संचार माध्यम अथवा मीडिया का स्वरूप तेजी से इस प्रकार बदलता दिखाई दे रहा है है कि इस पर काले बादल मंडराते दिखाई दे रहे है|  अतः यह कर पाना कठिन है कि माध्यम के परोपकारी एवं कल्याणकारी महावीर स्वरूप और उद्देश्य क्या होंगे?  यह स्थिति केवल हमारे देश की ही नहीं,  विश्व के संपूर्ण देशों में संचार माध्यमों का यही हाल है|  यह बात ऑस्ट्रिया के शहर सिल्सवर्ग में  20 से 24 मार्च 2002 तक आयोजित पत्रकारों के 396 व  अधिवेशन से स्पष्ट होती है।   इस अधिवेशन में भारत सहित 20 देशों के पत्रकारों तथा  पत्रकार जगत से संबंधित विशेषज्ञों ने भाग लिया।  इसका विषय था –  विभिन्न माध्यमों की विश्वसनीयता मैं गिरावट, जिसके परिणाम स्वरुप माध्यमों के सामाजिक दायित्व मे  कमी (The decline of the news media’s role as a public trust and effects of that phenomenon)

जैसा कि हम पहले भी कह चुके हैं कि पत्रकारिता का यह मूल उद्देश्य जनसाधारण को सूचना देकर संकट के समय सामाजिक दायित्व के प्रति उन्हें सजक करना है|  इस अधिवेशन में हुई गंभीर चर्चा के बाद प्रतिभागियों का यह दृढ़ मत रहा कि वर्तमान में इस मूल उद्देश्य (समाचार संकलन, चयन एवं प्रकाशन)  की गुणवत्ता पर विज्ञापन से होने वाली आय का विपरीत प्रभाव पड़ रहा है।  जिससे वर्तमान पत्रकारिता पर गहरा आघात हो रहा है|  वह जनहित में ना होकर औद्योगिकीकरण की दिशा में अग्रसर हो रही है|  वह  वर्तमान में जनसंचार माध्यमों में रत संस्थान विज्ञापन द्वारा अधिक से अधिक धन कमाने में रुचि रखते हैं एवं समाचार के संकलन व प्रकाशन को  उचित परिवेश में प्रकाशित नहीं किया जा रहा है|  इसमें कुछ अपवाद हो सकते हैं, लेकिन विश्व में मीडिया जगत के अधिकांश संस्थान इस मायाजाल में फँस चुके हैं|

सामाजिक सुरक्षा एवं मानवता की स्वाधीनता के लिए मीडिया  की स्वतंत्रता अनिवार्य है|  सक्रिय पत्रकारिता पर ही देश की सार्वभौमिकता अवलंबित है|  यह तभी संभव है जब प्रसारित समाचारों का चयन, संगम एवं प्रकाशन सही परिवेश में को|  उसके गुण दोषों पर आदान प्रदान के अवसर मिलते रहे,  उनका सक्रिय विश्लेषण हो|  पत्रकारिता के इसी महत्व को देखते हुए अनेक देशों में उन्हें संवैधानिक एवं कानूनी सुरक्षा दी गई है| इन संरक्षणों के कारण प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को नियंत्रण तथा सेंसरशिप इत्यादि से परे रखा गया है|  जनसंचार माध्यम से संबंधित व्यक्तियों को आदर सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है|

ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो 21वीं सदी के प्रारंभ से माध्यम का राजनीतिकरण एवं औद्योगिकीकरण प्रारंभ हुआ|  यदि इस समस्या पर नियंत्रण पाने के लिए समुचित उपाय न किए गए तो मीडिया  को दी गई स्वतंत्रता खतरे में पड़ सकती है|  यह देश की एकता सार्वभौमिकता एवं देश के विकास में बाधक हो सकती है|

आज हर जगह मीडिया का औद्योगिकीकरण एक विकराल रुप ले चुका है|  बढ़ते लाभांश के कारण यह अपने मूल उद्देश्य से भटक गया है|  नागरिकों के मूल अधिकारों की सुरक्षा, देश की संस्कृति एवं उसकी एकता पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ा है|  इस हानि का आकलन आज संभव नहीं।  यह मूल्यांकन का विषय है|

