कपूर्ण होता है। वास्तव में कई बार शब्दों तथा वाक्यों से अनुवाद नहीं होता बल्कि समूचे पाठ या प्रोक्ति का अनुवाद होता है। अनुवादक स्रोत भाषा के किसी पाठ के समूचे खंड का विश्लेषण करता है। उसका अर्थ ग्रहण करके फिर लक्ष्य भाषा में प्रोक्ति के रूप में अनूदित करता है। मराठी के श्रेष्ठ नाटककार वसंत कानेटकर का ‘प्रेमा तुझा रंग कसा?’ नाटक का हिंदी अनुवाद प्रा. वसंत देव ने ‘ढाई आखर प्रेम का’ शीर्षक से किया है। वसंत देव ने मूल नाटक के विषय, आशय और प्रस्तुति की ताजगी अनूदित नाटक में कायम रखी है। इस नाटक में मध्यमवर्गीय जीवन में आने वाले प्रेम के विविध रंगों का हंसता खेलता चित्रण किया है। उसे अनुवादक ने मूल के अनुरूप सुरक्षित रखने का यथासंभव सफल प्रयास किया गया है। जैसे-

मूल मराठी

“बब्बड: ( अस्वस्थतेने खिडकीतून मागे वळत) बाबा-

बल्लाळ: (मान वर करीत) ऊं? (ती गप्प पाहून) काय ग पोरी?

बब्बड: माझ्याकडे कोणी आल होत का?

बल्लाळ: तुझ्याकडे? म्हणजे तुला भेटायला?

प्रियवदा: कोण यायचं होत?

बब्बड: (चाचरत) नाही….. नाही….. तसं यायचं नव्हतं कोणी…!

प्रियवंदा: म्हणजे?

बब्बड: नाही, तसं विशेष कोणी नाही गं-!

प्रियवंदा: कोणी मैत्रीण का यायची होती तुझी?

बब्बड: मैत्रीण…… नाही……. हो मैत्रीणच!! (जिन्याकडे जात) आई, मी बाहेर जाणार आहे आत्ता!!

प्रियवदा: अगं पण आत्ताच कॉलेजातून आलीस ना?

बब्बड:हो, पण-जरा इकडं….. (घुटमळत) म्हणजे फिरायला जाईन म्हणते. अभ्यासानं अगदी डोकं उठले माझं!

प्रियवंदा: अगं माझ्याबरोबर चल! येतेस, थोडसं ‘मार्केटिंग’ करून येऊ?

बब्बड- नको नको!! फार दमलेय ग मी. खोलीत पडते थोडा वेळ. (जिन्याच्या दोन पायऱ्या चढून, मागे वळते आणि विशेष चौकसपणे) पण तू जाऊन येते आहेस ना?

प्रियवंदा: ही काय, निघालेच की मी. अगं चल येत असशील तर. तेवढंच पाय मोकळे केल्यासारखे वाटेल तुला. काही फार लांब जायचं नाही कोपऱ्यावर-

बब्बड: नको नको बाई! अभ्यास पुष्कळ करायचा राहिलाय. मी वाचत बसते थोडसं!! ” ६

हिंदी अनुवाद:-

बबली: (किंचित अन्यमस्कन होकर खिड़की की तरफ जाकर) पापाजी-

वर्मा: (गर्दन उठाकर) अयॅ? (उसे चुप देखकर) क्या है बबली?

“बबली: कोई आया था यहाँ ?

वर्मा: यहाँ ? यानी तुमसे मिलने ?

प्रियम्वदा: कौन आनेवाला था?बबली: (सिटपिटाकर) क – कोई नहीं- कोई नहीं आनेवाला!

प्रियम्वदा: क्या मतलब?

बबली: सच मम्मी, कोई खास नहीं- सच-

प्रियम्वदाः कोई सहेली आनेवाली थी?

