कबीर भक्तिकाल के संत कवियों में श्रेष्ठतम स्थान रखते हैं । इन्होंने अपने काव्य में भारतीय योग दर्शन का समुचित प्रयोग किया ।योग तन, मन, आत्मा समेत चेतना की सभी स्थितियों के  उन्नयन  और परिमार्जन का एक सशक्त माध्यम है ।डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर के काव्य में भक्ति  पर विचार करते हुए लिखा था कि “कबीर की भक्ति योग के क्षेत्र में प्रेम का बीज पड़ने से अंकुरित हुई थी ।”कहने का  आशय यह है कि  उनकी भक्ति का मूलाधार योग ही था।वस्तुतः कबीर के काव्य में योग, प्रेम, भक्ति  इत्यादि  अंतर्भुक्त हैं ।उनमें एक विचित्र प्रकार की समरसता है ।यही कारण है कि  कोई उन्हें    ज्ञानी कहता है तो कोई भक्त  अथवा संत ।योग भारत की संपूर्ण विश्व को अद्भुत देन है ।योग दर्शन में ‘योगश्च चित्तवृत्ति निरोध:’     कहकर योग को पारिभाषित किया गया है ।अर्थात मन की वृत्तियों का शांत हो जाना ही योग है ।कबीर न केवल योग की महिमा से सुपरिचित थे अपितु  अपने काव्य द्वारा उसे नवीन प्रतिष्ठा भी दिलाते हैं ।वे सहज योग की प्रतिष्ठा द्वारा उसे जनसुलभ बनाते हैं ।कबीर को योग संबंधी सूक्ष्म विषयों का ज्ञान था।वे अपने काव्य में जिस स्वानुभूत सत्य का उद्घाटन करते हैं वह योगानुभव पर ही  आधारित है ।कबीर परिपक्व ज्ञान  और भक्ति में कोई तात्विक  अंतर नहीं मानते क्योंकि यह ज्ञान शुद्ध चित्त होने के  उपरांत ही प्राप्त होता है जो योग द्वारा ही संभव है ।कबीर योग साधना के क्षेत्र में गुरु की भूमिका को विशेष महत्व देते हैं ।कबीर की दृष्टि में मनुष्य योग साधना  द्वारा अहंकार रहित और सांसारिक विषयों से  उदासीन हो जाता है ।यह  आत्मिक पवित्रता ही उसे  अच्छे कार्यों  और ईमानदार प्रयासों की ओर  उन्मुख करती है ।

जब हम कबीर के योग चिंतन पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि उन्होंने पिंड और ब्रह्मांड की जिस एकता का निर्वचन किया है उसकी सर्वप्रथम चर्चा अथर्ववेद में हुई है। हमारे मंत्रद्रष्टा मुनियों ने अथर्ववेद की रचना के समय ही ब्रह्मांड और पिंड की अभेदता का विरहस्यीकरण कर लिया था। अथर्ववेद की एक स्थान पर कहा गया है कि    “अष्ट्रचक्रा नवद्वारा देवेन्द्र पूरयोध्या।

तस्याम् हिरण्यमयःकोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः ।।”—अथर्ववेद 10-1,2,31मंत्र 7     ।

