‘साम्प्रदायिकता’ का सवाल हिन्दुओं और मुसलमानों के धार्मिक विवादों से जुड़ा सवाल है। ‘साम्प्रदायिकता’ शब्द से घृणा उत्पन्न होती है। चाहे वह देश- दुनियां की राजनीतिक साम्प्रदायिकता हो या साहित्य लेखन में निहित साम्प्रदायिकता हो। हानि जनसाधारण को ही उठानी पड़ती है। राजनीतिक दंगे में व्यक्ति मरता है तो साहित्यिक साम्प्रदायिकता में विचार प्रतिमान और साहित्यिक मूल्य मरते हैं। राजनीतिक साम्प्रदायिकता का घाव तो समय का कालचक्र भर देता है लेकिन साहित्यिक साम्प्रदायिकता एक ऐसा ‘नासुर’ होता है जो रिसता रहता है और आने वाले नवीन मूल्यों और विचारधाराओं को अपने में आत्मसात करने का कुटिल प्रयास करता है।

       इतिहास के सन्दर्भ में यह बात सर्वमान्य है कि, इतिहास लेखन मुख्यतः दो धाराओं में बँटकर हुआ है – (1)वामपंथी विचारधारा (2) दक्षिणपंथी विचारधारा। NCERT विवाद इसका ज्वलन्त उदाहरण है। हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन को साम्प्रदायिक मानना अतियों से गुजरना है। बावजूद इसके कुछ हिन्दी आलोचकों ने साहित्य के इतिहास लेखकों में कुछ कमियाँ ढूँढ निकाली हैं। यह कमियाँ सही भी हैं। यह व्यक्ति पर निर्भर करता है कि उस पर वे साम्प्रदायिकता का लेखन चिपकाएं या किसी और का; क्योंकि साम्प्रदायिकता की परिभाषा हमेशा बदलती रही है।

      हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन का प्रारम्भिक कार्य अंग्रेजों ने किया। अपनी औपनिवेशिक सत्ता को स्थापित करने के लिए उन्होंने झूठे मनगढ़न्त विचार गढ़े । ‘गार्सा द तॉसी’ व ‘ग्रियर्सन’ इनमें प्रमुख हैं। ‘गार्सा द तॉसी ‘ ने साहित्य को सम्प्रदाय में बाँटा है। उन्होंने ‘हिन्दी’ को हिन्दुओं की भाषा और साहित्य कहा है और उर्दू को मुसलमानों की ज़ुबान और साहित्य कहा है। ‘हिन्दुई’ या ‘हिन्दी’ के लेखक, ‘सिक्ख’ लेखक, ‘हिन्दुस्तानी’ के लेखक आदि धार्मिक प्रतीकों का भी वे प्रयोग करते हैं। उनके इतिहास लेखन की दृष्टि साम्प्रदायिक, औपनिवेशिक और साम्राज्यवादी है। जॉर्ज ग्रियर्सन के इतिहास में एक खास तरह की ऐतिहासिक चेतना तो है परन्तु वह सामन्तवाद से प्रभावित है। हिन्दी साहित्य के इतिहास पर मुख्य विचार आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने किया। उनकी प्रशंसा में डा० बच्चन सिंह ने लिखा है- “न तो आचार्य रामचंद्र शुक्ल के ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ को लेकर दूसरा नया इतिहास लिखा जा सकता है और न उसे छोड़कर।“1 फिर भी आचार्य शुक्ल के कुछ विचार साम्प्रदायिकता के घेरे में आ जाते हैं। उन्होंने जिस आधार पर सिद्धों और नाथों की रचनाओं को हाशिए पर लाया इससे वे संदिग्ध हो जाते हैं। इस संबंध में शुक्ल जी लिखते हैं कि – “उनकी रचनाओं का जीवन की स्वाभाविक सरणियों, अनुभूतियों और दशाओं से कोई संबंध नहीं। वे साम्प्रदायिक शिक्षा मात्र है, अतः शुद्ध साहित्य की कोटि में नहीं आ सकतीं।”2

     सिद्धों और नाथों की रचनाओं में सिर्फ योग का तत्त्व नही था । उन्होंने अपनी भक्ति के माध्यम से जाति-पाति, ऊँच-नीच, शास्त्रों, के कर्मकांड और बाह्याडंबर का विरोध किया। इसका विकसित रूप हमें कबीर में देखने को मिलता है।

