प्रत्येक देश के इतिहास में कुछ-न-कुछ ऐसी घटनाएँ होती हैं जो वर्त्तमान समय के लिए गर्व करने का विषय होता है । यह अतीत वर्त्तमान को गर्व करने का मौका देने के साथ-साथ अपने समय की घटना और परिस्थितियों से सीखने का भी ज्ञान देता है । व्यक्ति अपने अतीत पर जितना गर्व करता है, उससे अधिक सीखता है । स्वर्णिम और गौरवपूर्ण अतीत के संदर्भ में भारतवर्ष अन्य देशों की अपेक्षा अधिक विशिष्ट है । विशिष्ट इस मामले में की विश्व में शायद हमारा भारत ऐसा देश है जिसके स्वरूप की कल्पना ‘स्त्री’ के रूप में की गई है और ‘माँ’ के संबोधन से पुकारा जाता है । देश और विदेश के सभी व्यक्ति जिसने भारत को देखा और जाना है, उन सभी ने मुक्त कंठ से भारत का गुणगान किया है । अन्य देशों के लोग तो भारत की संपन्नता को देख आश्चर्यचकित हो जाते थे । इसी संपन्नता और समृद्धि के कारण भारत को प्राचीन समय में ‘सोने की चिड़िया’ कहा जाता था । भारत प्राचीन समय में केवल आर्थिक स्तर पर ही समृद्ध नहीं था अपितु सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर भी संपन्न था । विश्व को सभी क्षेत्रों में रास्ता दिखाने का कार्य भारत ने किया है । शिक्षा के लिए भारत में नालन्दा और तक्षशिला विश्व प्रसिद्ध शिक्षण संस्थान रहे हैं, जहाँ देश-विदेश से विद्यार्थी आते थे । यहाँ के ऋषि-मुनियों ने ईश्वर प्राप्ति और शांति के लिए जो मार्ग दिखाया वैसा किसी और देश ने नहीं । आर्यभट्ट और रामानुजन जैसे महान गणितज्ञ इस देश में हुए । चार वेद , छह शास्त्र, अठारह पुराण, गीता, रामायण आदि महान ग्रंथ यहाँ के ऋषि-मुनियों ने रचे । इसी तरह हड़प्पा और सिन्धु घाटी सभ्यता भी भारतीय संस्कृति को गौरवशाली बनाए हुए है । भारतीय संस्कृति का मूल तत्व आध्यात्मिक भावना है । हमारे देश में धर्म और धार्मिक भावनाएं अत्यधिक महत्व रखती है । सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह आदि हमारे संस्कृति की मूल विशेषताएँ हैं जो विश्व के किसी अन्य देश में नहीं देखने को मिलता है । यही कारण है कि मेरे प्यारे सुंदर देश को प्राचीन समय में ‘विश्वगुरु’ की उपाधि से भी संबोधित गया था ।
भारत के स्वर्णिम अतीत को रेखांकित करते हुए अंग्रेज इतिहासकार विलियम डिगवी 18वीं शताब्दी में कहता है “अंग्रेजों के पहले का भारत विश्व का सर्वसंपन्न कृषि प्रधान देश ही नहीं बल्कि एक ‘सर्वश्रेष्ठ औद्योगिक और व्यापारिक देश’ भी था । भारत की भूमि इतनी उपजाऊ है, जितनी दुनिया के किसी देश में नहीं । भारत के व्यापारी इतने होशियार हैं जो दुनिया के किसी देश में नहीं हैं । भारत के कारीगर जो हाथ से कपड़ा बनाते हैं उनका बनाया हुआ कपड़ा रेशम का तथा अन्य कई वस्तुएं पूरे विश्व के बाजार में बिक रही है ।…….. भारत देश में इन वस्तुओं के उत्पादन के बाद की बिक्री की प्रक्रिया है वो दुनिया के दूसरे बाज़ारों में बिकती हैं तो भारत में सोना और चाँदी ऐसे प्रवाहित होता है जैसे नदियों में पानी प्रवाहित होकर जैसे महासागर में गिर जाता है वैसे ही दुनिया की तमाम नदियों का सोना चाँदी भारत में प्रवाहित होकर भारत के महासागर में गिर जाता है ।”[1] विलियम डिगवी के उक्ति से पता चलता है की भारत का व्यापारिक संबंध दुनिया के देशों से बहुत अच्छा था । भारतीय वस्तुओं की मांग दुनिया के बाजार में अत्यधिक था । इस परिणाम स्वरूप भारत धन-धान्य से संपन्न था । आर्थिक संपन्नता के कारण भारतीय समाज अत्यधिक खुशहाल था । इस तरह से हम देखते हैं कि हमारा देश आज से तीन-चार सौ वर्ष पूर्व अर्थात गुलाम होने से पहले सोने का खान था परंतु अंग्रेजी शासन ने हमारे इस स्वर्णिम देश का शोषण कर दरिद्र बना दिया ।