बबली: सहेली?- नहीं – हाँ, सहेली ही तो (जीने की ओर मुड़कर) मम्मी, हम बाहर जा रहे हैं।

प्रियम्वदाः वाह! अभी-अभी तो कॉलेज से चली आ रही हो-

बबली: हॉ- मगर- यहाँ- (हकलाकर) जरा घुम आऊँ। पढ़ते पढ़ते दिमाग चकरा गया है।

प्रियम्वदाः तो चलो न हमारे साथ। शॉपिंग भी हो जाएगा। चलती हो?

बबली: नही मम्मी। बहुत थक गई हूँ। लेटूंगी कमरे में (जीने पर दो सीढ़ियों चढ़कर मुड़ती है और खास ढंग से पूछताछ कर) तुम तो जा रही हो ना?

प्रियम्वदाः जा ही तो रहे हैं। अरे भाई, चलती हो तो चलो। घूम आओगी तो जी बहल जाएगा। और दूर थोड़े ही जाना है। यही जरा नुक्कड़ तक-

बबली: नहीं मम्मी, नहीं। बहुत सा पढ़ना बाकी है। मैं कमरे में पढूंगी”७

      उपर्युक्त उदाहरण में बब्बड उर्फ़ बबली के मानसिक द्वंद्व को चित्रित किया है। पात्रों के कथन तात्पर्य युक्त है, जिसमें आवश्यकतानुरूप सामान्य निवेदन, जिज्ञासा, व्यग्रता, आश्चर्य, क्रियाशीलता, विस्मय आदि भावाभिव्यक्ति स्तर पर और कथन के विषय के रूप में अभिव्यक्त हुए हैं। लक्ष्य भाषा पाठ में प्रोक्ति के स्वरूप को सुरक्षित रखा है। मूल के समस्त वाक्य अनुवाद में है। वाक्यों में अनेकार्थता की स्थिति नहीं है। संलाप में पात्र सक्रियता से भाग लेकर संदेश को अभिव्यक्त करते हैं। संलाप में निश्चित संदर्भ के कारण वाक्य का एक ही अर्थ व्यंजित होता है। यह वाक्य वक्ता और श्रोता के कथनों के अंग है। इसमें कथन और संवाद से जुड़ी संसक्ति आयी हैं। मूल पाठ में वाक्य संसक्त पूर्ण है। इन वाक्यों की संसक्ति में तर्कपूर्ण मानसिक स्थिती का विधान है। यहाँ नायिका का कथन तात्पर्ययुक्त है। भक्ति में संवाद और संपादिता की स्थिती हमेशा बनी रही है। अनुवाद करते समय अनुवादक ने प्रोक्ति के सभी रूपों को सुरक्षित रखा है।

