निराला का रचना संसार(लेखिका–डॉ. कुलविन्दर कौर) : डॉ. हरदीप कौर

डाॅ कुलविन्दर कौर की यह पुस्तक ‘निराला का रचना संसार’ निराला साहित्य में सांस्कृतिक बोध को उजागर करती है। इसमें लेखिका ने सांस्कृतिक बोध में अध्यात्म दर्शन, लोक-संस्कृति के उपकरण […]

परंपरा का पुनर्मूल्यांकन (नामवर सिंह)- डॉ. प्रकाशचंद भट्ट

नामवर सिंह हिंदी की लिखित-वाचिक परंपरा के बड़े आलोचक रचनाकार हैं। आलोचक और रचनाकार का काम निर्भयता के साथ प्रचलित, स्थापित मान्यताओं को चुनौती देना कहा जा सकता है। तमाम […]

अप्रवासी सिनेमाः रचनात्मक प्रयोगधर्मिता – राकेश दूबे

आधुनिक समय में सिनेमा जीवन का एक ऐसा अंग बन चुका है जिसे उससे अलग कर पाना संभव नहीं है। सिनेमा ही ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा समाज के विभिन्न […]

साहित्य और सिनेमा में किसान  – तेजस पुनिया

प्रेमचंद कहते हैं कि साहित्य समाज का दर्पण है किंतु फिल्म निर्माता और निर्देशक अनुराग कश्यप का कहना है कि सिनेमा भी समाज का दर्पण है। भारतीय सिनेमा अपने सौ वर्ष पूर्ण […]

महाकवि निराला की काव्य भाषा के विविध स्त्रोत – डाॅ. सुनील कुमार तिवारी

भाव और भाषा का अविच्छिन्न सम्बन्ध साहित्य सर्जना का मुख्य उपादान और लक्षण है। आशय की अनुरूपता के साथ भाषा का स्वरूप विधान कविता की भाषा योजना का मुख्य नियामक […]

हिंंदी का प्रशासनिक परिदृश्य – डॉ. ममता सिंगला

शताब्दियों की गुलामी से मुक्त होकर स्वतत्रंता के पचास वर्ष पूर्ण होने के पश्चात् जब हम हिन्दी की स्थिति पर विचार-चिन्तन करते हैं तब ज्ञात होता है कि अंग्रेजी के […]

मोहन राकेश की नाट्य-कला :डॉ. साधना शर्मा

हिंदी नाटक के क्षितिज पर मोहन राकेश का उदय नाटक और रंगमंच दोनों दृष्टियों से श्रेयस्कर था। उन्हें आधुनिक हिंदी नाटकों के अग्रदूत के रूप में पहचाना जाता है। लीक […]

प्राचीन भारतीय शिक्षा व्यवस्था एवं नालंदा विश्वविद्यालय की पृष्ठभूमि – अंशु कुमारी

बौद्ध दर्शन में महायान सम्प्रदाय का हीनयान सम्प्रदाय की तुलना में अत्यधिक महत्व था। बौद्ध धर्म में महायान सम्प्रदाय के बहुत बड़ी संख्या में अनुयायी थे। महायान धर्मावलम्बी देवी देवताओं […]

दया प्रकाश सिन्हा की इतिहास-दृष्टि – लवकुश कुमार

इतिहास हमेशा अतीत का प्रवक्ता न होकर वर्त्तमान और भविष्य का उद्घोषक भी होता है | इसी से प्रेरणा लेकर नाटककारों  ने समाज को उद्बोधित करने का कार्य किया है […]

आरंभिक मध्यकालीन भारत में वैधीकरण के पहलू- आरंभिक कदंब राजवंश के विशेष संदर्भ में* – योगेन्द्र दायमा

हाल के दशकों में राज्यव्यवस्थाओं का वैधीकरण इतिहासकारों के मध्य विशेष रूचि का विषय बनकर उभरा है। इस रुचि की नींव इस एहसास में जमी है कि राज्यव्यवस्थाओं का अस्तित्व […]