गौरवपूर्ण अतीत का परिप्रेक्ष्य
भारत के गौरवशाली अतीत का महिमा-वर्णन अनेक साहित्यकारों एवं कलाकारों ने किया है । हमारे प्राचीन ग्रन्थों में कहा गया कि जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान है । एक सच्चे देशवासी को अपनी मातृभूमि से अत्यधिक लगाव होता है । वह अपने देश की प्रकृति, सभ्यता, संस्कृति, साहित्य आदि सभी में गहरी रुचि रखता है और उससे प्रेम करता है । महाकवि जयशंकर प्रसाद अपनी प्रसिद्ध नाटक चन्द्रगुप्त में लिखते हैं-
अरुण यह मधुमय देश हमारा,
जहाँ पहुँच अंजान क्षितिज को मिलता एक सहारा ।
भारतेन्दु युग के यशस्वी और बेहद संवेदनशील साहित्यकारों में बालकृष्ण भट्ट का प्रमुख स्थान है । भट्ट जी मूलतः निबंधकार के रूप में हिन्दी साहित्य के आकाश में उदित हुए । “भट्ट जी स्वभाव से गंभीर, मन से दृढ़ प्रतिज्ञ, प्रतिभा से विलक्षण तथा कार्य में निपुण थे ।”[2] भट्ट जी के रचना में तात्कालिक युग का संपूर्ण चित्रण देखने को मिलता है । उनके निबंधों में अतीत का जो चित्रण हमें देखने को मिलता है वह नवजागरणकालीन परंपरा की तरह केवल अतीत का चित्रण नहीं है बल्कि अतीत के बोझ से मुक्ति का संदेश देते हैं । वे वर्त्तमान की दीन हीन दशा का कुछ अंश में अतीत को भी उत्तरदायी समझते हैं ।
भट्ट जी प्राचीन समय के समाज और भक्ति भाव के रमणीय क्षण का चित्रण करते हुए ‘लौ लगी रहे’ निबंध में लिखते हैं- “प्राचीन समय में इस तरह के सरल चित्र प्रह्लाद, अम्बरीश, शबरी, सुदामा आदि कितने अनन्य भक्त हो गये हैं जो अपने प्रभु और सेव्य की सेवा में सदा निरत और लौलीन रहे । इस काल के समय में मीरा, नरसी, कबीर, दादू, नानक, सूर, और तुलसी प्रभृति अनेक महात्मा ऐसे हो गये जिनके हृदय का कपाट खुला हुआ था और जिनको परमेश्वर का साक्षात्कार हो गया था, जो भक्ति-रसामृत के अगाध सिन्धु में डूबे हुए निर्वाण- पद मुक्ति को भी लात मारते थे । इन सबों की ऐसी दृढ़ लौ लग गयी थी कि उन्हें सारा संसार अपने सेव्य प्रभुमय और सिवाय उस सर्वव्यापी के और कुछ था ही नहीं ।”[3] ईश्वर की महत्ता भारतीय संस्कृति का मूल आधार रहा है । भारतीय समाज प्राचीन समय से धर्म परायण रहा है । पुरुषार्थ में भी धर्म को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है । प्रत्येक शुभ, अशुभ, विवाह, मृत्यु, जन्म, नामकरण आदि सभी अवसरों पर ईश्वर का स्मरण करना है । भारतीय संस्कृति में वृक्षों, नदियों, पहाड़ों, पत्थरों आदि तक को भी पूजा जाता है अर्थात् उन्हें महत्व दिया जाता है । यही कारण है कि भारत भूमि पर हनुमान, तुलसी और सुर जैसे महान भक्त हुए हैं जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन अपने आराध्य की सेवा में लगा दिया । प्राचीन समय में अपने उपास्य देव से इतने अधिक तल्लीन हो जाते थे कि उन्हें दुनिया से मुक्त्त हो, सांसरिक मोहमया को त्याग कार प्रभु का वंदन और स्मरण ही करते रहे थे । इन भक्तों के भक्ति भाव को देख ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हें ईश्वर का साक्षात्कार हो गया है । इन्हीं विशेषताओं के कारण हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल को ‘स्वर्णयुग’ भी कहा गया है ।