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अर्थात टीवी एवं रेडियो का संचालन विज्ञापन से प्राप्त आय द्वारा ही संभव है|  लेकिन आप प्रिंट मीडिया औद्योगिकीकरण की होड़  से अछूता नहीं है|  विज्ञापन से होने वाली आय के परिणाम स्वरुप इन संस्थानों के मालिक भी समाचार के चयन, उनके संपादन में भी दखल देते हैं|  इसका सीधा प्रभाव माध्यम की भूमिका पर पड़  रहा है|  औद्योगिक ता को प्राथमिक देने की स्पर्धा में ऐसी प्रवृति को जन्म दिया है कि समाचार का चटपटा स्वरूप प्रसारित हो रहा है|  है उनका मूल्य उद्देश्य प्रकाशन की संख्या में वृद्धि हो गया है, ताकि विज्ञापनों की प्राप्ति में सुविधा हो सके|  वर्तमान में प्रिंट मीडिया के तुलना में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, जैसे टीवी के विभिन्न चैनलों पर यह व्यवहारिक तथा उत्तेजक विज्ञापनों की संख्या में वृद्धि हुई है|  इससे जनसाधारण से उनका संपर्क टूटता जा रहा|  है वह एक नई संस्कृति को पनपाने में  भागीदार बन गए हैं|  क्या से माध्यम पर मंडराते शनि का प्रभाव नहीं कहा जा सकता?

आते अंतर्राष्ट्रीय स्तर के इस अधिवेशन यह प्रस्ताव पारित किया गया कि विश्व में मीडिया से जुड़े संस्थानों के मालिकों से अनुरोध किया जाए कि वह मीडिया के उद्देश्य की रक्षा के लिए अपने दायित्व को समझें था इसके औद्योगिकीकरण एवं भूमिका के निर्वाह हेतु संतुलित मार्ग अपनाएं, ताकि मीडिया की सार्थकता सिद्ध हो सके और मानवता की स्वाधीनता एवं अधिकारों की रक्षा हो|

विकासशील देशों पर को शनि की वक्र दृष्टि का प्रभाव स्पष्ट देखने मैं आता है|  विकसित देशों को विकासशील देशों के बढ़ते प्रभुत्व से खतरा मंडराता दिखाई दे रहा है|  इसलिए पश्चिम के ये समाचार पत्र अनर्गल समाचारों के माध्यम से विकासशील देशों के विपरीत कमरकस चुके हैं|  उदाहरण के तौर पर यह प्रचारित किया गया कि —

चीन में धार्मिक संगठन फालगुणगोंग से चीन के साम्यवाद प्रशासन को संकट पैदा हो गया है|  जबकि साम्यवाद  स्वयं धीरे-धीरे उदारवादी नीति के क्षेत्र में प्रवेश कर रहा है|

जापान के लोग कंप्यूटर के बढ़ते प्रभाव से निकम्मे एवं आलसी होते जा रहे हैं|

रूस की आर्थिक व्यवस्था बिल्कुल डगमगा गई है|

इसके पीछे उद्देश्य जो भी हो, इससे विकासशील देशों की राजनीति एवं उसके सामाजिक ढांचे पर विपरीत असर पड़ रहा है| इसके प्रति विकासशील देशों को तत्काल सजगता बरतना आवश्यक प्रतीत होता है|

भारत की स्थिति और भी गंभीर है| लगता है कि शनि की साढेसाती का विकट प्रभाव उस पर पड़ा है|  मीडिया के नैतिक दिशा-निर्देश के अभाव में वह समाज के बुनियादी ढांचे को तहस नहस करने, उपभोक्तावाद की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करने एवं राजनेताओं के व्यक्तिगत जीवन की छवि को विकृत करने में लगे हैं|  उदाहरण स्वरुप, भारत के संवैधानिक प्रमुख राष्ट्रपति को लड़खड़ाते हुए दिखलाना, एक मुख्यमंत्री को एक प्रभावशाली नेता के जूते उठाते हुए प्रदर्शित करना, एक प्रधानमंत्री का एक जूता पहन कर ही चल देना, एक भ्रष्टाचारी नेता के जेल से छूटने पर हाथी पर बिठाकर जुलूस निकालने तथा रसोई घर में सब्जी पकाते हुए उसकी छवि को उभारना इत्यादि ऐसे अनेक दृश्य एवं समाचार जिनका नैतिकता एआधार पर निषेध होना चाहिए|  क्या यह सब मीडिया  या माध्यम का दायित्व है ?