     शुक्ल जी ने भक्ति आंदोलन का कारण इस्लामी आक्रमण को माना है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इसका विरोध करते हुए दो कारण माना है ① बौद्ध चिंतन प्रक्रिया का विकास ② प्राकृत-अपभ्रंशों की श्रृंगारिकता के विरुद्ध प्रतिक्रिया। इस्लाम के ‘प्रभाव’ को वे प्रभाव’ के रूप में ही स्वीकार करते हैं, प्रतिक्रिया के रूप में नहीं। भक्ति का आंदोलन के उत्त्पत्ति का कारण सामाजिक तथा आर्थिक था। इस सन्दर्भ में प्रो. मैनेजर पांडेय ने ‘भक्ति आंदोलन और सूरदास का काव्य’ पुस्तक की भूमिका में लिखा है- “भक्ति आंदोलन व्यापक सांस्कृतिक आंदोलन है, जिसकी अभिव्यक्ति दर्शन, धर्म, कला, साहित्य, भाषा और संस्कृति के दूसरे रूप में दिखाई देती है। वास्तव में यह सामंती संस्कृति के विरुद्ध जनसंस्कृति के उत्थान का अखिल भारतीय आंदोलन है।”3

     शुक्ल जी ‘कबीर को ज्यादा महत्व नहीं देते हैं। उन पर यह भी आरोप लगाया जाता है। कबीर के बारे में तो यह विचार सत्य हो सकता है, लेकिन जायसी के बारे में नहीं। जायसी की प्रशंसा में वे लिखते हैं “कुतुबन, जायसी आदि इन प्रेम कहानी के कवियों ने प्रेम का शुद्ध मार्ग दिखाते हुए उन सामान्य जीवन दशाओं को सामने रखा जिनका मनुष्यमात्र के हृदय पर एक सा प्रभाव दिखाई पड़ता है।” आगे वे लिखते हैं- “इन्होंने मुसलमान होकर हिंदुओं की कहानियां हिंदुओं की ही बोली में पूरी सहृदयता से कहकर उनके जीवन की मर्मस्पर्शिनी अवस्थाओं के साथ अपने उदार हृदय का पूर्ण सामंजस्य दिखा दिया।”4 दूसरे उदाहरण में कुछ साम्प्रदायिकता की झलक तो मिलती है परंतु शुक्ल जी उतने सांप्रदायिक नहीं है, जितना कहा जाता है। शुक्ल जी कबीर द्वारा हिंदुओं और मुसलमानों के कट्टरपन को दूर करने के लिए किए गए झाड़ फटकार को चिढ़ाने वाला मानते हैं, न कि हृदय को स्पर्श करने वाला (इसलिए उन्हें भी कम तरजीह देते हैं)।

    आधुनिक काल में शुक्ल जी ‘ गार्सा द तॉसी ‘ और सर सैयद अहमद के उर्दू प्रेम की आलोचना करते हैं। कुछ विद्वान भारतेन्दु की साम्प्रदायिकता को शुक्ल जी से जोड़कर देखते हैं, जो उचित नहीं है। भारतेन्दु में छिपी हुई साम्प्रदायिकता देखी जा सकती है। भारतेन्दु ने हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान का नारा दिया जो साम्प्रदायिकता को भड़काती है इसके अलावा भारतेन्दु ने ‘दिल्ली दरबार’, ‘अकबर मुगल शासन’ आदि लेखों में मुस्लिमों की निंदा की है। उनके मंडल के अन्य लेखकों जैसे- प्रतापनारायण मिश्र, बद्री नारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ आदि ने भी कुछ साम्प्रदायिक रचनाएं की है। ऐसा भी तर्क दिया जाता है कि अंग्रेजों के विरोध के लिए मुसलमानों का नाम लिया जाता था। लेकिन यह तर्क ठीक नही है ।उसी काल में प्रेमचंद जैसे रचनाकार अपनी रचना के माध्यम से अंग्रेजों का विरोध कर रहे थे। लेकिन इसे हिन्दू धर्म की साम्प्रदायिक नीति से जोड़कर नहीं देखा जा सकता, क्योंकि किसी भी लेखक ने हिन्दू धर्म की खुलकर हिमायत नहीं की ।

