
ये जो जीवन है,
महज संघर्षों का पिटारा है।
विनाश और विकास ये एक दूसरे का पूरक और सहारा है।
विनाश जहां है,
विकास भी वहां निश्चय है।
विकास जब चरम पर पहुंचे
तो विनाश भी तय है।
तय है सबका आना– जाना,
जीत कर हारना और
हार कर जीत जाना।
षडयंत्र और कपट यहां साथ साथ रहते है ।
संघर्षों से ठोकरे खा– खा कर ही मनुष्य को यहां देवत्व मिलती है।
यह कभी ना भूलना कि जो देव मूर्ति मंदिर में प्रतिष्ठित होकर लाखों लोगों द्वारा पूजी जाती है।
वह भी तो पहले शिल्पी के हजारों हथौड़े खाती है।
हां! संघर्षो के चोटों को सहने का
‘प्रेम ही एकमात्र सहारा है।
जिसे मिल न सके यह ‘प्रेम’भी
सोचों वह कितना बेचारा है?
ऐसे बेचारों को अपने तानों से और न सताओ।
संघर्ष के आग में तपे – जले है
उन्हें और न जलाओ।
दे न पाओ प्रेम का सागर तो
कम से कम कुछ छींटे ही बरसाओ।
वह वो न हो संभव तो
बस एक बार मुस्कुरा कर उन्हें गले ही लगाओ ।
हो सके उनकी बैचेनी को भी चैन मिले।
तब तुम भी अपने मंजिल की ओर बढ़ जाओ।