राजस्थानी फ़िल्म का नाम सुनते ही हमें अजीबो गरीब अहसास होता है कि कोई ऐसी फ़िल्म सिनेमा घर में लगी होगी जो अपने ही पात्रों के भीतर दम तोड़ देगी। लेकिन सब फिल्मों को एक डींग से हाँकना सरासर गलत है।
इसका ताज़ा उदाहरण हाल ही में रिलीज हुई फ़िल्म भरखमा है। यह एक ऐसी फ़िल्म है जिसके पात्र और कहानी आज घटित हो रही घटनाओं को लेकर जीवंत प्रतीत होते है। फ़िल्म में राज्य का एक जिला और उस जिले के भीतर गायब होती लड़कियां और उनको इस जाल से मुक्त कराने आता हरियाणा कैडर का आईपीएस सागर।
बस में बैठी लड़की का पर्श चोरी होना, परिचालक द्वारा उसकी मदद ना करते हुए सांकेतिक भाषा में जवाब देना और चोरो द्वारा पर्श में से केवल पैसे निकालना। आज के समाज में उपस्थित उन लोगों की ओर इशारा करता है जो गलत होता देखकर भी मौन धारण किये हुए है। और जीवन में केवल अर्थ को ही महत्व देते है।
उस पर्श को चोरो के चंगुल से बचाकर लाने वाला अनुराग भी लड़की को पर्श देते समय यह सोच ही लेता है कि कल को वो मुझे चोर नहीं समझ ले। पर्श में विशाखा को मिला आधार कार्ड आखिर में उसके प्रेम का आधार साबित होता है।
दूसरी ओर शहर में आयोजित भावनात्मक लगाव विषय पर सेमिनार और उस सेमिनार में मनोविज्ञान की प्रोफेसर नीलोफर और वहीं पर अपने आंतरिक भावो के प्रकटीकरण का उन्माद लिए मौजूद अनुराग और विशाखा।
पूर्वदीप्ती शैली का प्रयोग इस फ़िल्म में रोचकता उत्पन्न करता है। सागर और नीलोफर का उदिप्त महाविद्यालयी प्रेम कहानी को रोचक बना देता है। दो अलग-अलग धर्म के प्रेमियों का प्रेम कैसे धार्मिक उन्मादियों की भेंट चढ़ जाता है। यह भी बखूबी दिखाया गया है। साथ ही दोनों प्रेमियों का एक दूसरे के प्रति समर्पण का भाव आज की पीढ़ी को सन्देश देता है कि प्रेम में सात्विकता होना जरुरी है। तभी यह पुष्पित और पल्लवित होगा। जैसा कि हमने फ़िल्म में देखा की कैसे सागर और नीलोफर एक दूसरे के बिना जीवन व्यापन करते है और अनेक प्रकार के कष्ट सहन करने के बावजूद भी अंततः दोनों प्रेम में सफल होते है। अनुराग और विशाखा का प्रेम अपने प्रेम के साथ उस प्रेम की भी खोज कर लेता है जो कहीं काल के चक्र में फंसकर उस समय कवंलित हो चुका था। जब वो दोनों कुछ नहीं थे। अंततः दोनों का मिलन होता है और कहानी समाप्त होती है।
साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार प्राप्त लेखक डॉ. जितेन्द्र कुमार सोनी द्वारा लिखित भरखमा कहानी जिस पर यह फ़िल्म बनी है इस कहानी पर इसी नाम से राजस्थानी में फ़िल्म बनाने वाले निर्देशक श्रवण सागर ने भी कहानी के नाम स्वरूप सहनशीलता के भाव को हर जगह प्रदर्शित करने का प्रयास किया है। और बीते कल में आज का दर्श कराने का भरपूर प्रयास किया है। फ़िल्म में इन्होंने जो गाने जोड़े है उनके बोल और मार्मिकता निश्चित ही भावों को अभिव्यक्त करते हुये नजर आते है। राजस्थानी सिनेमा के चहेतो को बहुत खुशी है कि इस फ़िल्म ने राजस्थानी सिनेमा पर वर्षों से लगे ग्रहण को हटाया है। सूखे में घास उगाने का जो सफल प्रयास निर्देशक श्रवण सागर ने किया, उसको नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
नवीन कुमार जोशी
शोधार्थी, हिंदी विभाग
राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर