आज मैंने सूरज को देखा, 

आसमान में नहीं,तपती हुई सड़कों पर, 

आँखों में चमक, सूखे ओंठ और मैले कपङों में।

अपनी सारी कमाई अपने लाङले ग्रहों पर लुटाने वाला सूरज, 

पैरों में छाले थे, किंतु हाथों में नये जूतों का डिब्बा, 

कपड़े फटे हुए किंतु काँधे पर नया लहंगा। 

मैं सूरज को नहीं जानती थी,

 पर शायद पहचानती थीं ,

यह सबके पास है, 

कहीं गरीब ,कहीं उससे भी ज्यादा ।

सूरज धीरे-धीरे पहुँच जाता है, 

सौरमंडल की झोपड़ी में, 

पृथ्वी और चाँद बाहर निकल कर आते हैं ,

पृथ्वी लहँगा देख खुश हो जाती है,

 पर चाँद, मायूस क्योंकि

 उसे चाहिए महंगे, ब्रांडेड जूते,

 चाँद की मायूसी देख, 

सूर्य अस्त हो जाता है, 

इस प्रश्न के साथ कि 

“उसका चाँद बड़ा होकर चंद्र बनेगा, या राहू”……

 

 

ललिता व्दिवेदी”लवनी”
नरसिंहपुर, मध्यप्रदेश