     शुक्ल जी उर्दू के विकास की चर्चा तो करते हैं लेकिन ‘हिन्दी की उर्दू शैली’ के काव्यों का उल्लेख नहीं करते है और न ही मीर,  नज़ीर अकबराबादी, सौदा, दर्द, मिर्जा ग़ालिब के  साहित्य का उल्लेख करते हैं। इस तरह वे ‘साम्प्रदायिकता के कटघरे में आ जाते हैं।

     साम्प्रदायिकता का मध्यकाल में यदि कबीर  ने विरोध किया तो आधुनिक काल में प्रेमचन्द, यशपाल, भीष्म साहनी, रांगेय राघव, मुक्ति-बोध तथा नागार्जुन ने किया है। साहित्य मानवता को लेकर चलता है। यदि साम्प्रदायिक तत्व इसमें पैर जमाने की कोशिश भी करते हैं तो प्रगतिशील लेखकों के व्यंग्य बाणों से वे अपनी मानसिकता को बदलने के लिए बाध्य हो जाते हैं।

     चूंकि इतिहास लेखन तथ्यों पर आधारित होता है और तथ्य व विचारधारा मिलकर इतिहास का रूप धारण करते हैं। इसलिए यह इतिहासकार पर निर्भर करता है कि वह कौन सा तथ्य चुनना पसंद करेंगे। इस संबंध में ई०एच-कार का कथन द्रष्ख्य है – “ये सब तथ्य मछुआरे की पटिया पर पड़ी मछलियों की तरह होते हैं। इतिहासकार उन्हें इकट्ठा करता है, घर ले जाता है, पकाता है और अपनी पसन्द की शैली में परोस देता है।”5

      लेकिन तथ्य जीवित मछलियों को तरह हैं जो एक विशाल और अगाध समुद्र में तैर रही हैं। इतिहासकार के हाथ में कौन सी मछलियाँ आएंगी यह इस बात पर निर्भर करता है कि वह समुद्र (साहित्य) के किस भाग में मछली (तथ्य) मारने का इरादा रखता है। इतिहासकार जिस प्रकार के तथ्यों की खोज करता है उसी प्रकार के तथ्य पाता है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि इतिहासलेखन विचारधारा पर आधारित होता है। जिन कच्चे तथ्यों को लेकर शुक्ल जी ने इतिहास लिखा उसी के आधार पर उससे अलग इतिहास भी लिखा जा सकता है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि शुक्ल जी का इतिहास औपनिवेशिक भारत में लिखा गया। अब देश स्वतन्त्र है, उसमें लोकतान्त्रिक व्यवस्था है। भारतीय लोकतन्त्र की अपनी समस्याएँ हैं, सामाजिक सांस्कृतिक संघर्ष हैं, इन्हें देखने समझने का बदला हुआ नजरिया है। मसलन भक्तिकाल की शुक्ल जी ने एक ढंग से पढ़ा और दिवेदी जी ने दूसरे ढंग से। आज के परिवेश में, जो अन्तर्राष्ट्रीय हलचलों और नये तथ्यों से जुड़ गया है। नये सिरे से पढने की जरुरत है। आज के बदले समय में साम्प्रदायिकता का रूप भी अलग होना चाहिए। इसलिए शुक्ल जी पर पूरा दोषारोपण नहीं किया जाना चाहिए। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामस्वरूप चतुर्वेदी आदि ने, शुक्ल जी में अलग लिखने का प्रयास तो किया है, लेकिन वे शुक्ल जी की मान्यताओं का न तो पूर्णतः खंडन कर सके और न ही पूर्णतः नया लिख सके। इसिलिए शुक्ल जी का इतिहास आज भी मान्य है।

संदर्भ ग्रन्थ-

  • हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास – डॉ० बच्चन सिंह – राधाकृष्ण प्रकाशन प्रथम संस्करण-1996 भूमिका का उध्दरण
  • हिन्दी साहित्य का इतिहास-आचार्य रामचन्द्र शुक्ल-नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी (सं. 1999) पृ०12
  • भक्ति आन्दोलन और सूरदास का काव्य- प्रो. मैनेजर पाण्डेय-वाणी प्रकाशन (दिल्ली), प्रथम संस्करण की भूमिका का उध्दरण
  • हिन्दी साहित्य का इतिहास – पृ०56
  • इतिहास क्या है, ई० एच० कार, मैकमिलन प्रकाशन, संस्करण 2003, पृ०3

 

डॉ चन्दन कुमार
असिस्टेंट प्रोफेसर ( हिंदी विभाग)
राजकीय महाविद्यालय, बाराखाल 
संतकबीर नगर