[कबीर का योग चिंतन इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है कि  उसके माध्यम से वे मनुष्य के भीतर की अनंत संभावनाओं को टटोलकर जगाने और सक्रिय करने का भी उपक्रम है ।कबीर के लिए कुंडलिनी का जागना प्रकारांतर से मनुष्य की सुषुप्त  आंतरिक शक्ति का जागना है ।बिना जागे न तो मनुष्य स्वयं को विकसित कर सकता है और न ही  समाज अथवा राष्ट्र को ।योग हमें जगा कर  अपनी शक्तियों के सदुपयोग का मार्ग प्रशस्त करता है ।वह मनुष्य के मन को शुद्ध, सात्विक  और निश्छल बनाता है ।यदि मनुष्य का मन बदल जाए तो समय  और समाज के बदलने में देर नहीं लगेगी ।कबीर योग साधना द्वारा मानव -मन का परिष्कार करना चाहते हैं ।इस दृष्टि से ही  उसे लोककल्याण से जोड़ा जा सकता है ।पेशे, रहन-सहन  और सामाजिक हैसियत से कबीर  इस देश के ठेठ  आम आदमी थे ।वे बुनकर थे और कामगार होने का तनिक भी मलाल  उन्हें नहीं था ।उनके चिंतन के केंद्र में जनसाधारण ही था ।फलतः वे जनसामान्य के अनूरूप योग और भक्तिमार्ग का प्रवर्तन करते हैं ।वे सारे धर्म- संप्रदायों के कर्म-कांड से मुक्त होकर सहज साधना  और भक्ति का आदर्श  उपस्थित करते हैं । इस देश का सामान्य नागरिक जिन नियमों का स्वाभाविक रूप से पालन कर सकता है, कबीर  उसी को आदर्श मानकर चलते हैं ।उनके लिए योग पद्धति मानवीकरण की प्रक्रिया का ही अंग है ।अपने मानवीय दृष्टिकोण के कारण कबीर स्वयं को बौद्ध- सिद्धों और नाथों से अलग कर लेते हैं ।वे योग के साथ- साथ  अपने आराध्य के प्रति समर्पण और भावाकुलता भी लाते हैं ।उनके  अनुसार राम से प्रेम करना साधना के क्षेत्र की खरी कसौटी है ।इस पर कोई खोटा व्यक्ति अर्थात सांसारिकता में लिप्त व्यक्ति नहीं टिक सकता ।इस साधना के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कबीर को सारे संसार में मात्र दो प्रतीक  उपयुक्त प्रतीत हुए- सती और शूर । जिस तरह शूरवीर युद्ध क्षेत्र में  अपने पैर पीछे नहीं रखता । जरूरत पड़ने पर  अपने प्राणों की आहुति देकर  लक्ष्य सिद्ध करता है ।वह धीरबुद्धि और स्थिर मन वाला होता है ।उसका संकल्प  अविचल होता है ।ठीक उसी तरह  साधक को भी दृढ़ निश्चयी और निर्भय होना पड़ता है ।कबीर के लिए साधना का क्षेत्र भी एक प्रकार का युद्ध क्षेत्र ही है ।काम, क्रोध, लोभ, मोह  इत्यादि को जीतकर ही सिद्धि तक पहुंचा जा सकता है ।कबीर के  अनुसार  इसी तरह सती का मन भी अविचल होता है ।वह सारे प्रलोभनों और आकर्षणों को त्यागकर मन में मात्र अपने प्रियतम के मिलन की भावना संजोकर कुर्बान हो जाती है ।यह सात्विक उत्सर्ग  उसे प्रेम- साधना के  उच्चतम स्तर पर पहुँचा देता है ।कबीर साधक से यही  अपेक्षा रखते हैं । ऐसा करके ही वह  सिद्धि तक पहुँच सकता है ।वे  अभेद दृष्टि प्राप्त करने के लिए भी साधना को अनिवार्य मानते हैं । उनका स्पष्ट  अभिमत है कि जब सारे संसार में  एक ही तत्त्व व्याप्त है तो यह भेदभाव व्यर्थ है ।कबीर मनुष्य मात्र के लिए  इसी स्थिति की कामना करते हैं । इस तरह कबीर के लिए योग साधना केवल ईश्वर प्राप्ति का माध्यम ही नहीं है अपितु मानवीय समता  और समदृष्टि स्थापना का मूल सूत्र भी है ।कबीर की साधना आत्यंतिक तथा आंतरिक है।वे आत्मा-परमात्मा की अभेदता की चर्चा करते हुए भी उसे अंतर्जगत में ढूंढने की बात करते हैं। उनके अनुसार   “ज्यों तिलमांही तेल है,ज्यों चमक में आगि।तेरा साईं तुझमें है,जागि सके तो जागि।।”उनका निवृत्ति मार्ग वैराग्य पर आधारित है। योगमार्ग की सिद्धि माया से मुक्ति के बगैर संभव नहीं है। इसके लिए चित्त की निर्मलता जरूरी है। मनुष्य निर्मल चित्त द्वारा ही स्वबोध की स्थिति को प्राप्त करता है। कबीर के अनुसार साधक का आत्मबोध अथवा स्वबोध ही सहज दशा को प्राप्त करता है। संत का स्वबोध तथा जगत बोध उसे सांसारिक प्रपंचों से मुक्त रखता है। अतः इनका योग चिंतन प्रेम का आश्रय पाकर सहज योग बन गया है। कबीर कविता द्वारा उस चरम सत्य के उद्घाटन का कार्य करते हैं। इस तरह भौतिक संतापों से मनुष्य की रक्षा करना और उससे बचने का मार्ग बताना भी कबीर के काव्य का अभिप्रेत है।