भट्ट जी केवल भक्ति की परंपरा का ही उल्लेख नहीं करते वरन भारत के प्रसिद्ध धार्मिक स्थलों का भी चित्रण करते हैं । भट्ट जी इसी तरह ‘लोक- एषणा’ निबंध में ब्रज भूमि के बारे में लिखते हैं – “84 कोस ब्रज में जाके देखिये, चित्त सन्न हो जाएगा और यही जी चाहेगा कि हम भी ब्रज-भूमि में क्यों न पैदा हुए कि कृष्ण भगवान् की लीला का अनुभव करते हुए अहर्निश आमोद-प्रमोद किया करते ।”[4] प्राचीन समय से ही भारत का संपूर्ण ब्रजक्षेत्र ( मथुरा, वृन्दावन, बरसाने ) भगवान श्री कृष्ण का लीला क्षेत्र रहा है । कृष्ण ने इन्हीं क्षेत्रों में अपने बचपन से लेकर यौवन काल तक अपना समय बिताया । इस क्षेत्र का एक-एक कोना कृष्ण की लीलाओं को दर्शाता है । कृष्ण कभी ग्वाल रूप में, तो कभी प्रेमी रूप में तो, कभी नन्हें नटखट बालक के रूप में लीला करके इस क्षेत्र को रमणीय बना दिया है । भट्ट जी इस रमणीय स्थल का चित्रण कर भारत के गौरवपूर्ण अतीत को दर्शाते हैं और लोगों को अतीत से प्यार करना सीखाते हैं । काशी, हरिद्वार, द्वारका भारत में अनेक धार्मिक और सांस्कृतिक स्थल है जो अपने वैभव के कारण संसार भर में प्रसिद्ध है । विश्वविख्यात खजुराहो के मंदिर भारत का गौरव है । अनेक विद्वानों ने अपने निबंधों में इस पावन भूमि का वर्णन किया है । प्राचीन समय में ‘चौरासी कोस की यात्रा’ यहाँ के निवासी करते थे जिसमें वे देश के विभिन्न धार्मिक स्थलों का भ्रमण कर अपने को कृतार्थ महसूस करते थे । भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अपने निबंध ‘काशी’ में वहाँ के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए लिखते हैं – “पंचक्रोशी के मार्ग, मंदिर और सरोवरों में से दो सौ या तीन सौ वर्ष के प्राचीन कोई चिन्ह नहीं हैं और इस बात का कोई निश्चायक नहीं कि पंचक्रोश का मार्ग यही है, केवल एक कर्मदेश्वर का मंदिर बहुत प्राचीन है और इसके बौद्धों के काल का या इसके पीछे के काल कहें, तो अयोग्य न होगा ।”[5]
बालकृष्ण भट्ट प्राचीन काल के भक्ति भाव और धार्मिक स्थल के साथ-साथ वैदिक कालीन समाज और व्यक्ति का भी वर्णन करते हैं । वैदिक काल के लोग अत्यधिक सरल और निश्छल थे । उन्हें जो वस्तु सुंदर लगती थी उस पर मोहित हो जाते थे साथ ही अगर उन वस्तुओं का उनके दैनिक जीवन में महत्त्व होता तो वे उन्हें ईश्वर तुल्य मान लेते थे । ‘बोध, मनोयोग और युक्ति’ निबंध में लिखते हैं – “वैदिक समय के लोग यहाँ बोध के बड़े अनुयायी थे जो वस्तु उन्हें सुन्दर और तेजोमय देख पड़ी उसपर बहुत कुछ दत्तचित्त हो जाते थे उसके सौन्दर्य से आकर्षित हो जैसा सूर्य, चन्द्रमा, उषा विद्युत आदि को ईश्वर को बड़ी भारी शक्तिमान देवताओं में गिना ।”[6] भारतीय समाज के लोग प्राचीन काल से ही निश्छल और विनोदी रहे हैं । इसी का परिणाम है कि भारतीय समाज में पहाड़, पत्थर, नदी, वृक्ष तक की पूजा होती है और उसकी महत्ता दी जाती है । भारतीय समाज में एक परंपरा है कि किसी व्यक्ति की शादी बिना वृक्ष की पूजा किए नहीं हो सकती है । किसी भी यज्ञ अथवा संस्कार में भिन्न-भिन्न वृक्षों की डाली को अग्नि में जलाकर शुद्धि करने की परंपरा है ।
वैदिक समय में राजा और प्रजा सबको समान अधिकार थे । समाज समृद्ध और संपन्न था तथा दुख- क्लेश का कहीं कोई चिन्ह नहीं था । प्रजा पर कर (लगान) का ज्यादा बोझ नहीं था । कृषि से उपजी सारी फसल प्रजा के हक में जाती थी । “प्रजा को किसी तरह की पीड़ा का नाम भी न था । पैदावारी का छठवाँ हिस्सा केवल राजा को देते थे ।”[7] प्राचीन समय में भूमि का मालिक किसान था । पैदावारी का बहुत कम हिस्सा शासक को दिया जाता था । राजा और प्रजा सबके लिए एक समान कानून समाज में थे ।