इसी ढिलाई के परिणाम स्वरुप यदि विदेशी संवाददाता देश के वर्तमान प्रधानमंत्री की छवि को अक्षम, अविवेकपूर्ण एवं तर्कहीन तथा पिनक में रहने वाले की तरह तोड़ मरोड़कर प्रसारित करें अथवा देश की छवि का उल्टा रूप प्रसारित करें तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं|  मेरा इशारा विदेशी पत्रिका ‘ टाइम्स में प्रकाशित एक शरारत एवं अविवेकपूर्ण लेख, जिसका शीर्षक “A sleep at the wheels’’  यानी ‘पहिए पर सोते हुए’   के प्रकाशन से है|  यह लेख पत्रिका के भारत स्थित संवाददाता एलेक्स परी ने लिखा था|  उनके निष्कर्ष का आधार ना तो डॉक्टरी रिपोर्ट है, नहीं किसी विशेषज्ञ का मत उनके लिए एक के प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी को खाने की आदत को लेकर ऊलजलूल, आधारहीन निष्कर्ष निकाल कर प्रस्तुत किया गया।   लेख का सारांश यह था कि श्री वाजपेयी खाने पीने पर नियंत्रण न रखने के कारण इस तरह बीमार, लाचार एवं अपना मानसिक संतुलन खो चुके हैं कि उनकी उंगली के नीचे परमाणु बम का बटन रहने पर वह कभी भी अविवेकपूर्ण स्थिति में उसे दबा सकते हैं|  क्या यह एक पेशेवर विदेशी स्वस्थ पत्रकारिता का तकाजा है?  ऊपर से रुतवा यह की संवाददाता अपने किए पर खेद तक प्रकट करने को तैयार नहीं|

देश के ऐसे वातावरण में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने 57 वर्ष के बाद समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं में 26 प्रतिशत एफडीआई की अनुमति देकर एक नया बवंडर खड़ा कर दिया है | प्रिंट मीडिया उद्योग के एफडीआई के समर्थन वाला मंत्रिमंडल का निर्णय तर्क की दृष्टि से एक उपयुक्त कदम है|  प्रिंट मीडिया उद्योग की लागत लगभग 7000 करोड़ रुपए हैं|  राष्ट्रीय पार्क पाठक सर्वेक्षण ( एन. आर. एस)  2002 से पता चलता है कि वर्तमान में प्रिंट मीडिया की पाठक संख्या 10% से बढ़कर 16 से 18 करोड़ तक पहुंच चुकी है|  इसमें समाचार पत्रों की पाठक संख्या लगभग 13.1 से 15.6 करोड़ हो गई है|  इससे यह संकेत मिलता है कि लगभग 24.8 करोड़ ऐसी वयस्क आबादी है जो पढ़ी लिखी तो है पर कोई समाचार पत्र अथवा पत्रिका की सीमा रेखा में  नहीं आती| दूसरे शब्दों में, समाचार पत्रों के अभाव अथवा आकर्षण से पढ़ी-लिखी वयस्क आबादी का योग देश के विकास में नहीं हो पा रहा है|  वह देश की मुख्य धारा से अलग-थलग हैं|

अभी तो यह केवल मंत्रिमंडल का निर्णय है|  जिस प्रकार समाचार पत्रों के महत्व के दिशा निर्देश पर संसद में बहुमत के अभाव में वर्ष 1997 फैसला नहीं हो पाया उसी तरह ऐसे साहसिक एवं क्रांतिकारी निर्णय पर संसद से उसे कभी बहुमत प्राप्त होगा अथवा नहीं ?  क्योंकि विपक्षी नेताओं के विरोध का आलाप अभी से प्रारंभ कर दिया है।

 

डॉ. माला मिश्रा
एसोसियट प्रोफेसर,अदिति महाविद्यालय
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली

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