परिवृत्ति का स्वरूप:-

       परिवृत्ति का सामान्य अर्थ है दो भाषाओं के विभिन्न स्तरीय संवादिता से विचलन की स्थिति। हर भाषा के अपने नियम होते हैं। ध्वनि, शब्द, रूप, वाक्य, तथा अभिव्यक्ति को विभिन्न स्तरों पर अपनी व्यवस्था होती है। भाषा का व्याकरण इन्हीं नियमों और व्यवस्थाओं से बनता है। सामान्य भाषा इन नियमों से बंधी होती है. किंतु नाटक में सामान्य भाषा के साथ-साथ विशिष्ट अनुभव को अभिव्यक्ति के लिए विशिष्ट भाषा का प्रयोग किया जाता है। विशिष्ट भाषा प्रयोग के कारण कई बार विचलन की स्थितियां उत्पन्न होती है। सामान्यतः विचलन या परिवृत्तियों को निम्न दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। “विचलन की दो स्थितियाँ होती है- अनिवार्य तथा ऐच्छिक। अनिवार्य विचलन भाषा की शब्दार्थगत एवं व्याकरणिक संरचना का अंतरंग है, उदाहरण के लिए मराठी नपुंसक लिंग संज्ञा हिंदी में पुल्लिंग या स्त्रीलिंग संज्ञा के रूप में ही अनूदित होगी। कुछ इसी प्रकार को बात अंग्रेजी वाक्य I have fever  के हिंदी अनुवाद ‘मुझे बुखार है’ के लिए कहा जा सकता है, क्योंकि मैं बुखार रखता हूं हिंदी में संप्रेषणात्मक तथ्य के रूप में स्वीकृत नहीं। ऐच्छिक विचलन में विकल्प की व्यवस्था होती है। अंग्रेजी The rule states that…. को हिंदी में दो रूपों में कहा जा सकता है-‘ इस नियम में यह व्यवस्था है कि /कहा गया है कि. या ‘यह नियम कहता है कि.. इन दोनों में पहला वाक्य हिंदी में जितना स्वभाविक प्रतीत होता है, उतना दूसरा नहीं। अनुवाद के संदर्भ में ऐच्छिक विचलन को विशेष प्रासंगिकता इस दृष्टि से है कि इससे अनुवाद को स्वभाविक बनाने में सहायता मिलती है। अनिवार्य विचलन, तुलनात्मक व्यतिरेकी भाषा विश्लेषण का एक सामान्य तथ्य है जिसमें अनुवाद का प्रयोग एक उपकरण के रूप में किसा जाता है।”८ स्पष्ट है कि दो भाषाओं के बीच विभिन्न स्तरीय संवादिता विचलन स्वाभाविक रूप से होता है। उस स्थिति को परिवृत्ति कहते है। अनुवाद कार्य में या परिवृत्ति अनिवार्यता आती है।

       पाश्चात्य विद्वान पापोविच ने अनुवाद परिवृत्ति के निम्नलिखित प्रकारों की चर्चा की है-

  • “संरचनात्मक परिवृत्ति:  दो भाषाओं की संरचना, शैली आदि में मौलिक भिन्नता होने के कारण होने वाली अनिवार्य परिवृत्ति।
  • विधा परिवृत्ति: साहित्यिक विधाओं में होने वाली अनिवार्य प्रवृत्ति; जैसे अंग्रेजी सानेट या ओड का हिंदी में सामान्य प्रगीत के रूप में अनुवाद
  • व्यक्तिनिष्ठ परिवृत्ति: अनुवाद की अपनी शैली के विशिष्ट से निष्पन्न तथा फलस्वरूप मूल पाठ की शैली से विचलन, परिवृत्ति।
  • निषेधात्मक परिवृत्ति: मूल भाषा की संरचना से अपरिचय या न्यून परिचय के कारण मूल कथ्य में परिवर्तन।
  • सूचनात्मक परिवृत्ति: मूल के सूचना पर बिंदुओं को किन्ही कारणों से अनुवाद में परिवर्तित कर देना”९

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि दो भाषाओं के बीच संरचनागत, विधागत, व्यक्तिनिष्ठ, निषेधात्मक, सूचनापरक आदि परिवृत्ति के कारण अनुवाद कार्य में शत प्रति शत कथ्य का अंतरण नहीं हो सकता है। विचलन की यह स्थिति अनुवाद में आती ही है। अनुवाद परिवृत्ति को विद्वानों ने अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से निम्न भागों में विभाजित किया है।

  • संरचनात्मक परिवृत्ति
  • व्याक्तिनिष्ठ परिवृत्ति
  • निषेधात्मक परिवृत्ति
  • सूचनात्मक परिवृत्ति आदि।

  • संरचनात्मक परिवृत्ति:-

      दो भाषाओं के बीच संरचना के स्तर पर विचलन संरचनात्मक परिवृत्ति हैं। हर भाषा की अपनी एक भाषा व्यवस्था और व्याकरणिक संरचना होती हैं। मराठी और हिंदी भाषाओं में काफी समानताएं मिलती हैं, किंतु कई असमानताएं भी विद्यमान है। हिंदी में दो लिंग हैं जबकि आर्य परिवार की और द्रविड़ परिवार की भाषाओं में तीन लिंगों की व्यवस्था है। पुल्लिंग, स्त्रीलिंग और नपुंसकलिंग। हिंदी में दो लिंग होते हैं। अर्थात  नपुंसकलिंग नहीं है। कामता प्रसाद गुरु के अनुसार “हिंदी में लिंग का निर्णय करना कठिन है। इसके लिए व्यापक और पूरे नियम नहीं बन सकते, क्योंकि इसके लिए भाषा के निश्चित व्यवहार का आधार नहीं है। तथापि हिंदी में लिंग निर्णय दो प्रकार से किया जाता है-१. शब्द के अर्थ से और २. उसके रूप से। बहुधा प्राणीवाचक शब्दों का लिंग अर्थ के अनुसार और अप्राणीवाचक शब्दों का लिंग रूप के अनुसार निश्चित करते हैं। शेष शब्दों का लिंग केवल व्यवहार के अनुसार माना जाता है; और इसके लिए व्याकरण से पूर्ण सहायता नहीं मिल सकती।”१० मराठी भाषा में तीन लिंग की व्यवस्था है जैसे- पुल्लिंग, स्त्रीलिंग और नपुंसकलिंग। मराठी भाषा में भी लिंग का निर्णय करना कठिन कार्य है। लिंग निर्धारण के लिए जो नियम बनाए हैं वह परिपूर्ण नहीं है। मराठी भाषा में एक ही शब्द दो या तीन लिंगों में प्रयुक्त होता है। मराठी की नपुंसक लिंग संज्ञाओं में से कुछ संज्ञाओं का हिंदी में पुल्लिंग तथा स्त्रीलिंग में समावेश होता है।

     अनुवाद करते समय स्त्रोत भाषा की सामग्री का लक्ष्य भाषा में अनुवाद करते समय अनुवादक स्रोत भाषा की व्याकरणिक संरचना और व्यवस्था से परिचित होना आवश्यक है। यदि अनुवाद इस बात का ध्यान न रखकर जों-का-त्यों अनुवाद करेगा तो अनुवाद हास्यास्पद बन जाता है। हर भाषाओं में व्याकरणिक कोटियां अर्थात लिंग वचन पुरुष कारक विशेषण सर्वनाम अव्यय तथा क्रिया के प्रयोग में वैषम्य होता ही है इसलिए अनुवादक को इसका ज्ञान होना अत्यंत आवश्यक होता है। मराठी नाटक ‘हिमालयाची सावली’ का हिंदी अनुवाद ‘हिमालय की छाया’ में संरचनात्मक परिवृत्ति के अनेक उदाहरण मिलते हैं-

मूल मराठी:

“कृष्णा……. (आश्चर्याने) तार आली? अगं बाई…. खरं काय झालं?” ११

हिंदी अनुवाद:

कृष्णा: (आश्चर्य से) तार आ गया? अरे सच? क्या हुआ? १२

     उपर्युक्त उदाहरण में मूल मराठी के तार आली? का हिंदी अनुवाद तार आ गया? किया है। मराठी भाषा में एक ही शब्द दो या तीन लिंगों में प्रयुक्त होता है। यही स्थिति हिंदी में भी देखने मिलती हैं। ‘तार’ शब्द स्त्रीलिंग और पुल्लिंग के अंतर्गत प्रयुक्त हुआ है। इस वाक्य में लिंग के अनुरूप क्रिया में परिवर्तन किया है। अतः यह परिवृत्ति अनिवार्यता आती हैं।

      मराठी नाटक ‘अखेरचा सवाल’ का हिंदी अनुवाद ‘आखरी सवाल’ में भी संरचनात्मक परिवृत्ति के कुछ उदाहरण मिलते हैं-

मूल मराठी:

नंदा: माझी निवड तुला पसंत नाही का, मम्मी?१३

हिंदी अनुवाद:

नंदू: क्या मेरा चुनाव तुम्हें पसंद नहीं है, मम्मी?१४

      उक्त उदाहरण में मराठी के ‘माझी निवड’ का हिंदी अनुवाद ‘मेरा चुनाव’ के रूप में किया है। मराठी में निवड शब्द स्त्रीलिंग है और चुनाव शब्द पुल्लिंग है। अनुवादक ने यहां शब्द अनुवाद करने का प्रयास किया है जो गलत लगता है। उक्त उदाहरण का अनुवाद ‘क्या मेरी पसंद तुम्हें अच्छी नहीं लगी, मम्मी?’ अपेक्षित था।

  • व्यक्तिनिष्ठा परिवृत्ति:

     स्रोत भाषा सामग्री का लक्ष्य भाषा में अनुवाद करते समय अनुवादक की निजी शैली का प्रभाव दिखाई देता है। “अनुवाद में अनुवादक की अपनी शैलीगत विशिष्टता के कारण मूल शैली में विचलन आ गया हो तो उसे व्यक्तिनिष्ठ परिवृत्ति कहते हैं।”१५ इस परिवृत्ति में अनुवादक मूल वाक्य की वृत्ति में परिवर्तन करता है। मूल एक वाक्य के लिए अनेक वाक्य की योजना, अनेक वाक्य के लिए एक वाक्य की योजना, वाक्य क्रम में परिवर्तन आदि अनेक शैली के तत्व अनुवादक के व्यक्तिगत शैली से प्रभावित होते हैं। मराठी नाटक ‘हिमालयाची सावली’ का हिंदी अनुवाद ‘हिमालय की छाया’ में व्यक्तिनिष्ठ परिवृत्ति के उदाहरण मिलते हैं।

मूल मराठी:

पुरुषोत्तम: ( चुकचुकत) कसा रे राहतोस तू त्या आफ्रिकेच्या जंगलात.१६

हिंदी अनुवाद:

पुरुषोत्तम: चचच चच! तू कैसा रहता है रे, अफ्रीका के जंगलों में? १७

     नाटक में एक साथ दो प्रकार की भाषाओं का प्रयोग मिलता है। एक हरकत की भाषा और दूसरी शब्दों की भाषा। जो बात हरकतों से व्यक्त होती है, वह शब्दों से नहीं कही जा सकती और जो शब्दों से कही जाती है, वह हरकतों से व्यक्त नहीं होती है। इसलिए अभिनय के अंतर्गत इन तत्वों को अधिक महत्व दिया जाता है। पात्रों के हरकतों का संकेत नाटक का कोष्टक में देते हैं उसी के अनुरूप पात्र मंच पर प्रस्तुत होते हैं। अनूदित नाटक में भी नाटककार के इन संकेतों का अनुवाद करना अनिवार्य है। अनुवादक अगर उसमें परिवर्तन करता है या छोड़ देता है तो नाटक के प्रदर्शन में समस्या आती है। उपयुक्त उदाहरण में पात्र के हरकतों का संकेत कोष्टक में दिया है। उसे अनुवादक ने कोष्टक के बाहर रखा है। इसलिए अनुवाद बोझिल या कृत्रिम बना है। यह स्थिति अनुवादक के व्यक्तिगत प्रभाव के कारण आई है। अतः इसे व्यक्तिनिष्ठ परिवृत्ति के अंतर्गत रखा जाता है।

  • निषेधात्मक/अर्थगत परिवृत्ति:-

       स्त्रोत भाषा की पाठ्य सामग्री का लक्ष्य भाषा में अनुवाद करते समय दो भाषाओं की संरचना की विशेषताओं का परिचय अपेक्षित है। कई बार अनुवादक की असावधानी से अनूदित पाठ के अर्थ में क्षति उत्पन्न होती है तो मूल पाठ से अनूदित पाठ में अर्थगत परिवृत्ति आती है। इस परिवृत्ति का अर्थ है- मूल कृति के बारीकियों से अपरिचित या अज्ञानवश लक्ष्य भाषा में मूल अर्थ से विचलन। मराठी नाटक ‘हिमालयाची सावली’ का हिंदी अनुवाद ‘हिमालय की छाया’ में अर्थगत/निषेधात्मक परिवृत्ति परिवृत्ति के उदाहरण मिलते हैं।