भारत की प्राचीन सभ्यता विश्व प्रसिद्ध है । हड़प्पा और मोहनजोदडों की सभ्यता का वर्णन कर आज भी हम भारतवासी फूले नहीं समाते हैं । हमारी सभ्यता काफी विकसित थी । लोग एक स्थान से दूसरे स्थान पर विचरण कर अपना जीवन बिताते थे और अपनी तीक्ष्ण बुद्धि के सहारे समाज का पथ प्रदर्शन करते थे । प्रकृति के निकट रह हमारे पूर्वज प्रकृति को नुकसान पहुंचाये बिना सहज भाव से जीवन-यापन करते थे । ‘पुरातन और आधुनिक सभ्यता में अन्तर’ निबंध में भट्ट जी ने इन्हीं विचारों का उल्लेख करते हुए लिखते हैं – “पुरानी सभ्यता का उद्देश्य Simple living and high thinking साधारण जीवन और उच्च विचार था । हमारे पुराने लोग शून्य एकान्त स्थान में जनमानस से बड़ी दूर किसी पर्वत स्थली या पवित्र नदी के तट पर स्वच्छ जलवायु में नीवार साग पात या कन्द मूल फल खाकर रहते थे । …….. विचार उनके कैसे ऊंचे होते थे कि संसार कि कोई ऐसी बात न बच रही जिस पर उन्होंने ख्याल नहीं दौड़ाया और जिसको अपने मस्तिष्क में नहीं रख लिया ।”[8] प्राचीन समय में भारत के लोग बहुत बुद्धिमान होते थे । प्रकृति को अपना सहचरी बना कर अपना जीवन यापन करते थे और उन्नति के मार्ग पर चलते थे । प्राचीन लोगों की बुद्धिमत्ता का ही परिणाम है कि भारत में विश्वविख्यात शिक्षण संस्थान पहले पहल स्थापित हुआ ।
प्राचीन समय में भारत व्यापारिक स्तर पर काफी समुन्नत था । अनेक विदेशी इतिहासकारों को भारत की संपन्नता देख आँखें चौधियां जाती थी । भारत के कारीगर की प्रतिभा का लोहा पूरी दुनिया मानती थी । किन्तु अंग्रेजों के आने के बाद भारत की स्थिति दिनोंदिन खराब होती चली गई । भट्ट जी भारत की वर्त्तमान स्थिति देख झुँझला उठते हैं । भारत के वस्त्रों की मांग प्राचीन समय में दुनिया भर में थी परंतु आज स्थिति यह है कि भारत निर्यात के जगह आयात करने लगा है । दुनिया के लगभग सभी देशों ने विषम परिस्थितियों में भारत का शोषण ही किया है । सबने अपने-अपने खजाने भरे और भारत को कंगाल बना दिया । सन् 1907 में लिखित भट्ट जी का ‘भारत में दिवाला’ निबंध इसी स्थिति को दर्शाता है । वे लिखते हैं – “भूमण्डल में कौन सा ऐसा देश है जो भारत के दिवाले से इस समय फाइदा नहीं उठा रहा है । वरन काटछांट कर चपत मारते हुए सबी इसे लूट रहे हैं । कोई समय था कि बाहर के सौदागर यहाँ आय चीजें यहाँ की ले जाते थे और लाभ उठाते थे, …… steam और Electricity का आविष्कार तब तक नहीं हुआ था भाप और बिजली की शक्तियों का गुण किसी को मालूम नहीं था । केवल हाथ की बनी कारीगरी की चाह लोगों में फैली हुई थी । उस समय यहाँ के उत्तमोत्तम शाल रेशमी वस्त्र और महीन से महीन कपड़े पृथ्वी भर का धन खींचे लेते थे ।”[9] जब दुनिया में किसी वस्तु और मशीन का ज्ञान किसी को नहीं था उस समय से ही भारत के लोग अपनी प्रतिभा और तीक्ष्ण बुद्धि के सहारे नए-नए आविष्कार कर दुनिया के बाज़ार में निर्यात कर व्यापारिक संबंध स्थापित कर रहे थे और भारत को आर्थिक स्तर पर मजबूत कर रहे थे । वर्त्तमान समय में भी भारत का हस्तशिल्प अन्य देशों के अपेक्षा ज्यादा सुंदर और उन्नत है ।
