संबंधों की बगिया है उजड़ी

फूल-पत्ते भी चुप-चुप हैं

बसंती बयार भी भटकी हुई

सुख-बादल भी गुमसुम हैं!

 

नदी संवेदना की सूख ग

उजड़े-उजड़े कूल-किनारे!

सूखी नदी में नौका डूब रही

मांझी है कौन जो इसे उबारे!

 

चाटुकारी ही अब दीन-धरम

यही लगता बहुत ही प्यारा है!

कर्म-ईमान को जो रखे साथ में

उसका अब नहीं गुजारा है!

 

जो फकत निज-कर्म से भागे

बस जी-हुजूरी ही करते हैं

चरण छूकर, चारण गाकर

उल्लू सीधा अपना करते हैं!

 

जो समर्पित निज कर्म को

सजा उन्हीं को मिलती है!

सच को झूठ, झूठ को सच

कथा नई फिर चलती है!!

 

रिश्तों की सिलाई टूट ही जाती

जो स्वार्थ के धागे से सिलते हैं!

जो प्रेम से उधड़न को सिल दे

ऐसे रफूगर कहाँ अब मिलते हैं!!

 

डॉ. शारदा प्रसाद
कवयित्री, समीक्षक एवं पूर्व प्राचार्या
रामगढ़ महाविद्यालय रामगढ़ कैंट, झारखंड