मूल मराठी:

“बयो: (हसून) हां रे रांडेच्या! त्यात काय चमत्कार आहे डोंबलाचा? आपले माणूस ज्याचे त्याला कळते.”१८

हिंदी अनुवाद:

“बयो: (हसकर) इसमें कौन सा चमत्कार है रे? अपने लोगों की बात किसे नहीं समझ में आती?”१९

    स्त्रोत भाषा पाठ का लक्ष्य भाषा में अनुवाद करते समय न्यूनानुवाद,अधिकानुवाद, अर्थांतरण की स्थितियों से अर्थगत विचलन की आती है। उक्त उदाहरण में अनुवादक ने मूल सामग्री के कुछ सामग्री को छोड़ दिया है। अंतिम विधि वाक्य का अनुवाद प्रश्नार्थक वाक्य के रूप में किया है। उसका अनुवाद ‘अपने लोगों की बात अपने ही लोग समझते हैं’ करते तो अनुवाद अधिक प्रभावशाली बन सकता था।

  • सूचनात्मक परिवृत्ति:

      इस परिवृत्ति में मूल सूचनात्मक बिंदुओं का परिवर्तन किया जाता है। इस प्रकार की परिवृत्ति लक्ष्य भाषा पाठक को मूल आशय ग्रहण से विचलित कर देती देती है। यह परिवर्तन कभी-कभी स कारण होता है।

मूल मराठी:

बल्लाळ: “आणि हातपाय तोडून, डोळे काढून, तुझ्या बाबाची ती गाढवावरून गावभर दिंड काढणार!”२०

हिंदी अनुवाद:

“वर्मा: और हाथ पाव कटवाकर, आंखें फुड़वाकर, तुम्हारे पापा को चौराहे पर फिकवा देगी!”२१

       उपर्युक्त उदाहरण में मूल पाठ ‘गाढवा वरून गावभर दिंड काढणे’ का हिंदी अनुवाद ‘चौराहे पर फिकवा देना’ किया है। अर्थात अनुवादक ने लक्ष्य भाषा प्रकृति के अनुरूप अनूदित किया है। अपितु मूल पाठ की अभिव्यक्ति लक्ष्य भाषा पाठ में नहीं आई है। यहां अनुवादक ने मूल पाठ के सूचनात्मक बिंदुओं को बदल दिया है।

      उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि  प्रोक्ति, प्रयुक्ति, परिवृत्ति और समतुल्यता अनुवाद सिद्धांत एवं मूल्यांकन के महत्वपूर्ण तत्व है। डॉ. सुरेश कुमार ने क्षतिपूर्ति नियम को अनुवाद मूल्यांकन का प्रेरक माना है। वे मानते हैं कि मूल पाठ को लक्ष्य भाषा पाठ में अनूदित करते समय मूल पाठ की क्षति होती ही है और इस क्षति को कम करने का प्रयास ही असली अनुवाद है।

