आज बहुत दिनों बाद

तुमसे मेरी नज़रें मिलीं,

पिछली बार का याद नहीं

एक लंबा अरसा गुज़र गया है!

चलते-चलते अचानक ठिठक गया

मेरे क़दम मेरा साथ नहीं दे रहे थे,

शहर के वीरान सड़कों पर

तुम्हें उदास बैठे देखना,

याद दिलाता है मुझे कुछ;

मेरा; तुम्हारा आशियाँ छीन लेना,

तुम्हारी गँवईं ख़ुशियों को

मेरे द्वारा मशीनी बना देना,

तुमसे पगडंडियाँ और टहनियाँ छीन

मकानों के बीच सड़कों पर छोड़ जाना,

तुम्हारी चंचलता को मार देना।

तुम्हें कभी इतना उदास नहीं देखा था,

तुम्हारा बंद मकानों के

दरवाज़ों और खिड़कियों को निहारना,

मुझे मेरा बचपन याद दिला गया;

मैं तुम्हें जब-जब परेशान करता था

तुम फुदक-फुदककर बच लेती थी

और मेरा मज़ाक़ उड़ाती

एक साथी की तरह।

आज तुम शहरी बच्चों के

पत्थर मारने पर भी

क्यों तुम उछलती-कूदती नहीं?

बचने की कोशिश नहीं करती,

तुम्हारी आँखों में आज चंचलता नहीं दीख रही,

मैंने आज लाचारी देखी है इन आँखों में!

हाँ, तुम्हें कभी इतना उदास नहीं देखा मैंने!

तुम साथी थी;

तुमसे परिवार था मेरा,

घर की ख़ुशियों की हिस्सा थी तुम,

वो तुम्हारी चंचलता और छेड़ना हमें

घूम गया आँखों के सामने।

तुम आज़ाद थी;

फिर भी दुनिया की सैर कर

घर में ख़ुशियाँ बाँटने चली आती थी,

तुमने हमें अपनी दुनिया बनाई थी!

याद आता है मुझे;

सबेरे और शाम की आहट

तुमसे ही मिलती थी पहले पहल।

तुमने कभी कुछ माँगा नहीं

हाँ, तुम साथी थी

मेरे परिवार की…

याद आता है

घर से निकलते वक़्त

छोटी ने कहा था-

‘चाचू तोता बस बोलता है,

गौरैया लाना…

वो मेरे साथ रहेगी!’

क्या ज़वाब दूँगा मैं छोटी को?

शाम को जब वो पूछेगी,

तुम्हारे बारे में…?

                                        शैलेंद्र कुमार सिंह
                                        शोधार्थी
दिल्ली विश्वविद्यालय

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