1. हम फिर से आयेंगे तेरे शहर को बसाने

हम फिर से आयेंगें तेरे शहर को बसाने

पर आज तुम न देखों हमारे पैरों पे पड़े छाले

क्यों आंखे भर आई हमारी, क्या-क्या हम पर है बीता

यह न पूछो कि क्या है कहानी और क्या है फंसाने

तेरा शहर क्यों है छोड़ा, क्यो हो गये हैं हम रुख्सत

चर्चा करोगे इसकी तो रोने लगेंगें सारे

तेरे आशियां को सजाने हम फूल बन कर आये

कभी हमने यह न देखा कितने डाल पर लगे हैं कांटे

तेरा शहर मुस्करा सके इसलिए हम हैं रोएं

बन सके तुम्हारा सुन्दर आशियां दुःख दर्द हमने काटे

रात को हमने स्वप्न देखा भर पेट खाने की

पर सुबह जब हम जागे तो मुँह से छिन चुके थे निवाले

इस राज को छुपाये हम चले जा रहे हैं

हम मुश्किलों से दो-दो हाथ किये जा रहे हैं।।

 

2. जीवन की दौड़-भाग पर कविता : सर्वोत्तम की खोज में

हर तरफ एक ही रट लग रही
मुझे सर्वोत्तम चाहिए

हर व्यक्ति दौड़-भाग रहा है
बस एक ही चीज मांग रहा है
सरजी मुझे चाहिए बेस्ट
इसके लिए  मैं नहीं कर रहा रेस्ट

दौड़-धूप की भी इस आपाधापी में वह परेशान है
स्वयं को ही नहीं,दूसरों को कर रहा हैरान है
उसे इस सत्य का रह गया नहीं ज्ञान है

सर्वोत्तम सर्वोच्च शिखर की भांति है
जहां पर न है कोई वनस्पति न कोई जीवन
केवल बर्फ से ढँकी चोटियाँ
और निर्जन-सी घंटियाँ
बियाबान मरुस्थल और घास के मैदान
जिन पे श्र्वास की कमी से जिंदगी है परेशान जैसे व्यंग कर रही है

तुम्हारी सर्वोच्चता किस काम की
जब न दे सकती जीवन किसी लाचार को

तुम तो चाँद की तरह हो
जिनका मुंह टेढ़ा है
जहां पर काले-करूप पत्थर हैं

जो बार-बार अपने
बहुरुपिये से कर रहा है व्यक्ति को भ्रमित

सत्य के अन्वेषण पर वह पाया गया जीवनहीन-संक्रमित
तो फिर क्यों नहीं कर रहे
इस सत्य को स्वीकार कि
सर्वोत्तम-सर्वोच्चता में नहीं
सरलता में है, जो
दूसरों को जीवन देने का प्रयास है
खुद दर्द सहकर दर्द दूर करने का अभ्यास है

इस शाश्र्वत सत्य का उद्घोष है
अपने लिए तो सब जीते हैं
जीवन वह है जो दूसरे के काम आए।

 

राकेश धर द्विवेदी
गोमतीनगर, लखनऊ

 

 

 

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