संदर्भ:-

  • भाषा संरचना के विविध आयाम- रवीद्रनाथ श्रीवास्तव, पृ- २०४
  • भाषा संरचना के विविध आयाम- रवीद्रनाथ श्रीवास्तव पृ- २०५
  • अनुवाद विज्ञान की भूमिका- कृष्णकुमार गोस्वामी,राजकमल प्रकाशन प्रा.लि. नई दिल्ली ११०००२, संस्करण-२०१२ पृ-२३०
  • अनुवाद विज्ञान की भूमिका- कृष्णकुमार गोस्वामी,राजकमल प्रकाशन प्रा.लि. नई दिल्ली ११०००२, संस्करण-२०१२ पृ-२०६
  • अनुवाद शिल्प समकालीन संदर्भ- डॉ. कुसुम कुमार अग्रवाल, साहित्य सहकार प्रकाशन,२९/६२- भी विश्वास नगर, दिल्ली, संस्करण-२००८, पृ-३९
  • प्रेमा तुझा रंग कसा? – वसंत कानेटकर, पॉप्युलर प्रकाशन महालक्ष्मी चैंबर्स मुंबई संस्करण -२०१० पृ १२-१३
  • ढाई आखर प्रेम का – वसंत देव पॉप्युलर प्रकाशन,३५ सी ताडदेव रोड, बम्बई संस्करण १९६५ ,पृ- १०
  • अनुवाद सिद्धांत की रूपरेखा- सुरेश कुमार, वाणी प्रकाशन,४६९७/५,२१ ए दरियागंज नई दिल्ली संस्करण-२००७ पृ- ६४
  • अनुवाद सिद्धांत की रूपरेखा- सुरेश कुमार, वाणी प्रकाशन,४६९७/५,२१ ए दरियागंज नई दिल्ली संस्करण-२००७ पृ- ६०
  • हिंदी व्याकरण-कामता प्रसाद गुरु, हिंदी मराठी प्रकाशन नागपुर-१२,

            पृ-१६१

  • हिमालयाची सावली – वसंत कानेटकर, पॉप्युलर प्रकाशन, महालक्ष्मी चैंबर्स मुंबई, संस्करण- २०१२ पृ-०३
  • हिमालय की छाया- अनु. कुसुमकुमार, लिपि प्रकाशन, अंसारी रोड दरियागंज, नई दिल्ली संस्करण- १९७८ पृ- ०९
  • अखेरचा सवाल- वसंत कनेटकर, वसंत कानेटकर, मेहता पब्लिकेशन हाउस १९४१,सदाशिव पेठ, पुणे संस्करण-२००६ पृ-५३
  • आखरी सवाल-अनु. श्रीमती कुसुम तांबे, राजपाल एण्ड सन्स, कश्मीरी गेट, दिल्ली, संस्करण-१९८१ पृ- ७७
  • अनुवाद सिद्धांत की रूपरेखा- सुरेश कुमार, वाणी प्रकाशन,४६९७/५,२१ ए दरियागंज नई दिल्ली संस्करण-२००७ पृ- ६७
  • हिमालयाची सावली – वसंत कानेटकर, पॉप्युलर प्रकाशन, महालक्ष्मी चैंबर्स मुंबई, संस्करण- २०१२ पृ-३९
  • हिमालय की छाया- अनु. कुसुमकुमार, लिपि प्रकाशन, अंसारी रोड दरियागंज, नई दिल्ली संस्करण- १९७८ पृ- ५५
  • हिमालयाची सावली – वसंत कानेटकर, पॉप्युलर प्रकाशन, महालक्ष्मी चैंबर्स मुंबई, संस्करण- २०१२ पृ-७८
  • हिमालय की छाया- अनु. कुसुमकुमार, लिपि प्रकाशन, अंसारी रोड दरियागंज, नई दिल्ली संस्करण- १९७८ पृ- १०५
  • प्रेमा तुझा रंग कसा? -वसंत कानेटकर, पॉप्युलर प्रकाशन महालक्ष्मी चैंबर्स मुंबई संस्करण -२०१० पृ-१८
  • ढाई आखर प्रेम का – वसंत देव पॉप्युलर प्रकाशन,३५ सी ताडदेव रोड, बम्बई संस्करण १९६५ ,पृ- १६

 

डॉ. श्रीराम हनुमंत वैद्य
श्री शिवाजी महाविद्यालय बार्शी,
तहसील- बार्शी, जिला-सोलापूर
महाराष्ट्र