
जब रात अंधेरा होता हैं
और छा जाती है नीरवता
तब उस क्षण गूंजती हैं
अनगिनत आवाज़ें
जो दिन के चकाचौंध में
गुम हो जाती हैं
या अनसुनी जान पड़ती हैं,
वो अनगिनत सी चीखें
कोलाहल सी जान पड़ती हैं
उसमें एक जर्जर स्वर
मांग रहा था अपने ही घर शरण,
वह करुण क्रंदन जो अपने हाथों
से छीनने पर स्वामित्व के थे,
वह कंपन भरी आवाज़
जो मुक्त होना चाहती थी अत्याचार से,
वो आक्रोश से उद्वेलित आवाज़
जो रिश्वत के विरोध में फूट पड़ा था,
वे मौन चीख
जो मुक्त होना चाहते थे श्रम से,
ये सब स्वर एक स्वर में
चीखते अभिव्यक्ति को
और मैं इन असंख्य गूंजों से
व्याकुल और व्यथित
भोर का भय लिये
कि कल फिर…
गुम हो जायेंगी ये चीखें…|




Views This Month : 3008
Total views : 906479