बालकृष्ण भट्ट बेहद दूरदर्शी व्यक्ति थे । उन्होंने जब भारत की स्थिति का कारण समझने की कोशिश की तो उन्हें ‘फ्री ट्रेड’ कानून भारत के दिवालिये का मुख्य कारण मालूम पड़ा । फ्री ट्रेड को भट्ट जी ने भारत के लिए जहर माना । अंग्रेजों की शोषण नीति ने भारत को अत्यंत हानि पहुंचाया । “सन् 1836 तक प्रतिवर्ष दो करोड़ की चीनी यहाँ से और-और देशों में जाया करती थी ।”[10] भट्ट जी हमें साहित्यकार के साथ-साथ एक अर्थशास्त्री भी नजर आते हैं । उन्होंने भारत की आर्थिक सुदृढीकरण का चित्रण तो करते ही है साथ ही वे उन कारणों का चित्रण भी करते हैं जिन कारणों से भारत आर्थिक स्तर पर कमजोर हुआ । भट्ट जी उन दो विपरीत समयों का तुलनात्मक विश्लेषण कर समाज में चेतना लाने की कोशिश करते हैं । उनकी तीक्ष्ण बुद्धि ने इन सब शोषण नीति को बहुत अच्छी तरह पहचाना है । सन् 1907 में ‘स्वतंत्र वाणिज्य’ नामक निबंध उनके अर्थशास्त्री दृष्टि को दर्शाता है । इस निबंध में भट्ट जी लिखते हैं- “यह इसी फ्रीट्रेड की महिमा है कि हम दाने दाने को तरस रहे हैं – जिस देश में कारीगरी की तरक्की है और जो देश Competition आपस की उतरा चढ़ी में पार पा सकता है उसके लिए स्वतंत्र वाणिज्य बड़ी बरकत है । लेकिन जो कृषि प्रधान देश, जो सिर्फ कच्चाबाना Raw material पैदा करता है उसके लिए यह फ्रीट्रेड जहर है ।”[11] स्वतंत्र व्यापार भारत जैसे कृषि प्रधान देश के लिए कभी भी फायदे का सौदा नहीं रहा है । भट्ट जी का मानना है कि अपना पैदा किया हुआ सामान दूसरे देशों को देना और फिर थोड़ा बहुत परिवर्त्तन कर दुबारा खरीदना मूर्खता भरा कार्य है । इसी कारण भारत का दिवालिया हुआ है । उनका मानना है कि थोड़ा और मेहनत कर अगर भारतवासी स्वयं सामान बनाना शुरू कर दे तो भारत फिर से सुदृढ़ हो सकता है क्योंकि पश्चिमी देश भारत के किसानों के मेहनत का फायदा उठाते हैं और कच्चा सामान ले जाकर अपने यहाँ के उद्योग में लगा लाभ कमाते हैं । यहीं कारण है कि भट्ट जी इस नीति का विरोध करते हैं ।
विश्व व्यापार संगठन (WTO) की चर्चा भारत में 21वीं सदी में हो रही है । उस जहरीली शोषक नीति का पर्दाफाश भट्ट जी ने 1907 के दशक में ही कर दिया था । भारत सरकार देश की उन्नति और समृद्धि के नाम पर विश्व व्यापार संगठन के साथ करार किया है, वह भट्ट युगीन फ्री ट्रेड का ही रूपान्तरण है । भट्ट जी भारत के उन्नति के लिए फ्री ट्रेड को जहर मानते थे । इस विदेशी शोषक नीति के साथ करार करने से पहले भट्ट जी का निबंध ‘स्वतंत्र वाणिज्य’ अवश्य पढ़ लेना चाहिए । भट्ट जी का मानना है कि भारतीय विदेशी वस्तु और नीति के चकाचौंध में अपनी वस्तु को हेय दृष्टि से देखने लगते हैं । इसका परिणाम यह होता है कि हम विदेशी वस्तुओं के गुलाम बनते जाते हैं और अपना बहुमूल्य धन गँवा देते हैं । 19वीं सदी में भी भारत की जो मानसिकता थी, आज 21वीं सदी में अर्थात् वैश्वीकरण के दौर में भी भारतीयों की सोच में कुछ ज्यादा परिवर्त्तन देखने को नहीं मिलता है । इसी सोच का परिणाम है कि कुछ वर्षों से भारतीय अगुआ न बन पिच्छलगुआ बन कर रह गया है । भट्ट जी भारतीय वस्तु की महत्ता अच्छी तरह जानते थे, उन्हें भारतीयों की प्रतिभा का भी ज्ञान था । यही कारण है कि भट्ट जी विदेशी का बहिष्कार कर स्वदेशी पर ज़ोर देते हैं । उनका ‘स्वराज’ निबंध उनके इसी सोच को दर्शाता है ।
संदर्भ ग्रंथ-सूची
- सरल, धनंजय भट्ट,(सं), भट्टनिबन्धावली, भाग- 1 एवं 2, प्रयाग साहित्य सम्मलेन, प्रयाग, 2009 ई.
