अनुक्रमणिका

संपादकीय  डॉ. आलोक रंजन पाण्डेय बातों – बातों में  मैं उबलता हुआ पानी जिसे भाप बन कर ख़त्म होते रहना है (वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी जी से प्रियंका कुमारी की […]

मैं उबलता हुआ पानी जिसे भाप बन कर ख़त्म होते रहना है (वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी जी से प्रियंका कुमारी की बातचीत)

समकालीन आलोचना जगत् में वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। एक आलोचक के साथ-साथ आप एक सफल सर्जक, इतिहासकार, गद्यकार एक कुशल अध्यापक और एक अच्छे शिष्य भी […]

सामाजिक जीवन के यथार्थ दृष्टा  : मुंशी प्रेमचंद – डॉ. ममता देवी यादव

सारांश आधुनिक हिंदी साहित्य के लेखकों में मुंशी प्रेमचंद जी अग्रणी माने जाते हैं। मुंशी प्रेमचंद जी उर्दू साहित्य में भी उतने ही प्रसिद्ध हैं जितने की हिंदी साहित्य में […]

अँग्रेजी पन्नों का पर्दा – मनीषा अरोड़ा

बीसवीं सदी के मध्य से ही अँग्रेजी की साहित्यिक दुनिया में आधी आबादी के प्रश्नों को गंभीरता से जगह मिलने लगी। यह वह दौर था जब ‘उग्रवादी नारीवाद’ का तेजी […]

समकालीन सामाजिक-सांस्कृतिक चुनौतियाँ और उदय प्रकाश – दीपक कुमार जायसवाल

कहानी अपने विकसित रूप में 55 के आसपास दिखती है उस वक्त देश राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से ढेर सारी चुनौतियों गुजर रहा था। आज़ादी के बाद देश की […]

प्रेमचंद की कहानियों में पारिवारिक मूल्यबोध – डॉ. रूचिरा ढींगरा   

परिवार मानव समाज की सर्वाधिक प्राचीन छोटी किंतु सुसंगठित संस्था है।  पति – पत्नी और उनकी संतान  इसके निर्मायक  होते हैं । वैश्विक सभ्यता और संस्कृति के विकास से प्रभावित […]

मैला आंचल – राजनीतिक परिदृश्य  – महमुदा खानम

किसी अंचल विशेष को आधार बनाकर लिखी जाने वाली औपन्यासिक कृति आंचलिक उपन्यास की श्रेणी में आती है। डॉक्टर धीरेंद्र वर्मा ने हिंदी साहित्य कोश में लिखा है कि ‘लेखक […]

रंगभूमि: युगीन समस्याओं का जीवंत दस्तावेज़ – डॉ. सुनीता

उपन्यास सम्राट प्रेमचंद ने हिंदी उपन्यास को एक नई दिशा देकर एक नए युग का सूत्रपात किया । हिंदी उपन्यास के क्षेत्र में युगांतकारी परिवर्तन हुए । उनके आगमन से […]

सेवा सदन के सुमन की मानसिकता – डाॅ. मुरलीधर अच्युतराव लहाडे

प्रारूप:- सेवा सदन से पूर्व की प्रायः सभी रचनाएँ रूमानी जासूसी और कल्पना लोक में विचरण करनेवाली कथा पर आधारित थी। समाज के वास्तविक स्वरूप को तो देखने का शायद […]

प्रेमचंद की रचनाधर्मिता – डॉ. रेविता बलभीम कावळे

हर एक वस्तु की और देखने की प्रत्येक लेखक की अपनी स्वतंत्र दृष्टि होती है। अपने-अपने दृष्टिकोण से किसी चीज को परखने की सूक्ष्मता हर एक लेखक में होती है। […]