
झील-सी नीली आंखें तो
बहुत देखी जा चुकी
देखने की जरूरत है,
उन गहरी काली अंधेरे से भरी
झुर्रियों से घिरी आंखों को
जो दिखाती हैं, उनके संपूर्ण जीवन की थकान, निराशा
गड्ढों में धंसी, पीली परत पर लाल रेखाएं
मानो उसकी परती पड़ी जमीन हो
सालों से बंजर पड़ा खेत हो
जहां अब किसी फसल की आशा नहीं।
उनमें कभी-कभार ढलकती बूंदे
किसी बरसात की फुहार नहीं होती
वे उन लहरों की भांति हैं,
जो सर्वस्व मिटाने आती है।
वे निश्चय ही,
इंतजार करना चाहतीं हैं
पर कोई वसंत नहीं आता
और अंततः
बार-बार पतझड़ की मार न सह पाने पर
सदैव के लिए बंद हो जाऐंगी
फिर कोई निकलेगा इसी आशा में
उन गड्ढों से शीतल जल की खोज में
और पाएगा केवल रूखापन।
न खत्म होने वाली यह प्रक्रिया
यथावत चलती रहती है
और वे उलझे रहते हैं,
झील सी नीली आंखों में
भ्रामक प्रेम की तलाश के लिए।
राखी राठौर
डॉ. भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय
आगरा





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