वस्तुतः योग शब्द का प्रयोग कई अर्थों में होता है । इसका सामान्य अर्थ संबंध  अथवा मिलन है ।दर्शनशास्त्र में योग का  अर्थ जीवात्मा और परमात्मा के मिलन के संदर्भ में होता है ।इस संबंध को प्राप्त करने की प्रक्रिया को योग कहते हैं ।भारतीय परंपरा में सर्वप्रथम पतंजलि ने योगसूत्र की रचना की । उनके द्वारा प्रतिपादित योग को राजयोग की संज्ञा दी गई है । इससे भिन्न हठयोग है जिसकी उत्पत्ति तंत्र ग्रंथों से हुई है ।योग की उत्पत्ति को लेकर विद्वानों में मतभेद भी है ।कतिपय विद्वान  इसका संबंध वैदिक परंपरा से जोड़ते हैं तो कुछ इसे जैन ग्रंथों से निकला हुआ मानते हैं । ऐसे विद्वान भी हैं जो योग की उत्पत्ति बौद्ध दर्शन में ढूँढते हैं ।भारतीय विद्वानों का एक वर्ग योग को स्वतंत्र परंपरा में रखकर प्राचीन काल से  उसका संबंध जोड़ता है।इसी तरह  उक्त चार परंपराओं में योग भी चार प्रकार से व्याख्यायित हुआ ।यदि राजयोग का संबंध वैदिक परंपरा से है तो हठयोग का तंत्रशास्त्र से है ।जैन  और बौद्ध परंपरा में  इन दोनों का ही स्वरूप बदल जाता है ।हिंदी साहित्य के इतिहास में सबसे पहले गोरखनाथ हठयोग का प्रवर्तन करते हैं ।योग सूत्र में यमुना,नियम, आसन,  प्राणायाम  और प्रत्याहार को सिद्धि का बाहरी साधन माना गया है ।जबकि  अंतिम तीन ध्यान, धारणा  और समाधि को आंतरिक साधन माना गया है ।कबीर  काफी हद तक गोरखनाथ से प्रभावित थे और अपनी कविता में हठयोग की शब्दावली का प्रयोग भी करते हैं । लेकिन वे स्वतंत्रचेता थे जिसके कारण स्वयं को हठयोग से मुक्त कर लेते हैं ।वे अनेक स्थलों पर हठयोग की निंदा भी करते हैं ।वस्तुतः कबीर का योग चिंतन पतंजलि और गोरखनाथ दोनों से भिन्न है ।उनका योग भक्ति योग है जो जनसुलभ है ।कबीर की दृष्टि अत्यंत व्यावहारिक थी ।वे जनसाधारण को ध्यान में रखकर ही योग की प्रतिष्ठा करते हैं ।उनका  अद्वैतवाद  इसी  अर्थ में विलक्षण है कि वे अपने समय की  आवश्यकता के अनुसार उसके स्वरूप में परिवर्तन कर देते हैं ।वे भलीभाँति जानते थे कि  इस देश का सामान्य नागरिक कठोर साधना नहीं कर सकता ।फलतः  उन्होंने साधना पद्धति को सरस  और सरल बनाया ।वे इस  अर्थ में विशिष्ट हैं कि वे अपने विचारों से मानवता के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करते हैं ।वे मनुष्यता के लिए शाश्वत मूल्य  और मर्यादाएं निर्धारित करते हैं ।उन्होंने मनुष्य की समस्त विभाजक रेखाओं को अस्वीकार करते हुए मानव मात्र की एकता, समता तथा बंधुत्व का प्रादर्श रखा । उनके अनुसार किसी भी साधना पद्धति का अंतिम लक्ष्य मानव जाति का कल्याण होना चाहिए ।यही कारण है कि  कबीर की विचारधारा हर वर्ग को जोड़ती है ।वह  आज भी प्रासंगिक बनी हुई है ।

                 यह हमारे लिए अत्यंत हर्ष का विषय है कि इस देश के मनीषियों द्वारा पुरस्कृत योग अब  अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के रूप में संपूर्ण मानव जाति का कल्याण कर रहा है ।वह विश्व स्तर पर प्रचारित- प्रसारित हो रहा है ।कबीर जैसे कवियों, योगियों की साधना  आज अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सार्थकता प्राप्त कर रही है ।वह संपूर्ण विश्व के तन, मन, प्राण,  आत्मा का परिष्कार  और उन्नयन कर रही है ।भारतीय योग परंपरा में कबीर का योगदान इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि उन्होंने उसे लोकानुभव से परिपुष्ट किया है,उसे लोकोपकारी बनाया है।वर्तमान दौर की मनुष्यता ही नहीं बल्कि उसमें युग-युगांतर तक की मनुष्यता का उपकार करने की संभावना निहित है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि वह भावी पीढ़ियों को और भी ज्यादा प्रेरित और प्रभावित करेगा।

जय हिंद जय हिंदी।

 

प्रो.करुणाशंकर उपाध्याय

 हिंदी विभाग,मुंबई विश्वविद्यालय

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