- मिश्र, सत्य प्रकाश (सं.), बालकृष्ण भट्ट: प्रतिनिधि संकलन, नेशनल बुक ट्रस्ट,दिल्ली, 2012ई.
- सिंह, डॉ. (श्रीमती), प्रेमा, आधुनिक निबंध साहित्य में मनोवैज्ञानिक उदभावनाएं (प्रमुख निबंधकारों का व्यक्तित्व और कृतित्व), ट्रांस एशिया पब्लिकेशन, दिल्ली, प्रथम संस्कारण
- डॉ. बाबूराम, हिन्दी निबंध साहित्य का सांस्कृतिक अध्ययन, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2002ई.
- डॉ. नगेन्द्र, डॉ. हरदयाल, हिंदी साहित्य का इतिहास, मयूर पेपरबैक्स, नोएडा, 2012 ई.
- चतुर्वेदी रामस्वरूप, हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास, लोकभारती, प्रकाशन, इलाहाबाद, 2010 ई.
- चतुर्वेदी रामस्वरूप, हिन्दी गद्य : विन्यास और विकास, लोकभारती, प्रकाशन, इलाहाबाद, 2014 ई.
- जैन, प्रदीप कुमार, भारतीय संस्कृति, राहुल पब्लिशिंग हाऊस, दिल्ली, 1994 ई.
- टैगोर, रवीन्द्रनाथ, सौमित्र मोहन (अनु.), राष्ट्रवाद, नेशनल बुक ट्रस्ट, दिल्ली, 2016 ई.
- https//exploremyindia.in/2015/05/golden-age-0f-india.html
[1] https//www.exploremyindia.in/2015/05/golden-age-0f-india.html
[2] सिंह, डॉ (श्रीमती) प्रेमा, आधुनिक निबंध साहित्य में मनोवैज्ञानिक उदभावनाएं, पृ सं- 45
[3] शुक्ल, देवीदत्त,धनंजय भट्ट (सं.), भट्टनिबंधावली, भाग-1 पृ- 66
[4] शुक्ल, देवीदत्त,धनंजय भट्ट (सं.), भट्टनिबंधावली, भाग-1, पृ – 132
[5] डॉ. बाबूराम, हिंदी निबंध साहित्य का सांस्कृतिक अध्ययन, पृ- 291
[6] मिश्र, सत्य प्रकाश (सं.) बालकृष्ण भट्ट : प्रतिनिधि संकलन, पृ- 113
[7] मिश्र, सत्य प्रकाश (सं.), बालकृष्ण भट्ट : प्रतिनिधि संकलन, पृ- 113
[8] मिश्र, सत्य प्रकाश (सं.), बालकृष्ण भट्ट : प्रतिनिधि संकलन, पृ- 142
[9] मिश्र, सत्य प्रकाश (सं.), बालकृष्ण भट्ट : प्रतिनिधि संकलन, पृ सं- 150
[10] मिश्र, सत्य प्रकाश (सं.), बालकृष्ण भट्ट : प्रतिनिधि संकलन, पृ सं- 151
[11] मिश्र, सत्य प्रकाश (सं.) बालकृष्ण भट्ट : प्रतिनिधि संकलन, पृ- 160